पर्युषण या दशलक्षण | Paryushan ya Daslakshan

मिच्छामि दुक्कडं’ और ‘पर्युषण पर्व’ कहना गलत नहीं है

प्रो.अनेकांत कुमार जैन
अध्यक्ष-जैनदर्शन विभाग
श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ
नई दिल्ली -१६,
** [email protected]**

वर्तमान में दिगंबर जैन समाज में व्यवहार में मूल प्राकृत आगमों के शब्दों के प्रायोगिक अभ्यास के अभाव के कारण कई प्रकार की भ्रांतियां उत्पन्न हो रही हैं जिस पर गम्भीर चिन्तन मनन आवश्यक है | मैं इस विषयक में कुछ स्पष्टीकरण देना चाहता हूँ -

१.एक भ्रान्ति यह फैल रही है कि ‘मिच्छामि दुक्कडं’ शब्द श्वेताम्बर परंपरा से आया है |कारण यह है कि श्वेताम्बर श्रावकों में मूल प्राकृत के प्रतिक्रमण पाठ पढने का अभ्यास ज्यादा है | दिगंबर परंपरा में यह कार्य मात्र मुनियों तक सीमित है | दिगंबर श्रावक भगवान् की पूजा ज्यादा करते हैं ,कुछ श्रावक प्रतिक्रमण करते हैं तो हिंदी अनुवाद ही पढ़ते हैं ,मूल प्राकृत पाठ कम श्रावक पढ़ते हैं अतः ‘मिच्छामि दुक्कडं’ का प्रयोग श्वेताम्बर समाज में ज्यादा प्रचलन में आ गया जबकि दिगंबर परंपरा के सभी प्रतिक्रमण पाठों में स्थान स्थान पर ‘मिच्छामि दुक्कडं’ का प्रयोग भरा पड़ा है ,अतः यह कहना कि यह श्वेताम्बरों से आया है बिल्कुल गलत है | वास्तविकता यह है कि प्रतिक्रमण पाठ गौतम गणधर के काल से यथावत चल रहा है जब श्वेताम्बर दिगंबर का भेद भी नहीं हुआ था | यह पाठ प्रतिदिन करणीय था इसलिए वास्तव में दिगंबर-श्वेताम्बर परंपरा के मुनियों ने अपने कंठों में इसे श्रुतपरम्परा की भांति आज तक सुरक्षित रखा हुआ है ,इसलिए वह कुछ पाठ भेद के बाद भी दोनों जगह लगभग एक सा है |

२. दूसरी भ्रान्ति यह फ़ैल रही है कि दसलक्षण पर्व को ‘पर्युषण पर्व’ कहना गलत है क्यों कि यह श्वेताम्बर परंपरा मेंl मनाया जाता है | यह धारणा भी ठीक नहीं है | यद्यपि श्वेताम्बर परंपरा में यह शब्द ज्यादा प्रचलित है तथा श्वेताम्बर आगमों में इसका उल्लेख भी बहुतायत से मिलता है किन्तु दिगंबर साहित्य में भगवती आराधना और मूलाचार में साधुओं के जिनकल्पी और स्थविरकल्पी - ये दो भेद बताये हैं और स्थविरकल्प के दस भेद बताते हुए लिखा है –
आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे।
जेट्ठपडिक्कमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो।।
(देखें - भगवती आराधना –गाथा ४२३ ,पृष्ठ ३२०,प्रका.जैन संस्कृति संरक्षक संघ ,शोलापुर ,२००६
तथा मूलाचार ,अधिकार-१०,गाथा-१८ )
विजयोदया टीका में लिखा है कि ‘ पज्जोसमणकल्पो नाम दशमः | वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः’ (भ.आरा.विजयो.टीका पृष्ठ ३३३ )
अर्थात् पज्जोसमण नाम का दसवां कल्प है जिसका अभिप्राय हैl वर्षा काल के चार मासों में भ्रमण त्यागकर एक ही स्थान पर निवास करना | इस हिसाब से देखें तो चातुर्मास को पर्युषण कहते हैं और इस दौरान जो भी पर्व आते हैं उन्हें पर्युषण पर्व कहते हैं |
इस प्रकरण में पंडित कैलाशचंद शास्त्री जी ने एक स्पष्टीकरण भी दिया है –
‘प्राकृत में दसवें कल्प का नाम ‘पज्जोसवणा’ है उसका संस्कृत रूप पर्युषणाकल्प है | इसी से भादों के दसलक्षण पर्व को पर्युषण पर्व भी कहते हैं | श्वेताम्बर परंपरा में भी इसका उत्कृष्ट काल आषाढ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक चार मास है |जघन्य काल सत्तर दिन है | भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिक की पूर्णिमा तक सत्तर दिन होते हैं | संभवतः इसी से दिगंबर परंपरा में पर्युषण पर्व भाद्रपदशुक्ला पंचमी से प्रारंभ होते हैं | इस काल में साधु विहार नहीं करते | (देखें - भगवती आराधना पृष्ठ ३३४ )

एक निवेदन यह भी है कि आजकल हम लोग बहुत सी प्रचलित परम्पराओं और अनुष्ठानों तथा पर्वों को लेकर यह कहने लग गए हैं कि यह तो अन्य परंपरा से हमारे यहाँ आई है ,यह हमारी नहीं है | हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए | तथा सोच समझ कर कथन करना चाहिए | हमारा बहुत सा साहित्य नष्ट हो गया है ,किन्तु परंपरा में कई आवश्यक विधान हमारे आचार्यों /विद्वानों ने कुछ सोच समझ कर समाज के हित में प्रारंभ किये थे | हम हर चीज को दूसरों का कह कर यदि दुत्कारते रहेंगे तो एक दिन अपना ही वजूद खो बैठेंगे | श्वेताम्बर परंपरा के प्रति भी बहुत हेयदृष्टि नहीं रखनी चाहिए ,वे चाहे कुछ भी हों ,हैं तो हमारे ही भाई और भगवान् महावीर की बहुत सारी सम्पदा दिगंबर –श्वेताम्बर दोनों भाइयों ने मिल कर संरक्षित की है | सैद्धांतिक और आचारगत अनेक मतभेद होते हुए भी जैन संस्कृति के संरक्षण में भी दोनों में से किसी के भी अवदान को नकारा नहीं जा सकता है |

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