श्री सिद्ध पूजन । Shree Siddh Pujan

              स्थापना
              (दोहा)

चिदानंद स्वातम रसी, सत शिव सुंदर जान।
ज्ञाता दृष्टा लोक के, परम सिद्ध भगवान।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।

                   अष्टक
             (वीर छंद)

ज्यों-ज्यों प्रभुवर जलपान किया, त्यों त्यों तृष्णा की आग जली।
थी आस कि प्यास बुझेगी अब, पर यह सब मृगतृष्णा निकली।।

आशा तृष्णा से जला ह्रदय, जल लेकर चरणों में आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।1।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा…।

तन का उपचार किया अब तक, उस पर चंदन का लेप किया।
मलमल कर खूब नहा कर के, तन के मल का विक्षेप किया।।

अब आतम के उपचार हेतु, तुमको चंदन सम है पाया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।2।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा…।

सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर, तुम ही अखंड अविनाशी हो।
तुम निराकार अविचल निर्मल, स्वाधीन सफल सन्यासी हो।।

ले शालिकणों का अवलंबन , अक्षयपद तुमको अपनाया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।3।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा…।

जो शत्रु जगत का प्रबल काम, तुमने प्रभुवर उसको जीता।
हो हार जगत के बैरी की, क्यों नहीं आनंद बढ़े सब का।।

प्रमुदित मन विकसित सुमन नाथ, मनसिज को ठुकराने आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।4।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा…।

मैं समझ रहा था अब तक प्रभु, भोजन से जीवन चलता है।
भोजन बिन नरकों में जीवन, भरपेट मनुज क्यों मरता है?

तुम भोजन बिन अक्षय सुखमय, यह समझ त्यागने हूं आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।5।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा…।

आलोक ज्ञान का कारण है, इंद्रिय से ज्ञान उपजता है।
यह मान रहा था पर क्यों कर, जड़ चेतन सर्जन करता है।।

मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी, यह भेदज्ञान पा हर्षाया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।6।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा…।

मेरा स्वभाव चेतनमय है, इसमें जड़ की कुछ गंध नहीं।
मैं हूँ अखंड चिदपिण्ड चंड, पर से कुछ भी संबंध नहीं।।

यह धूप नहीं जड़ कर्मों की रज, आज उड़ाने मैं आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।7।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा…।

शुभ कर्मों का फल विषय भोग, भोगों में मानस रमा रहा।
नित नई लालसाएं जागी, तन्मय हो उनमें समा रहा।।

रागादि विभाव किये जितने, आकुलता उनका फल पाया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।8।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा…।

जल पिया और चंदन चर्चा, मालाएं सुरभित सुमनों की।
पहनी तंदुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की।।

सुरभि धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया।।
आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया।।

जब दृष्टि पड़ी प्रभु जी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ।
सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ।।

जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूं आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।।9।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा…।

              जयमाला
               (दोहा)

आलोकित हो लोक में, प्रभु परमात्म प्रकाश।
आनंदामृत पान कर, मिटे सभी की प्यास।।

            (पद्धरि)

जय ज्ञानमात्र ज्ञायक स्वरूप, तुम हो अनंत चैतन्य भूप।
तुम हो अखंड आनंद पिंड मोहारि दलन को तुम प्रचंड।।

राग आदि विकारी भाव जार, तुम हुए निरामय निर्विकार।
निर्द्वंद निराकुल निराधार, निर्मम निर्मल हो निराकार।।

नित करत रहत आनंद रास, स्वाभाविक परिणति में विलास।
प्रभु शिव रमणी के हृदय हार, नित करत रहत निज में विहार।।

प्रभु भवदधि यह गहरो अपार, बहते जाते सब निराधार।
निज परिणति का सत्यार्थ भान, शिव पद दाता जो तत्वज्ञान।।

पाया नहीं मैं उसको पिछान, उल्टा ही मैंने लिया मान।
चेतन को जड़-मय लिया जान, पर में अपनापा लिया मान।।

शुभ-अशुभ राग जो दुःखखान, उसमें माना आनंद महान।
प्रभु अशुभ कर्म को मान हेय, माना पर शुभ को उपादेय।।

जो धर्म ध्यान आनंद रूप, उसको माना मैं दुख स्वरूप।
मनवांछित चाहे नित्य भोग, उनको ही माना है मनोज्ञ।।

इच्छा निरोध की नहीं चाह, कैसे मिटता भव विषय दाह।
आकुलतामय संसार सुख, जो निश्चय से है महा दुख।।

उसकी ही निशदिन करी आस, कैसे कटता संसार पास।
भव दुख का पर को हेतु जान, पर से ही सुख को लिया मान।।

मैं दान दिया अभिमान ठान, उसके फल पर नहीं दिया ध्यान।
पूजा कीनी वरदान मांग, कैसे मिटता संसार स्वांग?

तेरा स्वरूप लख प्रभु आज, हो गए सफल संपूर्ण काज।
मो उर प्रगट्यो प्रभु भेद ज्ञान, मैंने तुमको लीना पिछान।।

तुम पर के कर्ता नहीं नाथ, ज्ञाता हो सबके एक साथ।
तुम भक्तों को कुछ नहीं देत, अपने समान बस बना लेत।।

यह मैंने तेरी सुनी आन, जो लेवे तुमको बस पिछान।
वह पाता है कैवल्य ज्ञान, होता परिपूर्ण कला निधान।।

विपदामय पर-पद है निकाम, निज पद ही है आनंद धाम।
मेरे मन में बस यही चाह, निज पद को पाऊं हे जिनाह।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचकराधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अनर्घ्य पद प्राप्ताय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा…।

             (दोहा)

पर का कुछ नहीं चाहता, चाहूं अपना भाव।
निज स्वभाव में थिर रहूं, मेटो सकल विभाव।।

          पुष्पांजलिम् क्षिपामि

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:pray: Jai Jinendra :pray:

जिनेन्द्र अर्चना पुस्तक