सामायिक पाठ | Samayik path - Br. Ravindra Ji "Aatman"

सामायिक पाठ
पंच परमगुरु को प्रणमि, सरस्वती उर धार।
करूँ कर्म छेदंकरी सामायिक सुखकार ॥ १ ॥

( छंद - चाल )
आत्मा ही समय कहावे, स्वाश्रय से समता आवे ।
वह ही सच्ची सामायिक, पाई नहीं मुक्ति विधायक ॥ २ ॥
उसके कारण मैं विचारूँ, उन सबको अब परिहारूँ।
तन में ‘मैं हूँ’ मैं विचारी, एकत्वबुद्धि यों धारी ॥३॥
दुखदाई कर्म जु माने, रागादि रूप निज जाने।
आस्रव अरु बन्ध ही कीनो, नित पुण्य-पाप में भीनो ॥४॥
पापों में सुख निहारा, पुण्य करते मोक्ष विचारा।
इन सबसे भिन्न स्वभावा, दृष्टि में कबहुँ न आवा ॥५॥
मद मस्त भयो पर ही में, नित भ्रमण कियो भव-भव में।
मन वचन योग अरु तन से, कृत कारित अनुमोदन से ॥६॥
विषयों में ही लिपटाया, निज सच्चा सुख नहीं पाया।
निशाचर हो अभक्ष्य भी खाया, अन्याय किया मन भाया ॥७॥
लोभी लक्ष्मी का होकर, हित-अहित विवेक मैं खोकर।
निज-पर विराधना कीनी, किञ्चित् करुणा नहिं लीनी ॥८॥
षट्काय जीव संहारे, उर में आनन्द विचारे ।
जो अर्थ वाक्य पद बोले, थे त्रुटि प्रमाद विष घोले॥९॥
किञ्चित् व्रत संयम धारा, अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचारा।
उनमें अनाचार भी कीने, बहु बाँधे कर्म नवीने ॥१०॥
प्रतिकूल मार्ग यों लीना, निज-पर का अहित ही कीना।
प्रभु शुभ अवसर अब आयो, पावन जिनशासन पायो ॥११॥
लब्धि त्रय मैंने पायी, अनुभव की लगन लगायी।
अतएव प्रभो मैं चाहूँ, सबके प्रति समता लाऊँ ॥१२॥
नहिं इष्टानिष्ट विचारूँ, निज सुक्ख स्वरूप संभारूँ।
दुःखमय हैं सभी कषायें, इनमें नहिं परिणति जाये ॥१३॥
वेश्या सम लक्ष्मी चंचल, नहिं पकहूँ इसका अंचल।
निर्ग्रन्थ मार्ग सुखकारी, भाऊँ नित ही अविकारी ॥१४॥
निज रूप दिखावन हारी, तव परिणति जो सुखकारी।
उसको ही नित्य निहारूँ, यावत् न विकल्प निवारूँ ॥१५॥
तुम त्याग अठारह दोषा, निजरूप धरो निर्दोषा।
वीतराग भाव तुम भीने, निज अनन्त चतुष्टय लीने ॥१६॥
तुम शुद्ध बुद्ध अनपाया, तुम मुक्तिमार्ग बतलाया।
अतएव मैं दास तुम्हारा, तिष्ठो मम हृदय मंझारा ।।१७।।
तव अवलम्बन से स्वामी, शिवपथ पाऊँ जगनामी।
निर्द्वन्द निशल्य रहाऊँ, श्रेणि चढ़ कर्म नशाऊँ ॥१८॥
जिनने मम रूप न जाना, वे शत्रु न मित्र समाना।
जो जाने मुझ आतम रे, वे ज्ञानी पूज्य हैं मेरे ॥१९॥
जो सिद्धात्मा सो मैं हूँ, नहिं बाल युवा नर मैं हूँ।
सब तैं न्यारा मम रूप, निर्मल सुख ज्ञान स्वरूप ॥२०॥
जो वियोग संयोग दिखाता, वह कर्म जनित है भ्राता।
नहिं मुझको सुख दुःखदाता, निज का मैं स्वयं विधाता ॥२१॥
आसन संघ संगति शाला, पूजन भक्ति गुणमाला।
इनतैं समाधि नहिं होवे, निज में थिरता दुःख खोवे ॥२२॥
घिन गेह देह जड़ रूपा, पोषत नहिं सुक्ख स्वरूपा।
जब इससे मोह हटावे, तब ही निज रूप दिखावे ॥ २३॥
वनिता बेड़ी गृह कारा, शोषक परिवार है सारा।
शुभ जनित भोग जो पाई, वे भी आकुलता दायी ॥२४॥
सबविधि संसार असारा बस निज स्वभाव ही सारा।
निज में ही तृप्त रहूँ मैं, निज में संतुष्ट रहूँ मैं ॥२५॥

(दोहा)
निज स्वभाव का लक्ष्य ले, मैंटूं सकल विकल्प।
सुख अतीन्द्रिय अनुभवूं, यही भावना अल्प ॥२६॥

रचयिता:- आ० ब्र. रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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