विधान में समर्पित किये जाने वाले "प्रतीक चिन्ह" का इतिहास

भारत देश की हृदयस्थली मध्यप्रदेश राज्य में स्थित टीकमगढ़ नगर, वहाँ पर श्री 1008 दिगम्बर जैन सीमंधर जिनालय, ज्ञान मन्दिर, जहाँ पर अष्टाह्निका पर्व के अवसर पर दिनाँक 16/11/2018 - 23/11/2018 तक ‘श्री नियमसार मंडल विधान’ का आयोजन चल रहा है।

साथ ही सानिध्य प्राप्त हो रहा है देश-विदेश में ख्याति प्राप्त विद्वान, कवि, “पं.अभय कुमार जी देवलाली” का।

विधान के बीच में “प्रतीक चिन्ह” का नाम सुनकर पंडित जी साहब ने इसका इतिहास सुनाया, जो कि अत्यंत ही रोचक है।

तथा मात्र इतिहास ही नहीं, इसे समर्पित करने के पीछे क्या अभिप्राय होना चाहिए, यह भी बहुत सुंदर एवं सहेतुक तरीके के साथ समझाया:-

करीब 40 वर्ष पूर्व ‘श्री इन्द्रध्वज मंडल विधान’ की रचना हुई थी। इसकी रचना के पूर्व कविवर संतलाल जी द्वारा रचित “श्री सिद्धचक्र मंडल विधान” जैन समाज में सबसे प्रतिष्ठित एवं भव्य विधान माना जाता था। इस विधान की रचना के बाद यह ‘इन्द्रध्वज मंडल विधान’ इतना सराहा गया कि इसकी प्रतिष्ठा और भव्यता भी श्री सिद्धचक्र मंडल विधान जैसी हो गयी।

‘श्री इन्द्रध्वज मंडल विधान’ करने के पीछे अभिप्राय, हमारे द्वारा, इन्द्रों के जैसी की जाने वाली अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना के भावों की अनुमोदना करना है। इसके लिए, जिस प्रकार इंद्र अकृत्रिम चैत्यालयों पर ध्वजा फहराता है, वैसे ही भावों को लिए, प्रतिष्ठाचार्यों/ पंडितों/ विद्वानों के द्वारा लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए ध्वजाएँ समर्पित करवाई जाने लगी।
वे ध्वजाएँ मांडने पर चढ़ाई/रखी जाती थीं।

साथ ही, कई हिंसादि आरम्भ कार्य जैसे कि अग्नि में धूप खेना, पंचामृत अभिषेक कराना, भक्ति के भावों की अपेक्षा द्रव्य सामग्री चढ़ाने मात्र पर विशेष ज़ोर देना आदि विधान में होते थे।

अत्यधिक लोकप्रियता के कारण मुमुक्षु समाज में भी यही विधान होने तो लगा, परंतु धार्मिक कार्य में अत्यधिक हिंसादि आरम्भ कार्यों की भी अनुमोदना तथा विपरीत मान्यता का पोषण एक चिंता का विषय बन गयी।

यह देखकर एक माननीय प्रतिष्ठाचार्य महोदय ने कविवर श्री राजमल जी पवैया जी से ऐसा ही आध्यात्मिक भावों को लिए एक और “श्री इन्द्रध्वज मंडल विधान” लिखने की प्रार्थना की।

बहुत अनुनय-विनय के पश्चात कविश्री पवैया जी ने यह विधान लिखा और वह मुमुक्षु समाज में भी बहुत प्रचलित हो गया। परंतु इसके साथ-साथ ही मांडने पर ध्वजा समर्पित करने की प्रथा भी समाज में आ गयी।

चूंकि ‘ध्वजा’ नामक अष्ट द्रव्यों में कोई द्रव्य तो नहीं है, तो उसे चढ़ाने का कोई औचित्य नहीं बैठता। अतः, इस विधान को “अपनी स्मृति में बनाए रखने के अभिप्राय से, अपने हृदय में उमड़ती भक्ति के प्रतीक स्वरूप” ऐसे ही कई और मोमेंटो आदि मांडने पर चढ़ाए जाने लगे/बाद में लोगों को दिए जाने लगे।

इनको समर्पित करने अथवा लोगों को देने के पीछे अभिप्राय मात्र इस मंगल अवसर को याद रखने का था, कि इन्हें कभी हम घर में रखें, तो इन्हें देखकर ‘‘हमने ऐसा मंगलकारी विधान किया था’’, ऐसे भाव मन में आ जाएं, यह अभिप्राय था। इसीलिए, उन भावों के “प्रतीक” स्वरूप इसे लोगों को देने के कारण, उन मोमेंटो आदि को “प्रतीक” नाम दे दिया गया।

परन्तु धीरे-धीरे लोगों ने इसे साज-सज्जा, गृह-शोभा का उपकरण बन लिया।

तथा, गृह शोभा हेतु कोई सस्ती चीज़ तो रखेगा नहीं, इसलिए इन सामग्रियों पर भी बहुत खर्च किया जाने लगा। इस प्रकार, यह वस्तु भक्ति में निमित्त न बनकर, अपने मान पोषण में निमित्त बन गयी।

साथ ही, धर्म से जुड़े कई नए-नए लोगों के अंदर यह भी बात आई कि इन्हें घर में रखने से हमारे कष्ट दूर हो जायेंगे, हमारे घर में सम्पत्ति आयेगी, आदि विपरीत मान्यताएँ भी पनपने लगीं।

इस प्रकार इन प्रतीक चिन्हों की माँग समाज में बहुत बढ़ गयी।

विधान के बीच में इनको भगवान को चढ़ाना, चढ़ाने के लिए लोगों को उत्साहित करना, उत्साह बढ़ाने के लिए भक्ति आदि गाना, नृत्य करवाना, ये कार्य होते हैं। तथा इन कार्यों में भगवान तथा भक्ति के भावों की मुख्यता न होकर, इन पुद्गल के प्रतीकों की तथा उन्हें पाने की होड़ की मुख्यता हो गयी। लोग इन्हें चढ़ाने के लिए लालायित होते थे। और इन्हें पाने के लिए विशेष ऑर्डर देकर भी मंगवाने तैयार हो जाते थे।

आज यह चीज़ बड़े स्तर पर सभी जगह चल रही है। तथा इसके पीछे का अभिप्राय खो-सा गया है।

इन्हें भगवान के समक्ष चढ़ाना तो वैसे ही योग्य नहीं है, क्योंकि इनको देने के लिए विधान के बीच में बोली आदि लगवाई जाती हैं, लोगों को कई प्रलोभन दिए जाते हैं, आर्टिफिशियल धूम-धड़ाके वाली भक्तियाँ तथा नृत्य कराए जाते हैं, जो कि एक प्रकार से भगवान का अवर्णवाद है, उनकी उपेक्षा है।

अतः भगवान को तो ये चढ़ाए जाने ही नहीं चाहिए, लेकिन जो भी विधान में सम्मिलित हुए उनको देकर यही भावना भाने को प्रेरित किया जाना चाहिए कि इन्हें आगे कभी देखकर आप भी सोचें, भावना भाएँ, कि “हमने ऐसा मंगलकारी, शांति तथा सुख का मार्ग बताने वाला, पापों का नाश करने वाले विधान का आयोजन अपने मंदिर में किया था”। यह भाव उन पुरानी यादों को आंदोलित कर निरन्तर अतिशय पुण्य का कारण बनेगा।

इस प्रकार के अभिप्राय परिवर्तन से ही इस विपरीत प्रथा को रोका जा सकता है।

तथा यह भी विपरीत मान्यता छोड़ देनी चाहिए कि इन्हें घर में रखने से हमारा कुछ भला हो जाएगा आदि। क्योंकि पर द्रव्य हमारा भला-बुरा करने में समर्थ नहीं। हमारे ही मोह-राग-द्वेष के परिणाम हमें सुखी दुखी करते हैं।
ऐसा सम्यक ज्ञान कर इन विधान आदि कार्यों को अत्यंत विनय-भक्ति-श्रद्धा-समर्पण के भावों से आयोजित करना चाहिए।

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