जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


1. आत्मार्थी निर्देश :arrow_up:

  1. आत्मार्थी जीव शरीराश्रित मेरे-तेरे या अच्छे-बुरे के विकल्पों में न उलझे । उदय प्रमाण यथालब्ध व्यवस्था को सहज भाव से स्वीकारते हुए आत्मोपलब्धि का लक्ष्य रखें।

  2. अधिक से अधिक समय ज्ञानाभ्यास में व्यस्त रहें।

  3. चारों अनुयोगों एवं अन्य धार्मिक साहित्य का प्रयोजन परक अर्थ विचारते हुए स्वाध्याय करें।

  4. तात्त्विक निर्णय स्पष्ट एवं निष्पक्ष करें।

  5. मिथ्यापक्ष या शिथिलाचार का पोषण न करें।

  6. अच्छे कार्यों की अनुमोदना एवं दोषों में मध्यस्थ रहें।

  7. धार्मिक एवं लौकिक व्यवहारों में अत्यन्त सावधान रहें। सतत भेद-विज्ञान रखें, जिससे अभिमानादि दुर्भाव न आ पायें।

  8. अपने रत्नत्रय की सुरक्षा एवं वृद्धि में निरन्तर प्रयत्नशील रहें।

  9. आत्म निरीक्षण एवं तत्त्वचिंतन के लिए नित्य ही अवश्य बैठे।

  10. आत्महित को गौण कदापि न करें।

  11. उत्तम विचारों का लेखन करें।

  12. अपने लेखन को संशोधित करते हुए प्रामाणिक प्रति स्वयं तैयार करें।

  13. दूसरों के सम्बन्ध में अधिक न सोचें।

  14. स्वावलम्बी रहें अर्थात् अपनी चर्या स्वयं करें। घर में रहें तो घरेलू और समाज में रहें तो सामाजिक व्यवस्थाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें।

  15. अपना जीवन सस्ता, स्वच्छ, सहज एवं स्पष्ट रखें। विशिष्ट व्यवस्थाओं-ए.सी., कूलर, स्पंज गद्दियाँ, मंहगे फल, मोबाइल, इन्टरनेट आदि पर लम्बी बातचीत, अनावश्यक घूमना आदि से बचें जिससे जैनत्व की अवहेलना न हो पाये।

  16. एक ही स्थान पर अधिक समय न रहें।

  17. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ध्यान रखते हुए, अपनी क्रियायें एवं प्रवृत्ति इसप्रकार रखें, जिनका निर्वाह सहजता से हो सके।

  18. किसी भी कार्य का निर्देशन सांगोपांग, विवेक पूर्वक, करुणासहित, प्रयोजन समझाते हुए स्पष्टता से दें।

  19. व्यवस्थाओं में न जुड़ने वालों से अपेक्षा न रखें और जुड़ने वालों को व्यर्थ परेशान या भयभीत न करें।

  20. मोह या मान वश (लोग क्या कहेंगे? यह सोचकर) अनावश्यक रूप से माता-पिता आदि रोगी को अस्पताल में भर्ती न करें । यथायोग्य शुद्ध चिकित्सा एवं सेवा करें और समाधि करें और करायें।

  21. रात्रि भोजन, रात्रि विवाह, विजातीय विवाह, मृत्यु भोज, जन्म दिन आदि के आयोजन स्वयं तो करें ही नहीं और उनमें शामिल भी नहीं हों।

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