गुणश्रेणी निर्जरा और आस्रव-बंध

उदीरणा - अकालपाक / समय से पहले उदय में आना

अविपाक निर्जरा - कर्मों का बिना फल दिए नष्ट होना / अकर्मरूप परिणमित होना

इसका कोई प्रमाण उपलब्ध हो तो बतायें जहाँ अविपाक निर्जरा में उदीरणा की चर्चा आयी हो ।

प्रथम पंक्ति में अविपाक की जगह सविपाक आएगा (कविवर मंगतराय जी कृत बारह भावना)

यहाँ कवि ने निर्जरा के दो भेदों की ओर इंगित किया है । लेकिन उदीरणा की कोई बात नहीं है ।


यदि अविपाक निर्जरा को उदीरणा में गर्भित करते है तो कुछ विचारणीय बिन्दु / प्रश्न -

  • सात तत्त्वों में कर्मों के आस्रव-बन्ध की चर्चा है, लेकिन उदय की कोई चर्चा नहीं है । लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं होता कि ऐसी कोई अवस्था नहीं ।

  • कर्मों की दस अवस्थाओं में संवर / मोक्ष या उसके जैसी भी कोई अवस्था नहीं है । उपशान्त तो अलग चीज है, उसको संवर नहीं कहा जा सकता । फिर संवर को किसमें गर्भित करेंगे ?

  • 10 अवस्था तो कर्म की है, जब निर्जरा होती है, तब कर्म अकर्मरूप परिणमित होता है, अतः अब वे परमाणु कर्म की अवस्था रूप नहीं रहे । अतः उन्हें कर्म की अवस्था में कैसे रखते ?

  • मोहनीय का कभी अभाव ही नहीं हो पायेगा । क्योंकि मोहनीय कर्म के उदय का अर्थ ही यह है कि यहाँ जीव में कोई न कोई विकार है अथवा जब जीव में विकार होता है तब जिस कर्म का उदय निमित्त हो, वह मोहनीय कर्म है । अब यदि निर्जरा को उदीरणा में गर्भित करते है, तो उसका मतलब यह हुआ कि किसी न किसी रूप में मोहनीय कर्म का उदय / उदीरणा जब तक है तब तक जीव में भी कोई ना कोई कषाय भाव होगा ही । और यदि कषाय है तो नवीन मोह का बन्ध भी होता ही रहेगा ।

  • उपशम, क्षय और क्षयोपशम को भी कर्म की अवस्था में नहीं गिनाया है, किन्तु फिर भी वैसी अवस्था होती तो है । क्या उनका भी निषेध कर देना चाहिए ?

  • उदीरणा में परिणामों की तीव्रता होती है । मंद परिणाम नहीं रह सकते । राजवर्तिक, अध्याय 6, सूत्र 6 में से -

(as quoted in जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग 1, पृ. 410)

यदि अविपाक निर्जरा में कर्म की उदीरणा मानी जाए, तो मोह का अभाव होना तो दूर, मंद भी नहीं हो सकता, तीव्रता पाई जाएगी ।


जहाँ तक ख्याल में आता है, अविपाक निर्जरा और उदीरणा ये दो बिल्कुल अलग अलग प्रकरण है । तथापि यदि इस संदर्भ में कोई प्रमेय मिलता है, तो अवश्य अवगत कराएं ।

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