दो तरह के भगवान | Do tarah ke bhagwan

दो तरह के भगवान

रचयिता: डा. हुकमचन्द जी भरिल्ल

(दोहा)
निज आतम का स्मरण नमन करूँ अरहंत।
निज आतम के रमण से आवे भव का अंत।।१।।

(वीर )
हे भव्य! सुनो भगवान दो तरह के होते जगतीतल में।
पहले रहते जिन मंदिर में दूजे रहते तन मंदिर में।।
पहले पर हैं, दूजे हैं निज; पहले पर्यायरूप भगवन।
दुजे द्रव्यरूप जिनको कहते हैं कारणपरमातम।।२।।

अरे आज तक मुक्ति गये जो वे हैं सभी सिद्ध भगवान।
उनकी ही अरहंत दशा की जिन प्रतिमाओं का निर्माण।।
और प्रतिष्ठित होकर वे सब बनती है जिन देव महान।
जिन मंदिर में राजित होकर वे ही बनती हैं भगवान ।।३।।

उनकी पूजा भक्ति भाव से जो करते उन भव्यों को।
अरे सातिशय पुण्यबंध होता है जिनवर भक्तों को।।
सामान्य पुण्य से सब लौकिक सुविधायें तो मिल जाती हैं।
ए.सी. बंगले ए.सी. मोटर सब सुविधायें जुट जाती हैं ।।४।।

ए.सी. जैसी सुविधायें तो बिल्ली-कुत्तों को मिल जाती।
हम से भी अच्छी सुविधायें उनको भी तो हैं जुट जाती।।
उनको तो ये सब सुविधायें बिन श्रम के ही हैं मिल जाती।
हमको श्रम करने पर ही तो ये सब सुविधायें जूट पातीं।।५।।

हम स्वयं जुटाते हैं तब ही मिलती हैं ये सब सुविधायें।
कुत्ते-बिल्ली कुछ करें नहीं फिर भी मिलती ये सुविधायें।।
पर मुक्तिमार्ग में उपयोगी साधन तो प्राप्त नहीं होते।
अरे सातिशय पुण्योदय से ही वे हमें प्राप्त होते।।६।।

देव-शास्त्र-गुरु का अर्चन अर जिनवाणी का श्रवण-मनन।
और देशना की लब्धि निज आतम का होता चिन्तन।।
निज आतम का होता चिन्तन साधर्मीजन का सहज मिलन।
सत्गुरुओं का सत्संग और होते प्रतिदिन जिनवर दर्शन।।७।।

अरे सातिशय पुण्य बंधे जिनप्रतिमाओं के अर्चन से।
अर सब सुविधायें मिलें हमें जिनदर्शन से जिनपूजन से।।
भले सातिशय पुण्य बंधे पर उससे कर्म नहीं कटते।
स्वर्ग-संपदा भले मिले पर हम भगवान नहीं बनते।।८।।

हम भगवान नहीं बनते न हमको मुक्ति मिलती है।
भव के सब भोग मिलें लेकिन कर्मों से मुक्ति न मिलती है।।
कर्मों से मुक्ति न मिलती है पर कर्मबंध ही होता है।
कर्मों के बंधन से भाई भव-भव में रुलना होता है।।१।।

यदि भगवान तुम्हें बनना निज को देखो निज को जानो।
निज में ही जमकर रम जावो अर नित ही निज को तुम ध्यावो।।
अपने में ही अपने अपने से अपने में जमने-रमने से।
कर्मों से मुक्ति मिलती है निज में अपनापन करने से।।१०।।

निज में अपनापन करने से निज में सर्वस्व समर्पण से।
रे ज्ञान-ध्यान-श्रद्धान - सभी अपने में अर्पण करने से।।
अपना ही आतमराम रहे जो इस शरीर के मन्दिर में।
वह ही दूजा भगवान मुक्ति का कारण जो इस भूतल में।।११।।

(रेखा)

अरे कारण परमातम रूप कहा जो अपना आतमराम।
यही है ज्ञान ध्यान का ध्येय यही है रे दूजा भगवान।।
इसी के आराधन से प्रभो! बने हम पर्यय में भगवान।
यही है मेरा असली रूप यही मेरी असली पहचान।।१२।।

अरे मैं ही मेरा भगवान ज्ञान-दर्शन से हूँ परिपूर्ण।
अनन्तानन्त गुणों का पिण्ड चण्ड सर्वांग और सम्पूर्ण।।
सभी परद्रव्यों से मैं पृथक् और अपने में ही परिपूर्ण।
नहीं है मुझमें कोई कमी अरे मैं स्वयं स्वयं में पूर्ण।।१३।।

देह में रहूँ देह से भिन्न देह जड़ मैं चेतन सर्वांग।
देह में ज्ञान नहीं है रंच ज्ञान का केतन मैं सर्वांग।।
शान्ति का सागर सहजानन्द ज्ञान का पिण्ड और सुखकंद।
परम आनन्द सहज आनन्द अरे आनन्द और आनन्द।।१४।।

अरे सम्यक् श्रद्धा का प्रभो कहा जो एकमात्र श्रद्धेय।
अरे रे परम बुद्धि निश्चय नय का जो एकमात्र है ज्ञेय।।
अरे रे श्रद्धा का श्रद्धेय, ज्ञान का ज्ञेय ध्यान का ध्येय।
वही है मेरा आतमराम वही है एकमात्र आदेय।।१५।।

यही है एकमात्र आदेय यही है एकमात्र श्रद्धेय।
यही है मंगल उत्तम शरण यही है धर्म ध्यान का ध्येय।।
अरे यह ही आनन्द स्वरूप यही कारण परमातम रूप।
यही है परमभाव का रूप यही है अद्भुत और अनूप।।१६।।

हमारा मन पापों से बचे इसलिये जिनमन्दिर में जाय।
और सामान्य पुण्य से बचें क्योंकि वह भोगों में उलझाय।।
यदि भोगों में तुम उलझे तो उससे होय पाप का बंध।
भोग से बचो, पाप मत करो और तुम हो जावो निर्बन्ध।।१७।।

अरे मिथ्यात्वभाव को तजो और तुम पुण्य-पाप से बचो।
निरन्तर अपने में ही रमो और अपने आतम को भजो ॥
एक वह ही भजने के योग्य एक वह ही रमने के योग्य।
उसी से प्रकटे आतमधर्म उसी से कटते हैं सब कर्म।।१८।।

तुम्हारा आतम है भगवान करो उस आतम का श्रद्धान।
करो तुम उस आतम का ज्ञान करो तुम उस आतम का ध्यान।।
अरे इतना करने से आप बनेंगे पर्यय में भगवान।
यही है एकमात्र कर्त्तव्य यही है अद्भुत कार्य महान।।१९।।

(दोहा)
निज आतम भगवान की महिमा अपरंपार।
निज आतम के ध्यान से हो आनन्द अपार।।२०।।
यह ही निश्चय ध्यान है सम्यग्दर्शन ज्ञान।
निश्चय रत्नत्रय यही यह ही धर्म महान।।२१।।

Singer- @shruti_jain1

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