शुद्धात्म-आराधना | Shuddhatma Aradhana

आराधना की शुभ घड़ी यह भाग्य से पायी ।
आराधना शुद्धात्मा की ही मुझे भायी।।टेक।।

करके विराधन तत्त्व का बहु क्लेश हैं पाये।
सौभाग्य से नरभव मिला जिननाथ ढिंग आये।
वाणी सुनी जिनराज की कुछ होश हुआ है।
उपयोग निर्णय में लगा अवबोध हुआ है।।
जागा विवेक अंतरंग में जागृति आयी ।। आराधना…।।१।।

शुद्धात्मा अपना परम आदेय है भासा।
मंगलस्वरूप चित्स्वरूप सहज प्रतिभासा॥
संयोग देह कर्म आदि भिन्न लखाये।
मोहादि सब दुर्भाव दुःख के हेतु दिखाये।।
आह्लादमयी आत्मानुभूति आज है आयी ।।आराधना…।।२।।

निर्भान्त हूँ, निःशंक हूँ, शुद्धात्मा प्रभु है।
स्वभाव से ही ज्ञान आनन्दमय सदा विभु है ।।
सत् रूप अहेतुक नहीं जन्में नहीं मरता।
सामर्थ्य से अपनी सदा ही परिणमन करता ।।
समझा स्वरूप स्वावलम्बी वृत्ति जगायी ।। आराधना…॥३॥

स्वाधीन अखण्ड प्रतापवान है प्रभु सदा।
निर्बन्ध है पर से नहीं सम्बन्ध हो कदा ।।
पर से नहीं आता कभी कुछ भ्रान्ति मिट गयी।
निज में ही निज की पूर्णता स्वयमेव दिख गयी ।।
स्वाश्रय से पराश्रय की बुद्धि सहज नशायी। आराधना…।।४।।

रे अग्नि में से शीतता आती नहीं जैसे।
और अग्नि भी घृत से नहीं बुझती कभी जैसे ।।
त्यों इन्द्रिय भोगों से नहीं होता सुखी कभी।
अरु कार्य भी विकल्प से होता नहीं कभी ।।
परभावों की असारता प्रत्यक्ष दिखायी। आराधना…।।५।।

जीवन का ठिकाना नहीं, संयोग हैं अशरण।
परमार्थ से देखें तो मात्र आत्मा शरण ।।
आत्मा का विस्मरण ही है संसार का कारक।
आत्मा का अनुभवन ही सर्वक्लेश निवारक।
जिनदेव की यह देशना आनन्द प्रदायी॥ आराधना…।।६।।

चिन्ता चिता से भी अधिक है घात का कारण।
चिन्ता से कभी होता नहीं कष्ट निवारण ।।
चिन्ता को छोड़ तत्त्व का चिन्तन सहज करूँ।
अनुकूल अरु प्रतिकूल में समता सदा धरूँ।।
निरपेक्ष भावना हृदय में आज है आयी। आराधना…।।७।।

होती न अनहोनी कभी होनी नहीं टलती।
सुख शान्ति तो आराधना से ही सदा मिलती ।।
शिवमार्ग के साधक कभी कुछ भार नहिं लेते।
ज्ञाता स्वयं में तृप्त नित निर्भार ही रहते ।।
विमुक्त होने की यह युक्ती आज सुहायी ।। आराधना…।।८।।

भवितव्य को स्वीकार कर निश्चिंत रहूँगा।
तजकर पराई आश अब निरपेक्ष रहूँगा ।।
संयोगों की चिन्ता में दुख के बीज नहीं बोऊँ।
फँसकर विकल्पों में नहीं यह शुभ समय खोऊँ।
वस्तु स्वरूप जानकर दृढ़ता सहज आयी ।।आराधना…।।९।।

लौकिक जनों की चर्चायें अब मैं न सुनूंगा।
मोही जनों के आँसुओं पर ध्यान नहीं दूंगा।।
मिथ्या भविष्य की भी चिन्ता अब न करूँगा।
मानापमान में भी मैं तो सहज रहूँगा ।।
अब भेदज्ञान की कला अन्तर में प्रगटाई ।। आराधना…।।१०॥

करके स्वांग हितैषी का नहीं मुझको बहकाओ।
देके प्रलोभन अथवा भय न मुझको फँसाओ ।।
तजकर तुम मिथ्या मोह कुछ विवेक जगाओ।
होकर आनन्दित संयम की अनुमोदना लाओ।।
संयम की अमृतधारा तो सभी को सुखदायी ।।आराधना… ॥११॥

सुनकर विरागमय वचन आनन्द छा गया।
दुर्मोह का वातावरण सब दूर हो गया।
आसन्न भव्य भी सहज ही साथ चल दिए।
निर्ग्रन्थता के मार्ग का संकल्प शुभ किए।
धनि-धनि कहे जयवंत हो जिनधर्म सुखदायी ।। आराधना.।।१२।।

Artist - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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