८. नवदेव
सम्यकदर्शन-ज्ञान-चरण हैं, यही जीव को सदा शरण हैं ।
पंचपरमेष्ठी इनके धारक, मंगलमय अरु मंगलदायक ।।1।।
दर्शन करना हर्षित होकर, गुण चिंतो अन्तर्मुख होकर ।
भेदज्ञान को सदा सुमरना, शुद्धातम का अनुभव करना ।।2।।
वीतरागता पोषक वाणी, जग में कहलाये जिनवाणी ।
करो सदा अभ्यास सहज ही, नाशे भ्रम अज्ञान सर्व ही ।।3।।
श्री जिनबिम्ब जिनालय जानो, जैनधर्म नवदेव पिछानो ।
धर्मतीर्थ हैं मंगलकारी, धर्मीजन भी आनंदकारी ।।4।।
स्तुति करना, वंदन करना, सेवा करना रक्षा करना ।
ये सम्यक् पूजा व्यवहारा, निश्चय रत्नत्रय अविकारा ।।5।।
रचयिता-: बा.ब्र. श्री रवींद्र जी ‘आत्मन्’