परिणामों का फल
एकान्त और मौन
संतोष और विवेक
व्यर्थ हैं विकल्प
एक व्यक्ति को व्यर्थ वस्तु खोजने का विकल्प आ गया। उसने सोचा-“मिट्टी व्यर्थ है।”
मिट्टी बोली-“मेरे बिना तो जनजीवन की कल्पना ही नहीं हो सकती। रहने का स्थान-धरती है। खाद्य-सामग्री खेतों और बागों में पैदा होती है। धातुएं मिट्टी में से निकलती हैं आदि।”
उसने सोचा कि पत्थर बेकार है। पत्थर बोला-" भवनों, मन्दिरों का निर्माण पत्थरों से ही होता है। आप जिन मूर्तियों की पूजा करते हैं, वे पत्थर से ही निर्मित हैं।"
उसने विचारा कि कूड़ा, विष्टा आदि व्यर्थ है।
उत्तर मिला-" खाद आदि इन्हीं की बनती है।"
प्रकृति में एक से दूसरे पदार्थो का निमित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसी से विश्व की स्थिति है। संसार के कार्य चल रहे हैं। व्यवहार से हर पदार्थ का उपयोग है।
उसने एक साधु से पूछा, तब गम्भीर होते हुए साधु ने कहा-"परपदार्थो में अच्छे-बुरे की कल्पना ही मिथ्या है। व्यर्थ तो हमारे मोह और कषायें हैं, जिनसे न स्वयं को सुख, न दूसरों को सुख। मिथ्या अहंकारादि दुर्भाव स्वयं के लिए दुःख के कारण हैं और इनके वशीभूत होकर होने वाली प्रवृत्तियां, दूसरों के लिए दुःख का निमित्त होती हैं।"
देखा-देखी
ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव जीतने के बाद जैन साहब का विजय जुलूस निकल रहा था। परोपकारी लोकप्रिय होने के कारण महिलायें भी मंगल कलश लिए गीत गा रहीं थी। उधर से जैसे ही जैन साहब का निकलना हुआ कि एक विधवा स्री निकली। उसने देखा तो अपशकुन के भय से वह गली में छिप गयी। जैन साहब ने देख लिया। वे उसके विवेक पर बहुत प्रसन्न हुए। सबको सौ-सौ रुपये और उस स्त्री कोएक हजार रुपये उन्होंने दिलवा दिये।
परस्पर की वार्ता से, यह बात सभी स्त्रियों को जब मालूम पड़ी तो उन्होंने अभिप्राय तो समझा नहीं। ऐसे ही दूसरे प्रसंग पर बहुत स्त्रियाँ सफेद धोती पहन कर खड़ी हो गयी।
जैन साहब ने पूछा -“ऐसा क्यों किया ?”
तब एक स्त्री बोली -"आपको प्रसन्न करके अधिक रुपये पाने के लोभ से। "
तब वे बोले -“मैंने विधवा के विवेक पर खुश होकर उसके सहयोग की भावना से ऐसा किया था। आप लोगों को लोभवश ऐसा करना कदापि उचित नहीं था।”
कार्य करने से पहले भलीप्रकार विचार कर लेना ही हितकर है।
लोभी जौहरी
एक सड़क किनारे स्थित झोपड़ी में सीधा-सा मजदूर रघु, अपने परिवार सहित रहता था। एक दिन उसे जंगल में एक चमकदार पत्थर मिला, जिसे उसने चमक के कारण बच्चे के खेलने के लिए उठा लिया। वास्तव में वह पत्थर नहीं, कीमती हीरा था।
एक दिन दरवाजे पर बच्चा उस हीरे से खेल रहा था। उधर से एक लोभी जौहरी धनपाल निकला। उसने देखकर रघु को बुलाया और वह चमकदार पत्थर, पाँच सौ रुपये में माँगा। इससे वह समझ गया कि यह कोई कीमती रत्न है। उसने कहा पाँच हजार में दूँगा। जौहरी एक हजार, दो, तीन और चार हजार कह कर आगे बढ़ गया। उसने सोचा यहाँ कौन लेगा ? लौट कर आऊँगा,तब अपने आप दे देगा।
होनहार की बात, तभी ईमानदार जौहरी जिनपाल उधर से निकला। उस मजदूर ने उसे वह पत्थर दिखाया। तब उसने दस हजार देकर, उसे उसकी दुकान पर आने की कह कर, वह हीरा ले लिया।
जब उधर से लोभी जौहरी धनपाल वापस आकर पाँच हजार में ही माँगने लगा तब उसने समस्त हाल कहा।अब क्या हो सकता था ? लोभवश ठगने के भाव के कारण वह लाभ से वंचित रहा। जब मजदूर रघु जौहरी जिनपाल की दुकान पर गया तो उन्होंने परख कर, उस हीरे के पचास हजार रुपए ओर दिये।
"असंतुष्ट व्यक्ति प्राप्त अवसर एवं सामग्री का भी सदुपयोग नहीं कर पाता। उसकी वृत्ति पागल कुत्ते की भांति हो जाती है जिसे एक क्षण भी न चैन है और न स्थिरता।"
खाली मन
एक नवयुवक संतोष ने सत्समागम का निमित्त पाकर, ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। दूसरे लोगों को देख-देखकर वह जप,पाठ, पूजा,स्वाध्याय आदि करने लगा, परन्तु उसके मन में यही भाव चलते रहते कि एक सुन्दर और सुविधा युक्त भवन बन जाये। कुछ फण्ड और अन्य आमदनी हो जाये। उसके लिए कुछ धार्मिक आयोजन कर लें।प्रचारक एवं कर्मचारी, गाड़ी आदि साधन हो जायें। विश्व में ख़ूब ख्याति हो जाए; अतः उसके चित्त में शान्ति नहीं थी।
एक दिन वह बाजार से निकल रहा था। मार्ग में पूर्व के परिचित मित्र की दुकान मिली। मित्र ने बुलाया और वह भी स्नेहवश दुकान में भीतर जाकर बैठ गया।उसकी किराने की दुकान में अनेक छोटे-बड़े डिब्बे लगे थे। वहां खाली डिब्बे भी थे। उन्हें देखकर कौतूहलवश उसने पूछा- " इनमें क्या है?"
मित्र ने बताया- “आतमराम है।”
उसने तो ग्रामीण दुकानदारी की भाषा में कहा, परन्तु वह ब्रह्मचारी युवक विचारने लगा कि मित्र ठीक ही तो कह रहा है कि जो खाली होते हैं, उनमें आतमराम होता है। मेरा मन भी जब इन बाह्य विकल्पों से खाली होगा, तभी परमात्मा का ध्यान हो सकेगा।
सचेत होकर वह लग गया बाह्य विकल्पों को छोड़कर,समता की साधना और आत्मा की आराधना में, निस्पृह भाव से। अब उसकी परिणति बदल चुकी थी। संतोष,समता एवं शान्ति उसकी पावन मुद्रा से ही दिखती थी।
कष्टकारी छल
खेत में फसल पक रही थी। इस वर्ष मौसम के सहयोग से फसल भी अच्छी थी। किसान हरि, फसल की रक्षा के लिए वही सोता था।
एक रात्रि को चोरी करके चोर, उधर से निकल रहे थे। उसने अपनी बड़ी टॉर्च से गाड़ी की सायरन जैसी आवाज एवं रोशनी, दूसरी ओर फेंकी। चोर समझे कि कोई गाड़ी आ रही है, वे धन को खेत में फेंककर भाग गये।
हरि उतरा, उसने इकट्ठा कर मचान के निचे गाढ़ दिया।कुछ दिनों बाद वे ही चोर उधर से फिर निकले।उसने वैसा ही किया। चोर इधर उधर देखने लगे और तो कोई दिखा नहीं, किसान दिख गया। उन्होंने उसे पकड़ कर मारा और पिछला धन भी निकल ले गये।
हरि दुःखी होता हुआ विचारने लगा - "लोभवश किसी को धोखा देने का दुष्फल जीव को स्वयं ही भोगना पड़ता है मेहनत से प्राप्त, भाग्य प्रमाण सामग्री में ही संतोष करना हितकर है।"
अंत में हरि ने फिर कभी ऐसा न करने की प्रतिज्ञा कर ली और संतोषपूर्वक रहने लगा।
कटु वचन
हरेन्द्र अपने मित्र देवेन्द्र के यहां गया। वहां उसका उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ। नाना मिष्ठान एवं पकवान बनाये गये। भोजन के बाद सुन्दर बिस्तरों पर आराम कराया। मंहगी भेंट आदि दी गयी, परन्तु चलते समय वहीं खड़ी देवेन्द्र की पत्नी ने हंसी करते हुए कुछ अयोग्य वचन कह दिए-" तुम्हें घर पर ऐसे भोजन कहां मिलते होंगे?"
स्वाभिमानी हरेन्द्र को बहुत बुरा लगा और उसने वहां भविष्य में न आने का नियम ही ले लिया।
वास्तव में कटु वचन,स्नेह को भंग करने वाला महादोष है। कठोर एवं निंद वचनों द्वारा अगणित विसम्वाद एवं संघर्ष होते देखे जाते हैं।
सावधान! मौन रहो या योग्य हित-मित-प्रिय वचन बोलो।
नैतिक शिक्षा
एक काॅलेज के प्राचार्य नवीनचंदजी नैतिक विचारों वाले योग्य प्रशासक थे। उनके बंगले में आम, अमरूद, अनार के पेड़ थे और कुछ टमाटरादि सब्जी की क्यारियां थी। काॅलेज की भी बहुत-सी जमीन में खेती होती थी।
लड़के खेत में से भी कभी गन्ना, चना, मटर आदि चोरी से खा लेते थे। उनके द्वारा कई बार समझाने पर भी चार-छह लड़के नहीं माने। एक रात्रि लड़कों ने चोरी से बंगले के पेड़ से कुछ आम खाये, कुछ पता नहीं चला और चौकीदार भी सोता रहा।
परन्तु प्रात: प्राचार्यजी अनशन पर बैठ गये। एक दिन तो कोई कुछ न बोला। दूसरे दिन लड़के चौकीदार के समीप पहुंचे तो वह बोला-“अब क्यों आये हो? मैं तो तब ही जाग गया था, जब तुम लोग घुस थे और फल तोड़ना प्रारम्भ किया था, परन्तु साहब ने मुझे इशारे से मना कर दिया।”
लड़के घबराये । विचारा कि- साहब को सारी जानकारी है। चुपचाप ऑफिस में पहुंच कर पैर पकड़ कर रोते हुए क्षमा मांगने लगे।
साहब- " माता-पिता किस आशा से पढ़ते भेजते हैं। यदि नैतिकता ही नहीं सीख सके तो अन्य शिक्षा से क्या होगा ? भ्रष्टाचार बढ़ाओगे । अपना अहित तो करोगे ही, समाज और देश के भी पतन के कारण बनोगे।
विषय का ज्ञान तो उसी क्षेत्र में काम आता है, परन्तु नैतिकता (ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा, विनय, सेवा भावना) तो सर्वत्र काम आती है। इसी से तो व्यक्ति और देश की प्रतिष्ठा बढ़ती है। विषय के ज्ञान का भी सदुपयोग होता है।"
उसके पश्चात काॅलेज में कभी इस प्रकार के चोरी आदि के प्रसंग नहीं बने। प्राचार्यजी का समय-समय पर नैतिकतापूर्ण सम्बोधन, काॅलेज की पहिचान ही बन गया।
परोपकार
एक युवक योगेश, अपनी माँ के साथ रहते हुए गरीबी के दिन काट रहा था। पिताजी छोटेपन में ही परलोक सिधार गये थे। एक दिन माँ ने कहा -“दूर जंगल में स्थित मन्दिर में एक देव रहता है, उससे गरीबी दूर करने का उपाय पूछ कर आओ।”
योगेश चल दिया, परन्तु रात्रि होने से एक गाँव में एक घर में ठहर गया। वहाँ गृहस्वामी ने अतिथि समझ कर सुलाया और बातें करते हुए कहा -“मेरा भी एक प्रश्न देव से पूछ कर आना की मेरी युवा लड़की बोलती नहीं है, वह कब बोलेगी या नहीं बोलेगी ?”
आगे चलकर सांयकाल दूसरे गाँव में रुक गया। एक बाग के स्वामी ने अपना प्रश्न पूछ कर आने के लिए कहा कि उसके एक आम के पेड़ की वृद्धि क्यों नहीं होती ?
योगेश चलते हुए तीसरे दिन मन्दिर में पहुँच गया। वहाँ पूजा भक्ति करने के बाद बैठा ही था कि देव ने कहा -“मात्र दो प्रश्न पूछ सकते हो।” तब उसने पहले बाग के स्वामी का प्रश्न पूछा।
उसके उत्तर में देव ने कहा -“उसी पेड़ की जड़ों के समीप, धन के कलश है, उन्हें निकालो तब वृक्ष बढ़ेगा और फलेगा।”
दूसरा प्रश्न पूछने पर कहा -“वह लड़की उसके पति का मुख देखकर बोलने लगेगी।” योगेश अपना प्रश्न पूछे बिना ही चल दिया। बाग में आकर उसके कहने से वहाँ खोदने पर चार कलश निकले। तब प्रसन्न होकर बाग के स्वामी ने दो कलश उस युवक को दे दिए।
दूसरे गाँव आने पर वह उत्तर बता ही रहा था कि वह लड़की आकर बोलने लगी। तब गृह स्वामी ने उस युवा के साथ उसका विवाह कर दिया। सम्मान सहित योग्य सामान भी दिया और गाड़ी से उसे उसके घर पहुँचाया। माँ देखकर प्रसन्न हुई तथा उसने कहा -"यह तुम्हारी स्वार्थ-त्याग और परोपकार-वृत्ति का ही फल है; अतः जीवन में धैर्य और धर्म कभी नहीं छोड़ना।"
सिद्धान्त और प्रयोजन
एक महिला एक बार प्रवचन सुनकर आयी-“समस्त परिणमन स्वतंत्र होता है, कोई किसी का कर्त्ता नहीं है। बाह्य-सामग्री पुण्य के उदय से मिलती है।”
कथन की अपेक्षा और प्रयोजन को समझे बिना, वह घर पर लेटे हुए विचार करने लगी कि मैं उठकर काम क्यों करूँ ? थोड़ी देर बाद उसे भूख लगी। उसकी समझ में कुछ न आया। वह उन्हीं पण्डितजी के समीप पहुँची और बोली-
“मेरे घर का कुछ तो मेरे बिना किये हुआ नहीं। न चूल्हा जला और न भोजन बना।”
तब पण्डितजी ने कहा- “बेटी ! एक कार्य में अनेक कारण होते हैं। हमें योग्य पुरुषार्थ करना चाहिए। फिर कार्य हमारे विकल्प के अनुसार हो जाये, तब भी मिथ्या अहंकार नहीं करना चाहिए और न हो पाये तो भी आकुल होकर दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए।
हमें अपने कार्य के लिए भी दूसरों के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए, परन्तु भूमिकानुसार निमित्त-नैमेत्तिक सम्बन्ध को भी भलीप्रकार समझकर योग्य प्रवर्तन करना ही हितकर है।
’योग्यतानुसार कार्य होता है’ - ऐसा सांगोपांग बिना समझे, हमें प्रमादी या स्वच्छंद नहीं होना चाहिए और न अपनी इच्छानुसार परिणमन की आशा ही करनी चाहिए।
इच्छानुसार परिणमन तो हमारे पुण्योदय में सहज ही होता दिखाए देता है और प्रतिकूल परिणमन भी पाप के उदय में होता देखा ही जाता है ; इससे भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। विषय का सांगोपांग समझे बिना भ्रम नहीं मिटता और राग टूटे बिना विकल्प नहीं मिटते।”
उस स्त्री की समझ में कुछ-कुछ आया और उसने स्वाध्याय का नियम ही ले लिया और वस्तु के अनेकांतमयी स्वरूप को समझने लग गयी।
क्षमा और चमत्कार
सेठ लखपतराय ने व्यापार के लिए अपने घनिष्ठ मित्र सुखदेव के पुत्र धनदेव को पाँच लाख रुपये दे दिये; जिससे धीरे -धीरे उसका व्यापार भी जम गया और पूँजी भी हो गयी, परन्तु धनदेव की नीयत रुपया लौटाने की नहीं हुई।
एक बार माँगते समय काफी कहा - सुनी हो गयी, तब से परस्पर आना-जाना और बोलना भी बन्द हो गया ; जबकि धनदेव का घर सेठ लखपतराय की दुकान से घर के रास्ते में ही पड़ता था।
लगभग दस वर्ष हो गये। सेठजी के मन में धन की हानि की अपेक्षा सम्बन्ध बिगड़ने और अन्तरंग में बैर की गाँठ पड़ जाने का दुःख अधिक था।
एक बार दशलक्षण पर्व पर उनका मन किसी सिद्धक्षेत्र पर जाने का हो गया, जिससे बारह दिन व्यापार एवं घरेलू उलझनों से निवृत्ति मिले और मन को कुछ शान्ति मिले।
‘जहाँ चाह है वहाँ राह मिलती है’ के अनुसार नगर के दूसरे साधर्मीजनों के साथ वे श्री सोनगिरजी पहुँचे। वहाँ वंदना,पूजनादि के साथ प्रवचन सुनने का लाभ भी मिल गया। प्रवचन तो वे कभी-कभी अपने नगर में भी सुनते थे, परन्तु वहाँ निवृति न होने से न तो मन एकाग्र होता था और न प्रवचन का मनन करने के लिए समय मिल पाता। यहाँ वे बाधाएँ नहीं थीं; अतः अच्छे दिन बीते, परिणाम भी भीगे। अन्त में क्षमावाणी के अवसर पर प्रवचन सुनते-सुनते ही भीतर-भीतर रोते से रहे। पश्चात्ताप हुआ - मैंने व्यर्थ ही अनित्य धन के चक्कर में अपने परिणाम मलिन किये।
प्रवचन के बाद श्रीयुत पंडितजी से मिलने उनके आवास पर पहुँचे और बोले- " यद्धपि मुझे कषाय होने का दुःख तो हो रहा है, परन्तु अपनी भूल समझ में नहीं आ रही।"
पण्डितजी -
१. तुमने वस्तु के स्वतन्त्र परिणमन का विचार नहीं किया।
२. अपने कर्म के उदय का विचार नहीं किया।
३. कषायों से होने वाले दुःख और कर्मबन्ध का विचार नहीं किया।
४. धन और जीवन की असारता का विचार नहीं किया।
५. चेतन की अपेक्षा अचेतन धन को अधिक महत्त्व दिया
६. पुराणपुरषों की क्षमा, उदारता आदि का विचार नहीं किया।
सेठजी कुछ सोचने लगे।
पण्डितजी-“उस लड़के के प्रति समस्त दुर्भाव छोड़ो और मिष्ठान्न लेकर, उसके पास जाकर यही कहना कि बेटा! सारी गलती मेरी है, अब क्षमा करो।”
सेठ की समझ में आ गया। वे लौटकर सीधे धनदेव के घर पहुँचे। भोजन का समय था। धनदेव का लड़का द्वार खोलकर देखते हुए खुशी से बोलने लगा -“पापाजी पड़ोस वाले ताऊजी बाबा आए है।”
तब तक वे आँगन में पहुँच गए। मिष्ठान्न मेज पर रखकर बोले -“बेटा सारी गलती मेरी है, अब क्षमा करो।”
इतना कहकर धनदेव तिजोरी से पाँच लाख रुपये लेकर आया और सेठ को देने लगा; परन्तु सेठ ने इन्कार कर दिया और बोले - मैं तो क्षमावाणी मनाने आया हूँ, रुपए लेने नहीं।
धनदेव के अति आग्रह करने पर सेठ ने अपनी ओर से पाँच लाख रुपये मिलाकर एक परोपकार फण्ड बनाने की घोषणा कर दी।
धनदेव हर्ष विभोर होते हुए बोला -“पाँच लाख मेरे भी इसमें और मिला लें और एक स्थायी ट्रस्ट बनाकर उसमें अपने व्यापार से होने वाली आय का भी पाँच प्रतिशत निरन्तर देते रहेंगे, जिससे धार्मिक, नैतिक शिक्षा, असहाय-सहयोग, चिकित्सा सहयोग आदि कार्य होते रहेंगे।”
सेठजी ने प्रसन्न हो उसे गले से लगा लिया। सबने प्रसन्नता से भोजन किया। फिर तो वे धर्म कार्यों एवं लोकापकार के कार्यों में होड़पूर्वक वात्सल्य भाव से प्रवर्तन करने लगे। धनदेव को आज धन की सार्थकता समझ में आ गई थी। जिसने भी सुना और देखा, सहज भाव से धन्य-धन्य कह उठा।
क्रोध का फल
एक बीस वर्ष का लड़का, घर पर ही मशीन से अपना कपड़ा सिल रहा था। उसका धागा उलझ गया। उसे गुस्सा आया उसने मशीन में जोर से लात मारी, जिससे मशीन गिर कर टूट गयी। साथ ही सन्तुलन बिगड़ने से वह भी उसी पर गिर गया। उसकी आँख में चोट लग गयी।
माँ आवाज सुनकर आयी। तुरन्त उपचार किया, परन्तु आँख में घाव था; अतः डॉक्टर के यहाँ ले गये। उसने थोड़ा उपचार कर बड़े अस्पताल भेज दिया। वहाँ महीनों इलाज चला, तब कहीं आँख ठीक हो पायी। माँ के समझाने पर उस बालक ने फिर से क्रोध न करने की प्रतिज्ञा ही कर ली।
जरा-सा धैर्य खो देने से कितना कष्ट हो सकता है और कितने कर्म बँधते है। विचार कर सावधान हो।
हठी बालिका
एक दस वर्ष की लड़की, लाड़ में कुछ हठी हो गयी थी। घर सड़क के किनारे था। माँ के मना करने पर भी बार-बार सड़क पर निकल जाती। एक बार तेज वाहनों के बीच एक मोटर सायकल से टकरा गयी। पैर की हड्डी टूट गयी। थोड़ी चोट पसली में भी लग गयी।
यद्यपि उपचार से ठीक तो हो गयी,परन्तु दस-बारह दिन स्कूल न जा पाई। परीक्षा का समय समीप था। परीक्षा में पास तो हो गयी, परन्तु अंक कम आये। वह रोने लगी। उसकी अध्यापिका ने समझाया- “हमें सदैव बड़ो की बातों पर ध्यान देना चाहिए। इसमें अपना ही लाभ है।”
फिर तो उसने हठ न करने की प्रतिज्ञा ही ले ली।
संस्कारों का प्रभाव
एक लड़का सुबोध, कक्षा चार में पढ़ता था। वह रात्रिकालीन धार्मिक पाठशाला में भी अवश्य जाता था। बुद्धिमान तो था ही,शीघ्रता से किसी भी विषय को समझ लेता था।
एक बार सांयकाल घूमते हुए, घर से कुछ अधिक दूर निकल गया। उसे कुछ डाकू मिल गये, वे उसे घर में बन्द करके रखते। सुबोध के घर दस लाख रुपयों की माँग की गयी। घर के लोग चिंता में पड़ गये।
सुबोध वहाँ भी प्रातः शीघ्र उठकर, णमोकार मंत्र एवं मेरी भावना, बारह भावना, आत्मकीर्तन आदि अत्यन्त मधुर स्वर में पढ़ता एवं भगवान की भक्ति करता।अपने ही पूर्व कर्मोदय का विचार करते हुए, समता रखने का प्रयास करता। फिर भी कभी-कभी घर और पाठशाला की याद आ जाने से रोना आ ही जाता था।
वहाँ का खान-पान ठीक न होने से, दो दिन तो उसने कुछ खाया ही नहीं। उसे देखकर उस डाकू की बूढ़ी माँ को अत्यन्त दया आयी। अकेले में उन्होंने लड़के के समीप जाकर उसका परिचय पूछा और उसे धर्मात्मा जानकर, उसके अनुसार बर्तन माँजती, पानी छानती और बहुत स्वच्छ्ता से भोजन बनाती और उसे दिन में ही खिला देती उसकी पाप, पुण्य, धर्म की चर्चा सुनकर वे बड़ी प्रसन्न होतीं।
एक दिन उन्होंने अपने डाकू बेटे के बाहर से लौट कर आने पर सारी चर्चा सुनाई। तब उसने परीक्षा के लिए लड़के के सामने बन्दूक तान कर कहा- “तेरे पिताजी रुपया तो भेज नहीं रहे; अतः मैं तुझे गोली मारता हूँ।”
देह से भिन्न आत्मा को समझने के बल से उसने अपनी कमीज उठाकर, पेट खोलते हुए निडर होकर कहा -“मार दो, शरीर ही तो मरेगा; आत्मा तो अजर अमर है।”
यह सुनकर डाकू का ह्रदय बदल गया। वह विचारने लगा -“कहाँ तो यह छोटा लड़का और कहाँ मैं ?”
उसने मन ही मन संकल्प किया और लड़के के पैर छूकर चोरी, शराब, माँस,
जुआ, आदि का त्याग कर दिया। फिर उसके पिताजी और पाठशाला के अध्यापक को बुलाकर,
उसने क्षमा माँगते हुए लड़के को सौंप दिया।
उसने सुबोध के पिताजी के सहयोग से गाँव में एक दुकान प्रारम्भ कर दी तथा शिक्षण-शिविरों में जाकर धर्मलाभ लेने लगा। उसे ज्ञान-वैराग्य का ऐसा रस लगा की एक दिन उसने घर छोड़ दिया और सत्समागम में रहते हुए स्वयं ज्ञानार्जन किया और गाँव-गाँव में भ्रमण कर नैतिक शिक्षा एवं धार्मिक शिक्षा की पाठशालाएँ खुलवाई।
इसप्रकार एक संस्कारित बालक की दृढ़ता के निमित्त से अनेक लोगों का कल्याण हुआ।
सही पुरुषार्थ
एक युवक रघुवीर, मजदूरी करके अपने कुटुम्ब का पालन करता था। उसे कुसंगति के कारण बीड़ी पीने और गुटका खाने की आदत पड़ गयी। कुछ वर्षो तक तो उसे मालूम नहीं पड़ा। धीरे-धीरे उसका मुँह खुलना कम हो गया। डॉक्टर को दिखाने पर मालूम पड़ा कि कैंसर का प्रारम्भ हो गया है। यह जानकर वह अत्यन्त घबराया और चिन्तित हुआ।
सौभाग्य से वह जैन विद्यालय में मजदूरी करने गया। वहाँ नैतिक शिक्षा शिविर लगा था। उसमें विद्वान एवं कई चिकित्सक आये थे। उसने उनके व्याख्यान सुने। उसका मनोबल बढ़ा और उसने वहीं बीड़ी, गुटका आदि का त्याग कर दिया। चिकित्सक के परामर्श से सौम्य ओषधियों एवं भोजन सुधार से, उसने अपने शरीर का शोधन किया। पन्द्रह ही दिनों में उसे अत्यन्त लाभ प्रतीत हुआ। वह उत्साह से प्रातः शीघ्र उठता। भगवान का स्मरण एवं मेरी भावना आदि का पाठ करता। फिर मिट्टी-पानी की चिकित्सा,उबली सब्जियाँ, रोटी आदि लेता। प्रसन्नता से अपना कार्य करता। विद्यालय संचालक ने भी उसको स्थाई कर्मचारी के रुप में रख लिया था। वे उससे भारी काम नहीं कराते। उसे पुस्तकालय से अच्छी पुस्तकें भी पढ़ने को देते।
लगभग दो माह बाद उसने जाँच करायी तो उसे प्रसन्नता भी हुई और आश्चर्य भी। उसके कैंसर की संभावना समाप्त हो चुकी थी। लगभग छह माह में पूर्ण स्वस्थ हो गया।
अब वह और उसका परिवार, जैन विद्यालय को अपनी जन्मभूमि मानता। जहाँ भी हो सके अपनी सेवाएं देता। माँसहार, नशा और जुआ आदि का त्याग करने के अभियान चलाने वाली समिति की ओर से वह इसी पुनीत कार्य में समर्पित होकर लगा रहता। इनकी बुराइयों को बहुत अच्छी तरह समझाकर सामने वाले को इन दुर्व्यसनों का त्याग करने के लिए तैयार कर ही लेता।
टी.वी. के दुष्परिणाम
बैंक मैनेजर संदीप, माता-पिता से दूर सर्विस करता था। उसने पहले तो पत्नी के आग्रह से टी.वी. खरीद ली और कभी-कभी स्वयं भी देख लेता।
परन्तु कुछ दिनों के बाद उसे टी.वी. देखने का व्यसन हो गया। ऑफिस से आकर टी.वी. देखने बैठ जाता। भोजन भी वहीं टी.वी. देखते-देखते करता। कुछ अश्लील फिल्में भी देख लेता; अतः चित्त चंचल रहता। बच्चों पर भी ध्यान नहीं दे पाता। बच्चे भी टी.वी. देखने बैठ जाते। घर के कार्य भी समय पर नहीं हो पाते। रात्रि को देर से सोने के कारण कब्ज रहने लगा। आँखों पर भी दुष्प्रभाव हुआ, जलन पड़ने लगी। चश्मे का नम्बर भी बढ़ता जा रहा था। मस्तिष्क भारी-भारी रहता। स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया।
अब तो घर पर पत्नी और ऑफिस में कर्मचारी परेशान रहने लगे। वह स्वयं टेंशन में (तनाव-ग्रस्त) रहने लगा, सौभाग्य से उसका एक सहपाठी मित्र अरुण आया। उसका प्रसन्न चेहरा और अच्छा स्वास्थ्य उसे बहुत सुहावना लगा। बातचीत में स्थिरता, मधुरता उसे बहुत अच्छी लगी।
अरुण ने बताया वह दैनिक स्वाध्याय करता है। दूसरे दिन वह उसी नगर के जिनमंदिर में चलने वाली स्वाध्याय गोष्ठी में संदीप को ले गया। प्रवचनों से प्रभावित होकर उसने एक दिन टी.वी. देखने का त्याग ही कर दिया।
वह अच्छी पुस्तकों एवं शास्त्रों के अध्ययन में अपना समय लगाने लगा। अब वह जल्दी उठता। प्रातः की शुद्ध वायु और शुद्ध चिन्तन उसके लिए अमृत-तुल्य भासित हुई। शीघ्र स्नानादि करके प्रवचन में पहुँचता। वहाँ से आकर प्रसन्नता से सात्त्विक भोजन करता। ऑफिस के कार्य में मन लगने लगा। ईमानदारी से अच्छा कार्य करने से प्रतिष्ठा भी बढ़ी।
घर के कार्यों एवं बच्चों की पढ़ाई एवं संस्कारों पर ध्यान देने से परिवार का वातावरण भी सुधर गया।
फिर तो वह टी.वी. के दुष्परिणामों पर लेख लिखकर पत्रिकाओं एवं समाचार-पत्रों में भेजता। जहाँ भी भाषण का अवसर मिलता वह उसकी चर्चा अवश्य करता।
मोबाईल का दर्द
एक फैक्टरी मालिक राघवेन्द्र का जीवन अत्यन्त व्यस्त था। उसके मोबाईल फोन का स्विच कभी बन्द नहीं रह पाता। भोजन करते समय भी वह खाली नहीं रह पाता, दो चार फोन आ ही जाते। सोते समय भी तकिया के पास मोबाईल रहता। नींद से उठ कर फोन पर बातचीत करता रहता।
पत्नी ने कई बार समझाया, परन्तु वह न माना। अन्त में सिरदर्द रहने लगा। उसके ऊपर भी वह ध्यान न देता। दर्द निवारक गोलियाँ खा-खाकर काम करता रहता।
एक बार भयंकर दर्द हुआ। गोलियाँ भी काम नहीं कर रही थीं। जाँच कराने पर मालूम हुआ कि मष्तिष्क में ट्यूमर हो रहा है।
घबराया और सावधान हुआ। चिकित्सक की सलाह के अनुसार मोबाइल पर बातचीत करना बन्द किया।
भाग्य से उसे एक आध्यात्मिक आरोग्य सदन का पता लगा। वहाँ उसने जाकर छह माह चिकित्सा ली। एकान्त मिलने पर उसने आत्मा-परमात्मा, धर्म आदि पर विचार किया। धन की असारता को समझा। तब उसे बचपन में दी जाने वाली दादी माँ की शिक्षायें याद आने लगी।
१. 'न्याय से कमाओ, विवेक से खर्च करो व सन्तोष से रहो।'
२. आवश्यकता से अधिक कमाना भी भूख से अधिक खाने के समान हानिकारक है।
उसने ठीक होने के बाद व्यापार को सीमित किया, चर्या को सुधारा और व्यवस्थित किया। धर्म एवं परोपकार में भी ध्यान दिया। फिर तो उसे शान्ति भी मिली और यश भी।