प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

शुद्धोपयोग अधिकार

शुद्धोपयोगी जीव के है अनूपम आत्मोत्थसुख ।
है नंत अतिशयवंत विषयातीत अर अविछिन्न है ।।१३।।
हो वीतरागी संयमी तपयुक्त अर सुत्रार्थ विद् ।
शुद्धोपयोगी श्रमण के समभाव भवसुख-दुक्ख में ।।१४।।
शुद्धोपयोगी जीव जग में घात घातीकर्मरज ।
स्वयं ही सर्वज्ञ हो सब ज्ञेय को हैं जानते ।।१५।।
त्रैलोक्य अधिपति पूज्य लब्धस्वभाव अर सर्वज्ञ जिन।
स्वयं ही हो गये तातैं स्वयम्भू सब जन कहें ।।१६।।
यद्यपि उत्पाद बिन व्यय व्यय बिना उत्पाद है।
तथापी उत्पादव्ययथिति का सहज समवाय है ।।१७।।
सभी द्रव्यों में सदा ही होंय रे उत्पाद-व्यय ।
ध्रुव भी रहे प्रत्येक वस्तु रे किसी पर्याय से ।।१८।।
असुरेन्द्र और सुरेन्द्र को जो इष्ट सर्व वरिष्ठ हैं।
उन सिद्ध के श्रद्धालुओं के सर्व कष्ट विनष्ट हों।१। **
अतीन्द्रिय हो गये जिनके ज्ञान सुख वे स्वयंभू ।
जिन क्षीणघातिकर्म तेज महान उत्तम वीर्य हैं ।।१९।।
अतीन्द्रिय हो गये हैं जिन स्वयंभू बस इसलिए ।
केवली के देहगत सुख-दु:ख नहीं परमार्थ से ।।२०।।

आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा 1

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