प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

ज्ञान-ज्ञेयविभागाधिकार

सप्रदेशपदार्थनिष्ठित लोक शाश्वत जानिये।
जो उसे जाने जीव वह चतुप्राण से संयुक्त है ।।१४५।।
इन्द्रिय बल और आयु श्वासोच्छ्वास ये ही जीव के
हैं प्राण इनसे लोक में सब जीव जीवे भव भ्रमे ।।१४६।।
पाँच इन्द्रिय प्राण मन-वच-काय त्रय बल प्राण है ।
आयु श्वासोच्छ्वास जिनवर कहे ये दश प्राण हैं।१२।*
जीव जीवे जियेगा एवं अभीतक जिया है।
इन चार प्राणों से परन्तु प्राण ये पुद्गलमयी ।।१४७।।
मोहादि कर्मों से बंधा यह जीव प्राणों को धरे।
अर कर्म फल को भोगता अर कर्म का बंधन कहे ।।१४८।।
मोह एवं द्वेष से जो स्व-पर को बाधा करे।
पूर्वोक्त ज्ञानावरण आदि कर्म वह बंधन करे ।।१४९।।
ममता न छोड़े देह विषयक जबतलक यह आत्मा ।
कर्ममल से मलिन हो पुनः-पुनः प्राणों को धरे ।१ ०।
उपयोगमय निज आत्मा का ध्यान जो धारण करे।
इन्द्रिय जी वह विराट कर्मा प्राण क्यों धारण करें ।।१५१।।
अस्तित्व निश्चित अर्थ की अन्य अर्थ के संयोग से ।
जो अर्थ वह पर्याय जो संस्थान आदिक भेदमय ।।१५२।।
तिर्यंच मानव देव नारक नाम नामक धर्म के।
उदय से पर्याय होवें अन्य-अन्य प्रकार की ।।१५३।।
त्रिधा निज अस्तित्व को जाने जो द्रव्यस्वभाव से।
वह हो न मोहित जान लो अन-अन्य द्रव्यों में कभी ।।१५४।।
आत्मा उपयोगमय उपयोग दर्शन-ज्ञान हैं।
अर शुभ-अशुभ के भेद भी तो कहे हैं उपयोग के ।।१५५।।
उपयोग हो शुभ पुण्यसंचय अशुभ हो तो पाप का ।
शुभ-अशुभ दोनों ही न हो तो कर्म का बंधन न हो ।।१५६।।
श्रद्धान सिध-अणगार का अर जानना जिनदेव का।
जीवकरुणा पालना बस यही है उपयोग शुभ ।।१५७।।
अशुभ है उपयोग वह भी रहे नित उन्मार्ग में
श्रवण-चिंतन-संगठन विपरीत विषय-कषाय में ।।१५८।।
आत्मा ज्ञानात्मक अनद्रव्य में मध्यस्थ हो।
ध्यावे सदा ना रहे वह नित शुभ-अशुभ उपयोग में ।।१५९।।
देह मन वाणी न उनका करण या कर्ता नहीं।
ना कराऊँ मैं कभी भी अनुमोदना भी ना करूँ।।१६०।।
देह मन वच सभी पुद्गल द्रव्यमय जानवर कहे।
ये सभी जड़ स्कन्ध तो परमाणुओं के पिण्ड हैं।।१६१।।
मैं नहीं पुद्गलमयी मैंने ना बनाया हैं इन्हें ।
मैं तन नहीं हूँ इसलिए ही देह का कर्ता नहीं ।।१६२।।
अप्रदेशी अणु एक प्रदेशमय अर अशब्द हैं।
अर रूक्षता-स्निग्धता से बहुप्रदेशीरूप हैं।?६३।
परमाणु के परिणमन से इक-एक कर बढ़ते हुए।
अनंत अविभागी न हो स्निग्ध अर रूक्षत्व से ।।१६४।।
परमाणुओं का परिणमन सम-विषम अर स्निग्ध हो ।
अर रूक्ष हो तो बंद हो दो अधिक पर न जघन्य हो ।।१६५।।
दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हों यदि चार तो।
हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो ।।१६६।।
यदि बहुप्रदेशी कंध सूक्षम-थूल हों संस्थान में ।
तो भूजलादि रूप हों वे स्वयं के परिणमन से ।१६७।
भरा है यह लोक सूक्षम-थूल योग्य-अयोग्य जो ।
कर्मत्व के वे पौगलिक उन खंध के संयोग से ।।१६८।।
स्कन्ध जो कर्मत्व के हों योग्य वे जिय परिणति ।
पाकर करम में परिणमें न परिणमावे जिय उन्हें ।।१६९।।
कर्मत्वगत जड़पिण्ड पुद्गल देह से देहान्तर ।
को प्राप्त करके देह बनते पुन-पुनः वे जीव की ।।१७०।।
यह देह औदारिक तथा हो वैक्रियक या कामण ।
तेजस अहारक पाँच जो वे सभी पुद्गलद्रव्यमय ।।१७१।।
चैतन्य गुणमय आत्मा अव्यक्त अरस अरूप है।
जानो अलिंग ग्रहण उसे यह अनिर्दिष्ट शब्द है ।।१७२।।
मूर्त पुद्गल बंधे नित स्पर्श गुण के योग से।
अमूर्त आतम मूर्त पुद्गल कर्म बाँधे किस तरह।१७३।
जिसतरह रूपादि विरहित जीव जाने मूर्त को ।
बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गल कर्म को ।।१७४।।
प्राप्त कर उपयोगमय जिय विषय विविध प्रकार के।
रुष-तुष्ट होकर मुग्ध होकर विविधविध बंधन करे ।।१७५।।
जिस भाव से आगत विषय को देखे-जाने जीव यह।
उसी से अनुरक्त हो जिय विविधविध बंधन करे ।।१७६।।
स्पर्श से पुद्गल बंधे अर जिय बंधे रागादि से।
जीव-पुद्गल बंधे नित ही परस्पर अवगाह से ।।१७७।।
आत्मा सप्रदेश है उन प्रदेशों में पुद्गल।
परविष्ट हों अर बंधे अर वे यथायोग्य रहा करें ।।१७८।।
रागी बाँधे कर्म छुटे राग से जो रहित है।
यह बंधन का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह ।।१७९।।
राग-रुष अर मोह ये परिणाम इनसे बंध हो।
राग है शुभ-अशुभ किन्तु मोह-रुष तो अशुभ ही ।।१८०।।
पर के प्रति शुभभाव पुण पर अशुभ तो बस पाप है।
पर दुःख क्षय का हेतु तो बस अनन्यगत परिणाम है ।।१८१।।
पृथ्वी आदि जावरा तरस कहे जीव निकाय हैं।
वे जीव से हैं अन्य एवं जीव उनसे अन्य है ।।१८२।।
जो न जाने इसतरह स्व और पर के स्वभाव से।
वे मोह से मोहित रहे ये मैं हूँ’ अथवा 'मेरा यह ।।१८३।।
निज भाव को करता हुआ निजभाव का कर्ता कहा।

और पुद्गल द्रव्यमय सब भाव का कर्ता नहीं ।।१८४।।
जीव पुद्गल मध्य रहते हुए पुद्गल कर्म को।
जानवर कहें सब काल में ना ग्रहे-छोड़े-परिणमे ।।१८५।।
भवदशा में रागादि को करता हुआ यह आत्मा ।
रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता छूटता ।।१८६।।
रागादियुत जब आत्मा परिणाम शुभ-अशुभ भाव में ।
तब कर्मरज से आवरित हो विवाह बंधन में पड़े ।।१८७।।
विशुद्धतम परिणाम से शुभम कर्म का बंध है ।
संक्लेशतम से अशुभतम अर जघन हो विपरीत से ।।१३।।
सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत ।
हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जानवर कहां।१८८।
यह बंध का संक्षेप जिनवरदेव ने यतिवृन्द से।
नियतनय से कहा है व्यवहार इससे अन्य है ।।१८९।।
तन-धनादि में 'मैं हँ यह अथवा 'ये मेरे हैं सही।
ममता न छोड़े वह श्रमण उन्मार्गी जानवर कहें ।।१९०।।
पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा।
जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धात्मा ।।१९१।।
इसतरह मैं आत्मा को ज्ञानमय दर्शनमयी।
ध्र व अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ।।१९२।।
अरि-मित्रजन धन्य-धान्य सुख-दुख देह कुछ भी ध्रुव नहीं।
इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आत्मा ।।१९३।।
यह जान जो शुद्धातमा ध्यावे सदा परमात्मा ।
दुठ मोह की दुर्गन्ध का भेदन करें वे आतमा ।।१९४।।
मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दुख में
समभाव हो वह श्रमण ही बस अख़ सुख धारण करें ।।१९५।।
आत्म ध्यान श्रमण वह इन्द्रिय विषय जो परिहरे ।
स्वभावथित अवरुद्ध मन वह मोहम्मद का क्षय करे ।।१९६।।
घन घाती कर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को।
संदेह विरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को ।।१९७।।
अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं।
चहुँ ओर से सुख-ज्ञान से समृद्ध ध्यावे परमसुख ।।१९८।।
निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने।
निर्वाण अर निर्वाण मग को नमन बारंबार हो ।।१९९।।
इसलिए इस विधि आत्म ज्ञान स्वभावी जानकर ।
निर्ममत्व में स्थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर ।।२००।।
सुशुद्धदर्शनज्ञानमय उपयोग अन्तरलीन जिन ।
बाधारहित सुखसहित साधु सिद्ध को शत्-शत् नमन ।।१४।।

**आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १२,१३,१४