(प्रवचन के अंग :- वक्ता, श्रोता, विषय)
श्रद्धान सम्बन्धी बिन्दु -
1. जिनधर्म का सम्यक् एवं दृढ़ श्रद्धान हो।
2. जिनधर्म ही समस्त आपत्तियों को दूर करने एवं सम्पत्तियों को देने में समर्थ है।
3. धर्म के सेवन से ही दोषों का निवारण एवं गुणों का विकास होता है।
4. वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप है। धर्म के दश लक्षण हैं। ‘अहिंसा परमो धर्मः।’
5. सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है।
6. ज्ञान धर्म का प्रकाशक है।
7. चारित्र साक्षात् धर्म है, जो विकारों, कर्मों एवं समस्त क्लेशों का दाहक है।
8. धर्म आत्मा के आश्रय से होता है।
9. व्यवहार से धर्म के आधार सच्चे देव-शास्त्र-गुरु हैं।
निर्देश सम्बन्धी बिन्दु -
10. धर्म की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम तत्त्वनिर्णय करना चाहिए । अर्थात् स्व-पर एवं हेय - उपादेय को सम्यक् प्रकार समझें।
11. तत्त्वश्रद्धान, भेदविज्ञान, आत्मानुभव पूर्वक आत्म-प्रतीति ही सम्यग्दर्शन है।
12. वस्तु की स्वतंत्रता की सम्यक् श्रद्धा के साथ ही परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध का भी यथार्थ ज्ञान होना चाहिए।
13. प्रलोभन या भय के वशीभूत होकर कुदेव, कुमंत्र, कुधर्म, कुगुरु आदि की ओर चित्त चलायमान न करें।
14. समस्त विघ्न बाधाओं ,रोगोपद्रवादि के प्रसंगो में भवितव्य एवं उदयादि का विचार करते हुए, चित्त की स्थिरता एवं विशुद्धता के लिए जिनभक्ति, जप, पूजन, विधान, दान, तप, तत्त्वविचार में ही प्रवर्ते । श्रद्धान, नियम, संयम में दृढ़ रहें। इसी से स्वयं का हित एवं धर्म की प्रभावना होती है। निश्चय का निश्चयरूप एवं व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान रहे। मात्र पक्ष ग्रहण कर उद्धत हो, उत्सूत्र कथन कर, विपरीत प्रवृत्ति को प्रोत्साहित न करें। निश्चय-व्यवहार रूप कथन के अभिप्राय एवं प्रयोजन को समझें।
15. स्थूल अन्याय, अनीति, कुशीलादि कुव्यसन, अयोग्य वचनादि के त्यागी हों । तीव्र क्रोध, मान, मायाचार या लोभादि के वशीभूत न हों। निंद्य वृत्ति न हो अर्थात् लोक में भी प्रामाणिक व्यापार एवं व्यवहार हो।
16. अपने या अन्य के परिणाम बिगड़ने का, धर्म की अप्रभावना होने का, जिनाज्ञा भंग होने का बहुत भय हो अर्थात् निरन्तर सावधान रहें।
17. चारों अनुयोगों के अभिप्राय एवं शैली को समझे, मात्र प्रासंगिक विषय को ही तैयार करके (पूर्वापर विचार किये बिना) लौकिक दृष्टांतों एवं तर्कों के बल से निरूपण न करें।
18. उपदेश में मात्र विविध भेद-प्रभेद, अनेक आगम प्रमाण, तर्क, दृष्टांतों द्वारा अपने ज्ञान का प्रदर्शन न करें। श्रोताओं के हित पर दृष्टि रखते हुए, उनकी योग्यता एवं भूमिका के अनुसार प्रयोजन परक निरूपण करें, जिससे उनकी तात्त्विक दृष्टि बने। अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप में संदेह रहित ज्ञान हो। लोकनिंद्य वृत्ति से भयभीतपना हो। मोक्षमार्ग में निमित्तभूत जिनभक्ति, दान, शील, संयम, तप एवं सम्यक्त्व के अंगों में उत्साहपूर्वक यथायोग्य प्रवृति हो।
19. अध्यात्म ज्ञान-वैराग्य से युक्त हित-मित प्रिय वचन बोलें। स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण हो।
20. अनावश्यक हास्य या बार-बार व्यक्तिगत संबोधन न करें। मनोज्ञ एवं सौम्यमुद्रा हो।
21. गुणीजनों के प्रति प्रमोदपूर्ण योग्य व्यवहार हो। करुणाशील, कोमल परिणामी हो।
22. विपरीत वृत्ति एवं पक्ष वालों के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखें।
23. दूसरों की निंदा एवं व्यक्तिगत आक्षेप न करें। दोष भी कोमल भाषा में वात्सल्य पूर्वक इसप्रकार से कहें, जिससे व्यक्ति को अपमान जैसा न लगे।
24. नानाप्रकार के प्रश्नों एवं परिस्थितियों में सहनशील रहें, उत्तेजित न हो जायें।
25. यश एवं विषय संबंधी सामग्री के लोभी न बने। अपनी प्रशंसा स्वयं कदापि न करें और दूसरों के द्वारा करने पर लघुता प्रकट करें।
26. उदय प्रमाण सामग्री एवं व्यवस्था में संतोषी हों, परन्तु प्रमादी, संकोची या शिथिलाचारी न हों।
27. स्वच्छता, व्यवस्था एवं अनुशासन प्रिय हों। समय एवं वचन का पालन दृढ़ता से करें, परन्तु इन कारणों से कषाय कदापि न करें।
28. स्वावलंबी हों एवं उदार हों।
29. धार्मिक एवं लौकिक मर्यादाओं का पालन करें। 30. सभा के बीच में प्रश्न किये जाने पर भी योग्य उत्तर इसप्रकार से दें, जिससे मूल विषय भी न छूटे, सभा में क्षोभ भी न हो और प्रश्नकार को भी समाधान मिल जाये।
31. यदि कोई मत्सर भाव पूर्वक सभा में क्षोभ के अभिप्राय से ही प्रश्नादि करे तो शान्त रहें और सभा को भी शान्त रखें, किसी प्रकार उत्तेजित न हों।
32. स्व-रचित भजन, लेख आदि कृतियों को पूर्ण संशोधन पूर्वक ही प्रस्तुत करें।
33. स्वयं भी विशिष्ट विद्वानों का समागम करते रहें तथा निरन्तर अध्ययनशील रहें।
34. अनावश्यक भ्रमण, बातचीत, मोबाइल आदि के प्रयोग, शयन एवं प्रमाद में समय नष्ट न करें।
35. स्वास्थ्य के अनुकूल भोजनादि व्यवस्थाओं का निर्देश पूर्व से ही व्यवस्थापक द्वारा करवा दें। फिर भी अव्यवस्थाओं को समता से सहें।
36. उपयोगी सामग्री भी अत्यन्त वात्सल्यपूर्ण आग्रह सहित देने पर आवश्यक होने पर ही लें।
37. अपने सम्मान, सेवा आदि से यथाशक्ति बचें।
38. चर्या द्वारा भी सादगी, संतोष, क्षमा, जितेन्द्रियता, मितव्ययता, त्यागादि का आदर्श छोड़ें। कहीं भी अतिरिक्त प्रदर्शन करने का प्रयास न करें।
39. न भयभीत रहें, न भयभीत करें।
40. विषय का सर्वांगीण निरूपण करें। नय विविक्षा, अनुयोग शैली एवं कथन के अभिप्राय को स्पष्ट करें।
41. मर्यादित, संक्षिप्त,आगमानुकूल दृष्टांतों, तर्कों एवं प्रमाणों द्वारा विषय को बोधगम्य बनायें। अनेक प्रश्न स्वयं ही उठाकर समाधान करें। सभा में नाना प्रकार के श्रोता हैं, सभी को कुछ न कुछ श्रेष्ठ विषय मिल जाये, इसप्रकार विषय को प्रस्तुत करें।
42. बीच-बीच में आवश्यक प्रेरणा एवं अन्य कथन भी करें, परन्तु विषयान्तर न होने दें।
43. किसी विषय में संदेह होने पर सरलता से कह दें। अपनी भूल या दूसरों की योग्य सलाह या आगमानुकूल कथन को सरलता से स्वीकार कर लें।
44. कहीं भी विपरीतता या शिथिलता का पोषण न करें।
45. वक्ता के गुणों को जानकर, सच्चे वक्ताओं से उपदेश सुनकर, अपना हित करें तथा जिनधर्म की प्रभावना एवं स्व-पर कल्याणार्थ स्वयं भी सच्चे वक्ता बनें।