प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

सुखाधिकार

मूर्त और अमूर्त इन्द्रिय अर अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख ।
इनमें अमूर्त अतीन्द्रियी ही ज्ञान-सुख उपादेय हैं ।।५३।।
अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को।
स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ।।५४।।
यह मूर्ततनगत जीव मूर्त पदार्थ जाने मूर्त से।
अवग्रहादिकपूर्वक अर कभी जाने भी नहीं ।।५५।।।
भौगोलिक स्पर्श रस गंध वर्ण अर शब्दादि को।
भी इन्द्रियाँ इक साथ देखो ग्रहण कर सकती नहीं ।।५६।।
इन्द्रियाँ परद्रव्य उनको आत्मस्वभाव नहीं कहा।
अर जो उन्हीं से ज्ञात वह प्रत्यक्ष कैसे हो सके ?।।५७।।
जो दूसरों से ज्ञात हो बस वह परोक्ष कहा गया।
केवल स्वयं से ज्ञात जो वह ज्ञान ही प्रत्यक्ष है ।।५८।।
स्वयं से सर्वांग से सर्वार्थग्राही मलरहित ।
अवग्रहादि विरहित ज्ञान ही सुख कहा जिनवरदेव ने ।।५९।।
अरे केवलज्ञान सुख परिणाममय जिनवर कहा।
क्षय हो गये हैं घातिया रे खेद भी उसके नहीं ।६०।
अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है।
नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं।।६१।।
घातियों से रहित सुख ही परमसुख यह श्रवण कर।
भी न करें श्रद्धान तो वो भवि भवि श्रद्धा करें ।।६२।।
नरपती सुरपति असुरपति इन्द्रियविषयदवदाह से।
पीड़ित रहें सह सके ना रमणीक विषयों में हमें।।६३।।
पंचेन्द्रियविषयों में रती वे हैं स्वभाविक दुःखीजन ।
दु:ख के बिना विषय विषय में व्यापार हो सकता नहीं ।।६४।।
इन्द्रिय विषय को प्राप्त कर यह जीव स्वयं स्वभाव से ।
सुखरूप हो पर देह तो सुखरूप होती ही नहीं ।।६५।।
स्वर्ग में भी नियम से यह देह देही जीव को।
सुख नहीं दे यह जीव ही बस स्वयं सुख-दुखरूप हो ।।६६।।
तिमिरहर हो दृष्टि जिसकी उसे दीपक क्या करें ।
जब जिय स्वयं समरूप हो इन्द्रिय विषय तब क्या करें ।।६७।।
जिसतरह आकाश में रवि उष्ण तेजल देव है।
बस उसतरह ही सिद्धगण सब ज्ञान सुखरु देव हैं ।।६८।
प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं।
तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरिहंत हैं।।३।। **
है नमन बारम्बार सुरनरनाथ पद से रहित जो।
अपुनर्भावी सिद्धगण गुण से अधिक भव रहित जो।४। **

** आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त

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