अरहन्त प्रतिमा का अभिषेक जैन धर्म सम्मत नहीं । Arahant Pratima Ka Abhishek Jain Dharm Sammat Nahi

Author: पं. वंशीधर जी शास्त्री, एम. ए.

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जीव की स्थिति

जैनधर्मानुसार इस विश्व की रचना अनादिकाल से है, इसका न कोई स्रष्टा है, न कोई पालक है और न कोई संहारक है। ऐसा कोई सत्तास्वरूप ईश्वर भी नहीं है जिसके संकेत, इच्छा अथवा अनिच्छा पर विश्व का कार्यक्रम चलता हो । इसमें छहों द्रव्य-जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल की स्वतन्त्र सत्ता है। इनका परिणमन किसी अन्य के अधीन नहीं हैं। जीव अनादिकाल से, खान में रहने वाले मलयुक्त सोने की तरह, अज्ञान भाव से युक्त है जिसके कारण उसके राग-द्वेष होता रहता है। उससे कर्मों का आस्रव एवं बंध होता रहता है। वह जैसे कर्मों का आस्रव एवं बंध स्वयं अपने अज्ञान भाव से करता है वैसे ही वह अपने ज्ञान भाव से नए आने वाले कर्मों का रुकाव एवं बंधे हुए कर्मों की निर्जरा भी स्वयं कर सकता है एवं एक बार कर्मों की पूर्ण निर्जरा–क्षय हो जाने के बाद उसका संसार में आवागमन समाप्त हो जाता है अन्यथा वह संसार में भटकता ही रहता है। इस भटकने से छूटने का नाम ही मोक्ष है एवं जैनधर्मानुसार शाश्वत सुख-शांति पाने के लिए यही लक्ष्य है जिसे वह रागद्वषादि कषाय भाव एवं पाप भावों से मुक्त होकर पा सकता है। जैन धर्म में किसी की अनुकम्पा, या किसी का सान्निध्य, शरण पाने का लक्ष्य न होकर अपने आत्मस्वरूप की प्राप्ति का ही लक्ष्य है।

स्तवन वन्दन

जैन धर्म आत्म-श्रद्धा, ज्ञान व आचरण को प्रमुखता देता है जिसे साधु साधना द्वारा पूर्ण रूप से पा सकता है एवं श्रावक आंशिक रूप से पा सकता है। फिर भी प्रारम्भिक अवस्था में पंच परमेष्ठी की स्तुति वंदना करना मुनि एवं श्रावक का आवश्यक कर्म है । साधु एवं श्रावक प्रतिदिन इनका स्तवन वंदन करे ऐसा उपदेश मान्य ग्रन्थों में मिलता है। अरहंत परमेष्ठी सर्वत्र व सर्वदा सुलभ नहीं होते अतः उनकी तदाकार वीतराग मुद्रावाली प्रतिमा (मूर्ति) बनाई जाती है ताकि अरहंत की अविद्यमानता में उनकी वीतराग मुद्रा के माध्यम से उनकी उपासना की जा सके, मूर्ति केवल उनके गुणों के माध्यम से अपनी आत्मा के गुणों का स्मरण कराने के लिए है ताकि वह स्वयं भी उन जैसा बनने की प्रेरणा ले सके ।

प्रक्षाल

तीर्थंकरों की अरहन्त अवस्था की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। मूर्ति पर रजकण लगना स्वाभाविक है, अतः उसकी स्वच्छता के लिए प्रक्षाल करना श्रावक के स्तवन वंदन का ही प्रथम कार्य बना दिया गया। सूखे वस्त्र से मूर्ति पर आच्छादित रजकण झाड़कर थोड़ा पानी डालकर गीले वस्त्र एवं बाद में सूखे वस्त्र से पोंछना प्रक्षाल है । अब देखा यह जाता है कि प्रक्षाल, परम्परा के नाम पर इस प्रकार पूरी की जाती है कि कई मूर्तियों पर जल पूरा न पोंछा जाने के कारण काई तक जम जाती है। मंदिर में मूर्तियों की बहुलता के कारण भी प्रक्षाल ढंग से नहीं की जाती । अतः इस प्रकार की प्रक्षाल से मूर्तियाँ विशेषतः पाषाण व धातु की काली व बेरूप लगने लगती है । प्रतिमा का मैल हटाने के उद्देश्य की पूर्ति तो सूखे वस्त्र से प्रतिमा पर आई धूल को हटाने से भी हो सकती है । आदर्शनगर, जयपुर के जैन मन्दिर में केवल मूलनायक प्रतिमा की रोज प्रक्षाल की जाती है, अन्य प्रतिमाओं की प्रक्षाल न कर सूखे वस्त्र से धूल हटा देते हैं । ऐसे ही और भी कई दुर्गम स्थानों की तथा मानस्तम्भ स्थित मूर्तियों व विशाल मूर्तियों (जैसे बाहुबली) की प्रतिदिन प्रक्षाल नहीं होती ।

ईश्वर कर्तृत्ववाद का प्रभाव

जैसा कि पहले लिखा है, अरहंतों की प्रतिमाएँ उनके वीतराग स्वरूप का स्मरण दिलाकर केवल उन जैसा वीतराग बनने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए हैं और प्रक्षाल का उद्देश्य केवल यह है कि प्रतिमा पर आच्छादित रजकण या मैल हट जाय । ईश्वर कर्तृत्ववादियों की तरह प्रक्षाल से प्रतिमा की भक्ति प्रदर्शित करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । परन्तु मध्यकाल में भक्तिवाद के प्रवाह में परमात्मस्वरूप ईश्वर में विश्वास रखने वाले जैन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे । जैसा कि विद्यावारिधि डा० ज्योति प्रसाद जी जैन ने ‘जैन-संदेश’ के शोधांक (23-2-78) में लिखा है—‘इस प्रकार जैन मंदिरों में भी भक्ति उपासना के ढ़ोल और मंजीरे खटकने लगे । कीर्तन और कर्तल ध्वनि होने लगी और भक्ति साहित्य रचा जाने लगा…. अब जैन धर्म में पंचव्रतों का पालन उतना मुख्य नहीं रहा जितना कि मंदिर और चैत्य बनवाना, मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराना और फिर उन मूर्तियों के सामने पूजा कीर्तन करते हुए मस्त हो जाना मुख्य हो गया ।” मध्यकाल में जैन परम्परा में भी ईश्वर-कर्तृत्ववादियों की तरह प्रक्षाल को भक्ति प्रदर्शन एवं क्रियाकाण्ड का रूप दे दिया गया तथा इसे राज्याभिषेक के शृंगार की तरह जन्माभिषेक मानने से कलशाभिषेक, पंचामृताभिषेक, शान्तिधारा एवं प्रतिमा के चरणों पर केशर चन्दन लगाकर सचित्त पुष्पों से शृंगार करने रूप कई विकृतियाँ पैदा हो गई । वस्तुतः भक्ति की अभिव्यक्ति तो पूर्ण वीतरागता की प्राप्ति की भावना लिए हुए, रागद्वेष-कषायादि की कमी होते हुए भावों की निर्मलता के रूप में होनी चाहिए।

श्रावकाचारों की पृष्ठभूमि

वीतरागी जिनेन्द्र की उपासना का उद्देश्य उन्हीं की तरह वीतरागी बनने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए होने से श्रावक के आचरणों में भी प्रारम्भ में मिथ्यात्व, कषायादि एवं पाप कार्यों के त्याग की ही मुख्यता थी जिसकी पृष्ठभूमि में सम्यग्दर्शन था एवं स्वरूप में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत व सल्लेखना या 11 प्रतिमा का पालन मुख्य था जैसा कि कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, अमृतचन्द्र जैसे महान् आचार्यों की रचनाओं से ज्ञात होता है।

सोमदेव और आशाघर जैसे लौकिक विधिविधान के समर्थक रचनाकारों के प्रभाव से उत्तरकालीन रचनाओं में श्रावक के आचरणों में निवृत्ति को गौणता एवं प्रवृत्ति को मुख्यता दी जाने लगी । पांच अणुव्रतों का स्थान पांच उदम्बरफलों के त्याग को देने से श्रावक के त्यागरूप आचार का कोई महत्व नहीं रहा । इससे श्रावक के लिए कषाय त्याग, मिथ्यात्व त्याग एवं पापत्याग या रागद्वेष की कमी तथा समता धारणा की आवश्यकता नहीं रही । उसकी धामिकता परखने का मापदण्ड मन्दिर जाना, भक्ति पूजन करना या दान देना मात्र रह गया भले ही उसके जीवन में धार्मिकता, सत्यनिष्ठा, सात्विकता, समता, भेदविज्ञान आदि का अभाव हो एवं पापाचरण, कषाय, रागद्वेष आदि का सद्भाव हो । उस मध्यकालीन रचनाओं में अनावश्यक क्रियाकाण्डों, प्रदर्शनों का विस्तृत वर्णन किया जाने लगा । पहले के मान्य षट् आवश्यकों [सामायिक, स्तवन, वन्दन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग (त्याग)] के स्थान पर नए षट् आवश्यक कर्मों (देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान) का निर्माण किया गया । फिर उनमें भी दान और पूजा ही मुख्य रह गए (इसके लिए कुन्दकुन्द के नाम पर रयणसार जैसा ग्रन्थ रचा गया) तदनुरूप श्रावक के जीवन में व्रत एवं प्रतिमा रूप अ।चरण का अभाव एवं बाह्य क्रियाकाण्डों का प्रदर्शन मुख्य रह गया । तथाकथित धर्म गुरुओं ने भी इन बाह्य प्रदर्शनों को ही अपनी तथा श्रावकों की धार्मिकता नापने का मापदण्ड बना दिया।

प्रक्षाल का आत्मशुद्धि की दृष्टि से महत्त्व न होने के कारण इसे धार्मिक क्रिया का रूप नहीं दिया गया था इसीलिए प्राचीन श्रावकाचार शास्त्रों में प्रक्षाल का कहीं विधान नहीं मिलता । प्रक्षाल का उद्देश्य प्रतिमा का मात्र मैल, रजकण दूर करना है, इस तथ्य को अ० भा० दि० जैन परिषद् द्वारा जारी प्रश्नावली के उत्तर में मान्य विद्वानों ने भी निम्न प्रकार से स्वीकार किया है -

श्री पं. फूलचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री प्रतिमा शुद्धि के लिए जल का यथावसर प्रयोग पर्याप्त है । यह पूजा का आवश्यक अंग नहीं है ।

पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री – साक्षात् भगवान का प्रक्षाल नहीं होता; पर मूर्ति की वीतरागता स्पष्ट रहे, अतः स्वच्छता आवश्यक है।

पं. खुशालचन्द गौरावाला – प्रक्षाल का उद्देश्य प्रतिमा पर से मैल धोना है । गंदोधक को पीना व उसके नातने की लीरी आदि को बांधना आदि मिथ्यात्व है।

पं. रतनलाल कटारिया – मूर्ति की स्वच्छता, निर्मलता प्रक्षाल का उद्देश्य है । गंधोदक को पीने का उल्लेख देखने में नहीं आया । यह जैनेतरों की नकल है । प्रक्षाल के नातने की लीरी को बांधना अतिरेक है ।

डा. भागचन्द जैन, नागपुर – तीर्थंकर प्रतिमाओं की प्रक्षाल का शुद्धि और पवित्रता से सम्बन्ध है । उपासना के मूल उद्देश्य की पूर्ति का उससे कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है ।

यद्यपि अन्य किसी विद्वान ने प्रक्षाल के उद्देश्य – प्रतिमा पर प्रगत रजकण दूर करना है – की आलोचना की है क्योंकि उन्हें विरोध करना था, किन्तु उन्होंने प्रक्षाल का अन्य कोई उद्देश्य नहीं बतलाया ।

इस दृष्टि से यदि किसी प्रतिमा की दिन में एक बार प्रक्षाल की जा चुकी हों तो उसकी बार-बार प्रक्षाल करने की भी कोई उपयोगिता नहीं रहती ।

प्रक्षाल का उद्देश्य भक्ति-प्रदर्शन बन गया – प्रक्षाल करते समय प्रक्षाल में पूर्ण ध्यान रखना चाहिए, यदि चिंतवन करना हो तो अरहंतों के गुणों का चिंतवन करना चाहिए, वहाँ दिखावटी भक्ति-प्रदर्शित करने को पंच मंगल पाठ या जन्म कल्याण पाठ या केवल उसका निम्नछन्द या छन्द की भी तीसरी पंक्ति ही बार-बार पढ़े जाते हैं

वदन उदर अवगाह कलशगत जानियो ।
एक चार वसु जोजन मान प्रमानियो ॥
सहस अठोत्तरकलसा प्रभु के सिर ढुरई ।
करि सिंगार प्रमुख आचार सबै करई ॥

कुछ लोग “करि सिंगार’’ का अनुकरण करते हुए प्रतिमा पर केसर-चन्दन की टीकी लगाने एवं सचित पुष्पों से सजावट करने लगे ।

इनके स्थान पर हरजसराय कृत प्रक्षाल पाठ या अन्य स्तुति परक पाठ पढ़े जाने की परम्परा भी है ।

प्रक्षाल जल का दुरुपयोग

प्रक्षाल के जल को भी पवित्र मानकर ललाट, नेत्र व गले में लगाया जाता है । प्रक्षाल के जल एवं नातने में कष्ट दूर करने का गुण मानकर नातने की लीर को गले, भुजा आदि में बांधते हैं । कुछ त्यागी लोग प्रक्षाल जल को बीमारी मेटने के लिए पीने का भी उपदेश देते हैं और उनके प्रभाव से कुछ अविवेकी लोग पीने भी लगे हैं। यह विचारणीय है कि जब अरहंत भगवान किसी को कुछ लेते देते नहीं है तो यह अंधभक्ति नहीं है तो क्या है ? क्योंकि जैन धर्मानुसार तो अरहन्तों के गुणों में प्रशस्त अनुराग का होना ही उनकी भक्ति है जैसा कि कहा भी है - “गुणानुरागः भक्ति ।”

अभिषेक-श्रृंगार रूप विकृति का प्रवेश

उक्त प्रक्षाल जैसी साधारण क्रिया को अभिषेक भी कहा जाने लगा और उसे आडम्बर एवं क्रियाकाण्ड का रूप देते हुए जन्माभिषेक के रूप में राज्याभिषेक की तरह मान्यता दी जाने लगी । इस अभिषेक शब्द का इतना प्रचार किया गया कि प्रक्षाल शब्द के स्थान पर इसका प्रयोग होने लगा । दोनों के मूलभूत अन्तर की ओर साधारण पाठक ही नहीं विद्वानों का ध्यान भी नहीं जाता। यहाँ पर यह ध्यान रखने की बात है कि हम वीतराग अरहन्त की उपासना उन्हीं की तरह वीतराग बनने की प्रेरणा पाने के लिए करते हैं । उनकी प्रतिमा के निर्माण का केवल यही उद्देश्य है कि उसके दर्शन कर उनके वीतराग स्वरूप का लक्ष्य कर अपने आत्मस्वरूप का भान हो जावे (फिर भी प्रतिमा को साक्षात् अरहन्त भगवान नहीं मानते क्योंकि वे तो मुक्त हो गए हैं) । अतः हमारे हृदय में अरहंत भगवान के प्रति भक्ति, विनय, आदर का भाव उसकी अभिव्यक्ति मात्र रागद्वेषादि विकारी भावों की कमी के रूप में ही होगी । उदाहरण के लिए हमने अपने कमरे में अपने पिताश्री का चित्र लगा रखा है उसे देखकर हमारे हृदय में उनके प्रति आदर-विनय का भाव होगा और उनके जीवनकाल में हम पर किए गए उपकारों को स्मरण कर उनके आदर्शों एवं उपदेशों को जीवन में उतारने की भावना पैदा होगी; परन्तु उस चित्र को ही साक्षात् पिता मानकर पितृ-भक्ति के नाम पर पिता के योग्य चित्र की परिचर्या करने लगें तो हमें मूर्ख ही माना जावेगा । इसी प्रकार अरहन्त प्रतिमा को साक्षात् अरहन्त मानकर उसके अभिषेक, श्रृङ्गार आदि कराने में ही उनके प्रति अपनी भक्ति का प्रदर्शन और उसमें आत्मकल्याण समझते हैं तो वह हमारा अविवेक ही है और ऐसा करके हम उपहास के पात्र बन रहे हैं । इसी कारण वीतराग भाव की साधना का वास्तविक उद्देश्य उपेक्षित हो गया है ।

यदि अरहन्त प्रतिमा को ही साक्षात भगवान मान लिया जावे तो भी तप, केवलज्ञान एवं निर्वाण क्रिया सम्पन्न तीर्थङ्कर मूर्ति का और अन्य साधारण अरहन्तों यथा बाहुबली आदि की मूर्ति का प्रतिदिन जन्म कल्याण का अभिषेक करने का कोई औचित्य नहीं है । दीक्षा कल्याण के समय स्नान मात्र का त्याग हो जाता है यह तो जैन बालक भी जानता है । अतः दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण कल्याण से प्रतिष्ठित वीतराग जिन बिम्ब का अभिषेक-श्रृङ्गार आदि करना तो जैन सिद्धांत के विपरीत होने से सर्वथा अनुचित है । यदि वीतराग जिन प्रतिमा का प्रतिदिन जन्माभिषेक एवं केशर चन्दन एवं सचित्त पुष्पों से श्रृङ्गार करना आवश्यक समझें तो फिर प्रतिमा के भोग, युद्ध, राज्याभिषेक आदि भी प्रतिदिन क्यों न किए जावें ?

शांतिधारा की अनावश्यकता

कहीं कहीं अभिषेक की परम्परा में अन्य धर्मावलम्बियों का अनुकरण कर कुछ लोग शांतिधारा भी करने लगे जो भक्तों की ग्रहशांति, नाना कष्टों, विपत्तियों के निवारण एवं सुख, ज्ञान, बल, आयु, भोग आदि की प्राप्ति व वृद्धि के कामना सूचक मंत्रोच्चार पूर्वक जिनेन्द्र देव की मूर्ति पर जलधारा घण्टों तक डाली जाती है जिसकी सीमा दातार की शक्ति सामर्थ्य पर निर्भर करती है । जैनधर्मानुसार लौकिक कष्ट असाता कर्म के उदय जन्य है । उन्हें न तो जिनेन्द्र और न कोई अन्य देवी-देवता घटा-बढ़ा सकते हैं अतः वे इस प्रकार की जलधारा से (शांतिधारा से) कैसे दूर होंगे ? पाठक शांतिधारा में बोले जाने वाले पदों एवं वाक्यों पर विचार करें कि क्या वीतरागी अरहन्त भगवान कोई अस्त्र-शस्त्र लेकर बैठे हुए हैं जो कि शांतिधारा करने वाले के द्वारा ‘सर्व शत्रु छिन्द-छिन्द भिन्द-भिन्द, बोलने पर शत्रुओं को मार देंगे ? फिर भी यह विचारणीय है कि शत्रु भी यही पद वाक्य बोलकर शांतिधारा कर सकता है तब अरहन्त किसकी प्रार्थना सुनेंगे ? कोई भी शांतिधारा कराने वाला नहीं कह सकता कि कामनाएँ सदा ही पूरी हो जाती हैं। वे तभी पूरी होती हैं जब पुण्य कर्म का उदय होता है परन्तु उस समय तो शांतिधारा न कराने पर भी कामनाएँ पूरी होती हैं । यदि इस शांतिधारा के पाठ को गहराई से देखें तो ज्ञात होगा कि तत्त्व ज्ञान से अनभिज्ञ बन्धुओं ने ब्राह्मणी शांति पाठ एवं शांतिधारा को उनके देवी-देवताओं के नाम के बजाय अरहन्त के नाम जोड़कर जैन रूप देने का प्रयास किया किन्तु लौकिक कामना से की गई शांतिधारा या भक्ति मिथ्यात्व है । हम राग की पूर्ति के लिए तो वीतराग से प्रार्थना करें किन्तु कहें यह कि हम वीतराग भगवान की उपासना वीतरागी बनने के लिए करते हैं - यह एक विडम्बना ही है।

जैनत्व से असम्बद्धता

इससे प्रगट है कि प्रक्षाल की एक साधारण क्रिया को एक ऐसा आडम्बर एवं प्रदर्शन का रूप दे दिया गया जिसका जैनत्व से दूर का भी संबंध शायद ही सिद्ध किया जा सके । स्तवन वंदन मुख्य कार्य था एवं प्रक्षाल गौण तथा मूर्ति के अभाव में तो प्रक्षाल का प्रश्न ही नहीं । जन्माभिषेक के नाम पर प्रक्षाल को क्रिया-काण्ड का ऐसा रूप दे दिया गया कि मुख्य कार्य गौण एवं उपेक्षित बन गया एवं गौण कार्य ही मुख्य एवं महत्त्वशाली बन गया । अब तो कई अवसरों पर मात्र कलशों (अभिषेक) की ही प्रमुखता रहती है । या तो पूजा की ही नहीं जाती और अगर की भी जाती है तो उसका कोई महत्त्व नहीं, जब कि अभिषेक के लिए जल लाने के लिए भी गाजेबाजे से जलयात्रा की जाती है । यह तो वैसा ही हुआ जैसे कोई दुकान चलाने वाला सफाई करने में ही इतना तल्लीन हो जाय कि दुकान चलाना ही भूल जावे । आज हमारी भी दशा यही हो रही है । हम उन्हीं जैसे वीतराग बनने की प्रेरणा पाने के लिए वीतराग अरहन्तों के स्तवन-वन्दन के आवश्यक कर्त्तव्य को भुला कर अभिषेक के प्रदर्शन में ही अपने कर्त्तव्य की पूर्णता मान बैठे हैं। धार्मिक पूजा, प्रतिष्ठा आदि के अवसर पर तथा भादवा शु. 14 एवं क्षमावणी के दिन कलशाभिषेक आवश्यक रूप से किया जाता है । कहीं-कहीं रात्रि में देर तक किया जाता हैं । वैसे हम जैन रात्रि में हिंसा की संभावना से भोजनादि नहीं करते, किन्तु पर्व के दिनों में भी रात्रि में कलश, पूजन करने में हिचकिचाते नहीं हैं, जबकि रात्रि में ऐसे कार्य नहीं करने चाहिए ।

पंचामृताभिषेक

जैसा कि पहले कहा गया है तीर्थङ्कर प्रतिमाओं की प्रक्षाल की परम्परा केवल उनका मैल हटाने के लिए चालू की गई थी उसका आत्म शुद्धि के लिए कोई महत्व नहीं परन्तु इसे तीर्थङ्करों के प्रति अन्य धर्मावलम्बियों की सी भक्ति-प्रदर्शन का रूप दे दिया जाने से जलाभिषेक चालू हुआ और बाद में अन्य धर्मावलम्बियों के अनुकरण पर जल के साथ-साथ अन्य पदार्थ भी शामिल कर लिए गए । यद्यपि उन पदार्थों की संख्या पाँच से अधिक ही है फिर भी अन्य धर्मवालों की नकल पर पंचामृत ही कहलाता है ।

पंचामृत में निम्न वस्तुओं को शामिल किया जाता है - जल, दाख, खजूर, आंवला, केला, नारियल का रस, आम का रस, इक्षुका रस, घी, दूध, दही, कषायोदक, गंधोदक, शुष्क चूर्ण, हल्दी आदि । दक्षिण में तो इन पदार्थों की कोई सीमा नहीं है । वहाँ रजत स्वर्ण मुद्रायें, सिंदूर, पुष्प, सुपारी, चाँवल, लोंग, दाल आदि अन्य खाद्य-अखाद्य पदार्थों से भी कलशाभिषेक का क्रिया-काण्ड कराया जाता है। अभी श्रवणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक में ऐसा ही हुआ था । दक्षिण के अभिषेक पाठों में इन सभी खाद्य-अखाद्य पदार्थों को ‘अमृत’ में शामिल कर लिया गया है।

शास्त्राधार से या बुद्धि गम्य तर्क से इन सब खाद्य-अखाद्य पदार्थों से जिनबिम्ब के अभिषेक का कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता । इनसे आरम्भ व हिंसा होने की अधिक संभावना रहती है जिसे करने की धार्मिक दृष्टि से कोई आवश्यकता नहीं है । हम धार्मिक कृत्यों में भी विवेक एवं शास्त्राधार को न मानकर ऐसी परम्पराओं को धर्म मान बैठते हैं जो शास्त्र सम्मत न होते हुए भी काल विशेष व स्थान विशेष में लाचारीवश या अज्ञानता के कारण अपनाई गई हों । यही कारण है कि आज का युवक इस प्रकार के कृत्यों से विमुख होता जा रहा है । कतिपय भट्टारकों एवं उनके आश्रित पाण्डे लोगों द्वारा रचित क्रियाकाण्डी ग्रन्थों में ही प्रक्षाल के स्थान पर इन खाद्य-अखाद्य पदार्थों से जिन बिम्ब के अभिषेक का वर्णन मिलता है ।

अभिषेक में काम में ली हुई इतनी खाद्य सामग्री का यह दुरुपयोग ही है । आज जब लाखों लोग अन्न के लिए भूखों मर रहे हैं, तब खाद्य पदार्थों को धर्म के नाम पर बरबाद करना सर्वथा अधार्मिक है एवं राष्ट्रहित विरुद्ध है। मैं समझता हूँ कि पंचामृताभिषेक समर्थक साधु, त्यागी या श्रावक भी उक्त वस्तुओं के पंचामृत से अपना अभिषेक करने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे । ऐसी स्थिति में अरहंत भगवान के प्रतिबिम्ब के लिए ही पंचामृत से अभिषेक करने का आग्रह क्यों ? इन वस्तुओं से तो मूर्ति स्वच्छ होना दूर रहा उल्टे गन्दी और हो जाती है और उस गन्दगी को दूर करने के लिए फिर जलाभिषेक की आवश्यकता होती है और कहीं-कहीं रस कण रह जाने पर तो लाखों चींटियाँ बिम्ब के आसपास आ जाती हैं और अन्त में मरती हैं । इन सबकी जिम्मेवारी किस पर है, थोड़ी गंभीरता से सोचें ।

श्रावकाचार-ग्रंथों में अभिषेक का स्थान

निम्न सर्वमान्य श्रावकाचार ग्रंथों में अभिषेक या पंचामृताभिषेक का वर्णन ही नहीं मिलता, इनमें केवल देव-भक्ति, वंदना या पूजा का वर्णन यथा प्रसंग अवश्य किया गया है -

S.No. रचनाकार ग्रन्थ का नाम रचनाकाल
1. आचार्य कुन्दकुन्द चारित्र पाहुड़ वि. प्रथम सदी
2. आ. उमास्वामी तत्त्वार्थ सूत्र वि. प्रथम सदी
3. आ. समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार वि. दूसरी सदी
4. आ. कार्तिकेयस्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा वि. दूसरी सदी
5. आ. अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्ध्युपाय वि. 10 वीं सदी
6. आ. अमितगति अमितगति श्रावकाचार वि. 11 वीं सदी
7. आ. पद्मनन्दी उपासक संस्कार वि. 12 विन सदी
8. आ. गुणभूषण श्रावकाचार वि. 12 वीं सदी के बाद
9. श्री पद्मनन्दी श्रावकाचार सारोद्धार वि. 14 वीं सदी
10. पं. गोविन्द पुरुषार्थानुशाशन वि. 16 वीं सदी
11. पं. राजमल लाटी संहिता वि. 17 वीं सदी
12. अज्ञात व्रतसार श्रावकाचार अज्ञात

अभिषेक का सबसे पहला वर्णन आचार्य जिनसेन के महापुराण (वि. सं. 760) एवं पंचामृताभिषेक का सबसे पहला वर्णन, रविषेण के पद्मचरित (वि सं. 734) में मिलता है । रविषेण ने भी श्रावकाचार के वर्णन में तो पंचामृताभिषेक का कथन नहीं किया । वह उल्लेख केवल कथा प्रसंग में है । इससे यह सिद्ध होता है कि विक्रम की 8 वीं सदी पूर्व तक अर्थात् भ. महावीर के 1200 वर्ष बाद तक तो दिगम्बर परम्परा में अभिषेक या पंचामृताभिषेक का नाम ही नहीं था । पुराणों के कथा प्रसंगों में उक्त उल्लेख हो जाने के बाद भी इनको मान्यता नहीं दी गई, क्योंकि पौराणिक कथाओं में तो विषय भोग, पाँच पापों, मिथ्यात्व, कषायादि का भी वर्णन होता है किन्तु वे कभी विधेय नहीं होते । श्रावकों के आचारों को नियमन करने के लिए श्रावकाचार ग्रन्थ हैं । अतः वे ही इन विषयों में प्रमाणभूत समझे जाते रहे हैं एवं समझे जाते हैं। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र, अमितगति, पद्मनन्दी, गुणभूषण आदि आचार्यों के श्रावकाचारों में अभिषेक या पंचामृताभिषेक का उल्लेख तक नहीं किया गया । 11वीं सदी में हुए सोमदेव ही प्रथम रचनाकार हैं जिन्होंने यशस्तिलक नामक चम्पू काव्य में श्रावक धर्म के अन्तर्गत पंचामृताभिषेक या अनेकामृत का विधिवत् वर्णन किया है ।

45 वर्ष पूर्व पं. पन्नालाल जी सोनी ने अभिषेक पाठ संग्रह सम्पादित कर प्रकाशित कराया था । इस संग्रह में पूज्यपाद एवं गुणभद्र जैसे प्रसिद्ध एवं मान्य आचार्यों के नाम पर भी अभिषेक पाठ दिए गए हैं । सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. मिलापचन्दजी कटारिया ने अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि ये अभिषेक पाठ प्रसिद्ध आचार्य पूज्यपाद एवं गुणभद्र रचित नहीं हैं । मध्यकाल में भट्टारकों ने साधारण लोगों पर प्रभाव डालने के लिए प्राचीन मान्य एवं प्रसिद्ध आचार्यों के नाम से भी कई रचनाएँ बनाई (संभव है उन्हीं नाम के भट्टारक भी हुए हों) जिनमें शास्त्र विरुद्ध मान्यताओं एवं क्रियाकाण्डों का पोषण किया जाता था । कुन्दकुन्दाचार्य के नाम पर कुन्दकुन्द श्रावकाचार और रयणसार, उमास्वामी के नाम पर उमास्वामी श्रावकाचार, देवसेन के नाम पर भाव संग्रह, जैसे ग्रन्थ लिखे गए जिनकी अंतर्बाह्य परीक्षा कर पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, पं. मिलापचन्दजी कटारिया आदि ने सिद्ध कर दिया है कि ये ग्रन्थ प्राचीन मान्य आचार्यों की रचना नहीं हैं अतः ये मान्य नहीं है । इस संग्रह में सोमदेव, आशाधर तथा उनके बाद के भट्टारकों के रचित अभिषेक पाठ ही हैं ।

इसमें अकलंक एवं नेमीचन्द नामक लेखकों के अभिषेक पाठ भी हैं। ये भी प्राचीन प्रसिद्ध आचार्य नहीं हैं अपितु ये दोनों 16 वीं 18 वीं शताब्दि के लेखकों की रचनाएँ हैं जो उक्त प्रसिद्ध आचार्यों के नाम-राशि उत्तर काल में हुए होंगे या यह भी संभव है कि अन्य किसी ने उनके नाम से इनको लिखा हो । ये अभिषेक पाठ पंचकल्याणक पाठों के अंश हैं जिन्हें बाद में नित्य प्रक्षाल के लिए भी अपना लिया गया ।

जिन बिम्ब के अभिषेक का अनौचित्य - जिन बिम्ब के अभिषेक व पंचामृताभिषेक की इन विकृतियों का औचित्य एवं महत्त्व सिद्ध करने के लिए इसे तीर्थंकर के जन्म कल्याण के अभिषेक का प्रतीक बताया गया । तीर्थंकर जन्म के समय इन्द्र उन्हें सुमेरु पर्वत पर लेजा कर क्षीर सागर के जल से अभिषेक करता है अतः तदनुरूप अभिषेक करने वाले को इन्द्र का अभिनय करने हेतु अधिकाधिक बोली लगाने की परम्परा डाली गई तथा क्षीर सागर के जल के विकल्प के रूप में उपरोक्त प्रकार के पंचामृत से या जल से अभिषेक कराने लगे तथा उस समय दसों दिशाओं के दिग्पालों को आमंत्रित करने का अभिनय भी किया जाता है । इन तथ्यों पर निम्न विचार उठते हैं -

  1. क्षीरसागर के साथ जब जल शब्द जुड़ा हुआ है तो उसको दूध कैसे माना जाय ? किसी का नाम महावीर कुमार हो उससे उसे भगवान महावीर नहीं मान लेंगे इसी प्रकार क्षीर सागर नामक समुद्र के जल को दूध नहीं माना जा सकता । यदि उसे दूध मानें तो वह दूध किसका है ? इस प्रश्न का उत्तर नहीं है । वस्तुतः वह जल है । अतः क्षीर सागर के जल से अभिषेक का अभिनय कराने के लिए नारियल, आम, इक्षु आदि फलों का रस, घी, दूध, दही, चन्दन, हल्दी, सिंदूर आदि खाद्य-अखाद्य पदार्थों से निर्मित पंचामृत का उपयोग करने वाले की अन्धभक्ति एवं अविवेकीपन पर दुख ही प्रकट किया जा सकता है।
  2. तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है—मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये । इस प्रकार जैन उपासना पद्धति में अरहन्त भगवान की उपासना, भक्ति, पूजा उनके जैसे अपने में गुणों की प्राप्ति के लिए ही की जाती है । अस्तु, भगवान की प्रतिमा के प्रक्षाल काल में वीतराग गुणों का चितवन न होकर इन्द्र बनने, दिग्पाल बुलाने, उन्हें अर्घ चढ़ाने का अभिनय किया जाता है उसका कोई औचित्य नहीं है । कैवल्य एवं निर्वाण कल्याण प्रतिष्ठत प्रतिमा का जन्म कल्याणक मनाना भी सर्वथा गलत है ।
  3. श्रावक के षट् कर्त्तव्यों में स्तवन, वंदन, पूजन दैनिक करणीय कर्त्तव्य हैं। उसके लिए पूजन प्रक्षाल करने हेतु अव्रती इन्द्र बनना क्यों आवश्यक है ? पूजा के समय सादगी चाहिए या इन्द्र के आभूषणों का प्रदर्शन ? हम अपरिग्रहवाद की दुहाई देते हैं किन्तु हमारे धार्मिक कृत्य भी इन्द्र बनवा कर, कलश कराकर या माला पहना कर पैसे का प्रदर्शन करने के साधन मात्र रह गए हैं । बाहुबली में महामस्तकाभिषेक में कलशों की बिक्री से 34-35 लाख रुपये इकट्ठे हुए किन्तु आयोजकों को इस राशि से सतोष नहीं हुआ । अतः सारे देश में जन मंगल कलश के नाम पर ताम्र कलश घुमाया गया और लाखों रुपया एकत्र किया गया, बाद में भी कलश करने वालों से रुपये लेते रहे । इन सब की कोई सीमा ही नहीं है। ऐसे अवसरों पर कलश करने वालों में प्रतिद्वंद्विता कराकर अधिकाधिक न्योछावर लेना ही एक लक्ष्य रह गया है । अब प्रायः अन्य मेलों आदि में कलशों को न्योछावर या डाक के नाम पर हजारों रुपए लिए जाते हैं मानों निर्धनों को प्रक्षाल का अधिकार नहीं है । अन्यत्र विशिष्ट अवसरों पर कलशों के बाद माला की डाकें लगाई जाती हैं। यह भी मन्दिर की आय का साधन एवं धनिकों की मान कषाय के प्रदर्शन का साधन है । धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा, ज्ञान, आचरण को प्रधानता एवं मान्यता दी जानी चाहिए किन्तु आज वहाँ भी पद एवं पैसे को ही प्रमुखता दी जाती है । यही कारण है कि आज यह भावना जोर पकड़ती जा रही है कि पैसा एकत्र करो चाहे अन्याय, अवैध व अधार्मिक मार्ग ही क्यों न अपनाना पड़े, क्योंकि पैसे का दान देकर वह धर्म शिरोमणि बन सकता है और समाज में प्रतिष्ठा पा सकता है जबकि उसमें कई बार धार्मिकता का अभाव भी होता है ।

अतः सही दृष्टि से देखा जाय तो प्रक्षाल, पूजन आदि करने वाले के लिए इन्द्र बनना, आभूषण पहनना, यज्ञोपवीत पहनना किसी प्रकार उचित नहीं है और प्रक्षाल, पूजन के लिए बोलियाँ लगाना भी उचित नहीं है।

दस दिग्पाल

पं. आशाधार, अय्यपार्य, नेमिचन्द्र आदि ने अपने अभिषेक पाठों में दस दिग्पालों को आमंत्रण के लिए अलग-अलग अलोक एवं मंत्र बनाए हैं । पं. आशाधर ने इन्हें दर्भ (कुश) देने के श्लोक भी रचे हैं । यहां यह विचार करना है कि जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा की प्रक्षाल के समय इन तथाकथित दस दिग्पालों को आमंत्रित करने, अर्घ देने, दाभ देने, नागादि को तर्पण देने की क्या आवश्यकता है । वस्तुतः जैन धर्मानुसार दसों दिशाओं का ही क्या तीन लोक रूप विश्व का ही कोई कर्ता या रक्षक या पालक नहीं है । अतः किसी को दसों दिशाओं का पालक बताकर उसे अर्घ, दाभ देने का प्रश्न ही नहीं उठता । अन्य मतों में पूर्वादि दस दिशाओं के इन्द्र आदि दस लोकपाल माने जाते हैं, अतः उन्हीं के अनुकरण पर ये नाम रखे गए हैं जिनमें ब्रह्मा एवं नाग के स्थान पर धरणेन्द्र व सोम रखे गए हैं । पंडित आशाघर कृत अभिषेक पाठ में दस दिग्पालों का विचित्र स्वरूप भी वर्णित किया गया है, उसका जैन करणानुयोग के वर्णन से कोई मेल नहीं बैठता है । उदाहरणार्थ ईशान देव के वर्णन का भाव इस प्रकार है:

“गले में बंधे घुघरुओं के रुणझुण शब्दों से वाचालित और नुपूरों के अव्यक्त शब्दों से रमणीय ऐसे ऊँचे सींगोंवाले मोटे सफेद बैल पर जो बैठा है, जिसके सर्पों के आभूषण चमक रहे हैं, जिसकी जटा में अर्द्धचन्द्र और चोटी में सर्प लिपटे हुए हैं एवं जो त्रिशूल और कपाल को धारण किए हुए हैं, जिसके नन्दी आदि गण साथ में हैं ऐसे पूर्वोत्तर दिशा के ईश ईशान को पूजता हूँ ।”

पाठक देखेंगे कि इस स्वरूप का अन्य मतों में मान्य शिवजी के वर्णन से मेल बैठता है । श्री मिलापचन्दजी कटारिया, केकड़ी ने जैन-सन्देश में सन् 1958 में इन दस दिग्पालों को अन्य मतों का अनुकरण बताते हुए सिद्ध किया था कि ये जैन धर्म के करणानुयोग सम्मत नहीं है किन्तु आज तक किसी भी विद्वान् ने इन दिग्पालों की स्थिति करणानुयोग से सिद्ध नहीं की है । जब दिग्पालों की स्थिति ही जैनागम से सिद्ध नहीं होती तब उन्हें अर्घ देने, दाभ देने, उनका स्नपन करने एवं उन्हें बाहन अनुचरों सहित बुलाने आदि का कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता और वह भी सौधर्म जैसे इन्द्र का अभिनय करने वाले द्वारा । वह स्वयं इन्द्र ही इन्द्र नामक दिग्पाल को कैसे आमन्त्रण देगा, अर्घ देगा ?

विकृति यहाँ तक बढ़ गई है कि किसी-किसी अभिषेक पाठ में तो भस्म, गोबर आदि के पिण्ड बनाकर चढ़ाने के श्लोक व मन्त्र भी बना दिए गए हैं । इसी प्रकार आरती करने के श्लोक भी बनाए गए हैं, मूर्ति स्थापित करने, कलश रखने, श्री लिखने, 60 हजार सर्पों को अमृतांजलि से सिंचन करने, अग्नि जलाने आदि अनेक कार्यों के श्लोक रचे गए हैं । इन सब क्रियाओं की निरर्थकता एवं शास्त्र विरुद्धता सर्वज्ञात है अतः और क्या लिखा जावे ?

धार्मिक क्रांति

उपरोक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि स्वच्छता हेतु मूर्ति का प्रक्षाल करना तो उचित है किंतु परिस्थिति वश या अज्ञानता वश आगत अभ्य क्रियाएँ-इन्द्र बनना, दिग्पाल-क्षेत्रपाल पूजन, दर्भन्यास, गोबर-भस्म के पिण्ड, नाग-दर्पण, यज्ञोपवीत पहनना, अभिषेक करना, पंचामृताभिषेक करना, कलश के न्योछावर लेना, माला पहनना एवं उसकी डाक लगाना, प्रक्षाल जल-गंधोदक पीना, प्रतिमा पर केशर-चन्दन लगाना, पुष्प चढ़ाना आदि विधेय नहीं हैं । यही कारण है कि आज से 400 वर्ष पूर्व समाज में आगरा के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. बनारसीदासजी के नेतृत्व में क्रांति का सूत्रपात हुआ जिसका विकास जयपुर की विद्वत् मण्डली - पं. टोडरमल जी, पं. जयचन्द जी आदि ने किया । उन्होंने इस समस्त क्रियाकाण्ड का ही विरोध नहीं किया अपितु इनके संचालक-भट्टारकों का भी विरोध किया । जयपुर के कई मन्दिरों में कलशाभिषेक बन्द कर केवल प्रक्षाल की जाने लगी । तेरापंथी मन्दिरों में माला पहनने व उसके लिए डाक लगाने की प्रथा भी नहीं है । जयपुर के कुछ प्रमुख मन्दिरों में भाद्रपद शुक्ला 14 व क्षमावणी के दिन कलश भी मूर्ति पर नहीं किए जाते । एकबार परिपाटी पड़ जाने के कारण कलश समारोह का पूर्ण बहिष्कार तो नहीं किया जा सका किन्तु जल किसी पात्र में डाला जाता है । वस्तुतः इसका भी कोई औचित्य नहीं है । अतः ऐसे अवसरों पर मात्र शास्त्र प्रवचन आदि का कार्यक्रम बनाना चाहिए ।

इस शताब्दी में भी पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, पं. नाथूरामजी प्रेमी, पं. परमेष्ठीदासजी जैसे विद्वानों ने भट्टारकों द्वारा प्राचीन प्राचार्यों के नाम पर रचे जाली ग्रन्थों की विशद परीक्षा की, इस सबका परिणाम यह हुआ कि उत्तर भारत में भट्टारक प्रथा समाप्त हो गई किन्तु कुछ भाई पुराने संस्कार वश इस क्रियाकाण्ड को नहीं छोड़ पाते । 17वीं, 18वीं सदी में हुई उक्त क्रांति का दक्षिण भारतवासी जैन वर्ग पर क्षेत्रीय दूरी एवं भाषा विभिन्नता के कारण अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा । अतः वहाँ अब भी वे इस क्रियाकाण्ड को करने में ही धर्म समझ रहे हैं । इधर इस शताब्दी में कुछ साधु त्यागी वर्ग ने पंचामृताभिषेक व अन्य क्रियाकाण्डों को महत्व दिया है और इसका पुनः प्रचार किया जा रहा है । अतः आवश्यकता है कि धार्मिक क्रांति की भावना उत्तर एवं दक्षिण में सर्वत्र फैलाई जावे क्योंकि अब भाषा और दूरी का अन्तर पहले की तरह नहीं रहा । इस भावना से ही हम आज के वैज्ञानिक युग में हमारे क्रियाकर्म की जैन सिद्धांतों के साथ संगति सिद्ध कर सकने में समर्थ होंगे । अतः हम वीतराग मार्ग की साधना में अरहंत की वन्दना स्तुति के महत्व को समझते हुए अभिषेक की आडम्बर-प्रदर्शन पूर्ण क्रिया को छोड़े एवं आवश्यकतावश मूर्ति की स्वच्छता हेतु प्रक्षाल का सही उपयोग करें । गंधोदक को पीने के काम में कदापि न लें । उसका तो सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए भी किसी प्रकार का उपयोग नहीं करना चाहिए । जब हम अपने दैनिक कृत्य में भी जल का सीमित प्रयोग करना चाहते हैं तब प्रक्षाल में अनावश्यक जल का ज्यादा मात्रा में उपयोग क्यों किया जाय ? प्रक्षाल में जल के सिवा अन्य खाद्य-अखाद्य सामग्री का दुरुपयोग न किया जावे । हम प्रक्षाल को भी श्रावक के नाते ही करें, उसके लिए इन्द्र बनना आवश्यक नहीं है । प्रक्षाल जैसी वन्दना की प्राथमिक क्रिया की कोई बोली या डाक नहीं लगानी चाहिए । दान सहज भाव से देना चाहिए न कि प्रदर्शन एवं प्रतिद्वन्द्विता के आधार पर ।

हमें प्रक्षाल की क्रिया में अज्ञानवश या दूसरों के अनुकरण से आगत विकृतियों की परीक्षा वीतरागता एवं अहिंसा की साधना के आधार पर करनी चाहिए । आडम्बर एवं प्रदर्शनों से वीतरागता की नहीं अपितु राग की पुष्टि होती है तथा मात्र राग को पुष्ट करने वाली क्रियाओं को धार्मिक क्रिया की संज्ञा देना जैन धर्म सम्मत नहीं है ।


Contributors:

Proofreading: Jinesh Sheth(@jinesh)
Text Conversion: Divya(@Divya)
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