देव-शास्त्र-गुरु | Dev-shastra-guru

गुरु - मंगलाचरण

तन में लगी धूल है भूषण और शिलातल है स्थान।
ककरीली भू शैया सिंह गुफा प्राकृतिक वास सुजान।।
यह मैं, मैं इनका यह बुद्धि नष्ट हुई विनशा अज्ञान।
मन को करें पवित्र हमारे, मुक्तिपात्र निष्प्रह धन - ज्ञान।।1।।

उत्कृष्ट संयम भार धरकर भी हुए नहीं खिन्न जो।
दुर्जय कषायें जीतने का अकेले हैं करिबद्ध जो।।
ज्ञानरूपी शस्त्र को प्रभु, तीक्ष्ण करने के लिए।
जाग्रत रहे प्रभु सतत ही श्रुत का मनन करते हुए।।2।।

धरि कवच संयम ध्यान उग्र, कठोर असि निज हाथ ले।
व्रत समिति गुप्ति सुधर्म भावन, वीर भट भी साथ ले।।
परचक्र राग - द्वेष हनि, स्वातन्त्र्य निधि पाते हुए।
वे स्व - पर तारक गुरु को हम शीश नावत खुश हुए।।3।।

अनशन ऊनोदर तप पोषत, पक्ष मास दिन बीत गये हैं।
जो नहीं बने योग्य भिक्षाविधि, सूख अंग सब शिथिल भये हैं।।
तब तहां दुस्सह भूख की वेदना, सहत साधु नहिं नेक नये हैं।
तिनके चरण कमल प्रति वंदन, हाथ जोड़ हम शीश नये हैं।।4।।

चन्द्र की उज्ज्वल किरण से भी धवल वे सन्त हैं।
शान्त रस के छन्द की अनुभूति से सन्त हैं।।
त्याग संयम ज्ञान के पावन समन्वित रूप में,
आत्म चिन्तन लीन, शिवपथ के पथिक वे सन्त हैं।।5।।

विषयाशा के नहीं वशी जो निष्कांक्षित तप तपते हैं।
समस्त परिग्रह को त्यागा और निरारम्भ जो रहते हैं।।
ज्ञान ध्यान में लीन सदा जो परम दिगम्बर वेश धरें,
वे ही सच्चे वन्दनीय गुरु वही हमारे ताप हरें।।6।।

निज सत्पथ पर आरूढ़ नग्न शाश्वत स्वरूप दर्शाया है।
नश्वरता जग की प्रतिभाषित, चित आतमज्योति लखाया है।।
जब विषयों में रच - पच प्राणी, मोही हो सब खोता है।
तब ध्यानलीन तनछीन निजातम अनुपम सौख्य बिलौता है।।7।।

जहाँ धरें गुरु चरण वहाँ की रज चन्दन बन जाती है।
मरुस्थल में भी कल - कल करती कालिन्दी बह जाती है।।
पावन पग दो पड़ने से भू पुष्प धरा बन जाती है।
निर्गम में भी पहचानी - सी पगडण्डी बन जाती है।।8।।

निसंग है जो वायुसम, निर्लेप हैं आकाश से।
निज आत्म में ही विहरते जीवन न पर की आश से।
जिनके निकट सिंहादि पशु भी भूल जाते क्रूरता।
उन दिव्य गुरुओं की अहो कैसी अलौकिक शूरता।।9।।

जहाँ चरण पड़ते मुनिजन के धन्य धरा हो जाती है।
चरण धूल पड़ते ही सिर पर सुसह्य तृषा मिट जाती है।।
दर्शन से अनुभूति हर्ष को जाता मिट सन्ताप है।
सन्तजनों का वास है जहाँ रहता न तिलभर पाप है।।10।।

यह नग्न दिगम्बर वीतरागी, क्रोधादि कषायों के त्यागी।
इन बुझा दई सब राग आग, स्वातम चिन्तन में लौ लागी।।
इनका स्वरूप लखि जग नश्वर, प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
इस रूप से ही पद अविनश्वर, प्राणी जग से पा लेता है।।11।।

जग से उदास रहें स्वयं में वास जो नित ही करें।
स्वानुभवमय सहज जीवन मूलगुण परिपूर्ण हैं।।
नाम लेते ही जिन्हों का हर्षमय रोमांच हो।
संसार भोगों की व्यथा मिटती परम आनन्द हो।।12।।

जिनके शुचि तप की पावक से जल जाते हैं पाप अशेष।
वसुधा बनती पुण्यथली है, जीवमात्र के कटते क्लेश।।
स्वर्ग अवतरित होता भूपर धर्मज्योति का धवल प्रकाश।
शत - शत बार नमन मुनियों को सदा रहूँ चरणों का दास।।13।।

हो न अंश विभाव का तो आत्मरस से ओतप्रोत।
सिंह जैसी गर्जनाकर ज्ञान का खुल जाए स्रोत।।
विकल्पों की धधकती भट्टी अभी मैं दूँ बुझा।
बार - बार उपाय अनुपम गुरु रहे कब से सुझा।।14।।

विषयों की आशा नहिं जिनके, साम्य - भाव धन रखते हैं।
निज - पर के हित साधन में जो, निशि - दिन तत्पर रहते हैं।।
स्वार्थ - त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं।
ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुःख - समूह को हरते हैं।।15।।
(मेरी भावना)

हे गुरुवर! शाश्वत सुखदर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है।
जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है।।
जब जग विषयों में रच - पच कर गाफ़िल निद्रा में सोता हो।
अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विषकंटक बोता हो।।16।।
(देव - शास्त्र - गुरु - पूजन)

हो अर्द्ध - निशा का सन्नाटा वन में वनचारी चरते हों।
तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिन्तन करते हो।।
करते तप शैल - नदी - तट पर, तरु - तल वर्षा की झड़ियों में।
समता - रस पान किया करते, सुख - दुःख दोनों की घड़ियों में।।17।।
(देव - शास्त्र - गुरु - पूजन)

अन्तर्ज्वाला धरती वाणी, मानो झड़ती हों फुलझड़ियाँ।
भव - बन्धन तड़ - तड़ टूट पड़ें, खिल जायें अन्तर की कलियाँ।।
तुम - सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियाँ।
दिन - रात लुटाया करते हो, सम - शम की अविनश्वर मणियाँ।।18।।
(देव - शास्त्र - गुरु - पूजन)

दिन - रात आत्मा का चिन्तन, मृदु सम्भाषण में वही कथन।
निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रकट हो रहा अन्तर्मन।।
निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो।
ज्ञानी - ध्यानी - समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो।।
चलते - फिरते सिद्धों - से गुरु - चरणों में शीश झुकाते हैं।
हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं।।19।।
(देव - शास्त्र - गुरु - पूजन)

जिनगुरु की महिमा है महान, जो नग्न दिगम्बर करत ध्यान।
गज, मृग, सिंह विचरत चहूँ ओर, विप्लव फैलावें बैरी घोर।।
वे पंचमहाव्रत धरें धीर, आतम का मंथन हरैं पीर।
पूजें सब उनको भक्तिभाव, ढिग बैठ सुनैं सब धर्म चाव।।20।।

संकलन

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