प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

ज्ञान अधिकार

केवली भगवान के सब द्रव्य गुण-पर्याय
प्रत्यक्ष हैं अवग्रहादिपूर्वक वे उन्हें नहीं जानते।२१।
सर्वात्मगुण से सहित हैं और जो अतीन्द्रिय हो गये।
परोक्ष कुछ भी है नहीं उन केवली भगवान के।।२२।।
यह आत्म ज्ञान प्रमाण है अर ज्ञान जे प्रमाण है।
हैं जय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ।।२३।।
अरे जिनकी मान्यता में आत्म ज्ञान प्रमाण ना।
तो ज्ञान से वह हीन अथवा अधिक होना चाहिए ।।२४।।
ज्ञान से हो हीन अचेतन ज्ञान जाने किस तरह।
ज्ञान से हो अधिक जिय किसतरह जाने ज्ञान बिन ।।२५।।
हैं सर्वगत जिन और सर्व पदार्थ जिनगत कहे ।
जिन ज्ञानमय बस इसलिए सब ज्ञेय जिनके विषय हैं ।।२६।।
रे आतमा के बिना जग में ज्ञान हो सकता नहीं ।
है ज्ञान आतम किन्तु आतम ज्ञान भी है अन्य भी ।।२७।।
रूप को ज्यों चक्षु जाने परस्पर अप्रविष्ठ रह ।
त्यों आत्म ज्ञान स्वभाव अन्य पदार्थ उसके ज्ञेय हैं ।।२८।।
प्रविष्ठ रह अप्रविष्ठ रह ज्यों चक्षु जाने रूप को।
त्यों अतीन्द्रिय आत्मा भी जानता सम्पूर्ण जग ।।२९।।
ज्यों दूध में है व्याप्त नीलम रत्न अपनी प्रभा से ।
त्यों ज्ञान भी है व्याप्त रे निश्शेष ज्ञेय पदार्थ में ।।३०।।
वे अर्थ ना हों ज्ञान में तो ज्ञान न हो सर्वगत ।
ज्ञान है यदि सर्वगत तो क्यों न हों वे ज्ञानगत ।।३१।।
केवली भगवान पर ना रहे जुड़े परिणाम ।
चहुँ ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते ।।३२॥
श्रुत ज्ञान से जो जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा।
श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के।।३३ ।
जानवर कथित पुद्गल वचन ही सूत्र उसकी ज्ञप्ति ही।
है ज्ञान को केवली जिनसूत्र की ज्ञप्ति कहें ।।३४।
जो जानता सब ज्ञान आत्म ज्ञान से ज्ञान नहीं ।
स्वयं परिणत ज्ञान में सब अर्थ थिति धारण करें ।।३५।।
जीव ही है ज्ञान ज़ेय त्रिधावर्णित द्रव्य हैं।
वे द्रव्य आत्मा और पर परिणाम से संबंद्ध हैं ।।३६।।
असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब ।
सदज्ञान में वर्तमान तू ही है सदा वर्तमान सब ।।३७।।
पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं।
असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ।।३८।।
पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो ।
फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो ॥३९॥
जो इन्द्रियगोचर अर्थ को ईहादिपूर्वक जानते ।
वे परोक्ष पदार्थ को जाने नहीं जिनवर कहें ।।४०।।
सप्रदेशी अप्रदेशी मूर्त और अमूर्त को।
अनुत्पन्न विनष्ट को जाने अतीन्द्रिय ज्ञान ही।४१।
जेयार्थमय जो परिणाम ना उसे क्षायिक ज्ञान हो।
कहें जिनवरदेव कि वह कर्म का ही अनुभवी ।।४२।।
जानवर कहें उसके नियम से उदयगत कर्माश हैं।
वह राग-द्वेष-विमोह बस नित वंध का अनुभव करे ।।४३।।
यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों।
हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरिहंत के ।।४४।।
पुण्यफल अरिहंत जिन की क्रिया औदयिकी कही।
मोहादि विरहित इसलिए वह क्षायिक मानी गई ।।४५।।
यदी स्वयं स्वभाव से शुभ-अशुभ रूप न परिणाम ।
तो सर्व जीवनिकाय के संसार भी न सिद्ध हो ।।४६।।
जो तात्कालिकअतात्कालिक विचित्र विषम पदार्थ को
चहुं ओर से इक साथ जाने वही क्षायिक ज्ञान है ।।४७।।
जाने नहीं युगपद् त्रिकालिक अर्थ जो त्रैलोक्य के ।
वह जान सकता है नहीं प्रत्यय सहित इक द्रव्य को ।।४८।।
इक द्रव्य को पर्यय सहित यदि नहीं जाने जीव तो।
फिर जान कैसे सकेगा इक साथ द्रव्यसमूह को ।।४९।।
पदार्थ का अवलम्ब ले जो ज्ञान क्रमश: जानता।
वह सर्वगत अर नित्य क्षायिक कभी हो सकता नहीं ।।५०।।
सर्वज्ञ जिन के ज्ञान का माहात्म्य तीनों काल के 1
जाने सदा सब अर्थ युगपद् विषम विविध प्रकार के ।।५१।।
सवार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो ।
बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो ।।५२।।
नमन करते जिन्हें नरपति सुर-असुरपति भक्तगण ।
मैं भी उन्हीं सर्वज्ञजिन के चरण में करता नमन ।।२।। **

**आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त

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