प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

ज्ञेयतत्व प्रज्ञापन महाधिकार

द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार

सम्यक् सहित चारित्रयुत मुनिराज में मन जोड़कर ।
नमकर कहँ संक्षेप में सम्यक्त्व का अधिकार यह।।१०।।**
गुणात्मक है द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमान ।
गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही हैं परसमय 1९३।
पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में।
थित जीव ही हैं स्वसमय - यह कहा जिनवरदेव ने ।।९४।।
निजभाव को छोड़े बिना उत्पाद व्यय धृव युक्त गुण
पर्याय सहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जानवर कहें।1९५।
गुण-चित्रमय पर्याय से उत्पाद व्यय धृव भाव से है।
जो द्रव्य का अस्तित्व है, वह एकमात्र स्वभाव है।।।९६।।
रे सर्वगत सत् एक लक्षण विविध द्रव्यों का कहा।
जैन धर्म का उपदेश देते हुए जिनवरदेव ने ।९७।
स्वभाव से ही सिद्ध सत्य जिन कहा आगमसिद्ध है।
यह नहीं माने जीव जो वे परसमय पहिचानिये ।।९८।।
स्वभाव में थित द्रव्य सत् सत् द्रव्य का परिणाम जो।
उत्पादव्ययध्रुवसहित है वह ही पदार्थ स्वभाव है ।।९९।।
भंगबिन उत्पाद या उत्पाद बिन ना भंग हो।
उत्पाद व्यय हो नहीं सकते एक ध्रौव्य पदार्थ बिन ।।१००।।
पर्याय में उत्पादव्ययध्रुव द्रव्य में पर्यायें हैं।
बस इसलिए तो कहा है कि वे सभी एक द्रव्य हैं ।।१०१।।
उत्पादव्ययथिति द्रव्य में समवेत हूँ प्रत्येक पल।
बस इसलिए तो कहा है इन तीनमय हैं द्रव्य सब ।१०२।
उत्पन्न होती अन्य एवं नष्ट होती अन्य ही।
पर्याय किन्तु द्रव्य न उत्पन्न हो ना नष्ट हो ।।१०३।।
गुण से गुणान्तर परिणाम द्रव्य स्वयं सत्ता अपेक्षा ।
इसलिए गुणपर्याय ही हैं द्रव्य जानवर ने कहा ।।१०४।।
यदि द्रव्य न हो स्वयं सत् तो असत् होगा नियम से।
किम होय सत्ता से पृथक् जब द्रव्य सत्ता है स्वयं ।।१०५।।
जानवर के उपदेश में पृथक्त्व भिन्न प्रदेश ।
अतद्भाव ही अन्यत्व है तो अतत् कैसे एक हो ।।१०६।।
सत् द्रव्य सत् गुण और सत् पर्याय सत् विस्तार है।
तद्रूपता का अभाव ही तद्-अभाव और अतद्भाव है।?०७।
द्रव्य वह गुण नहीं अर गुण द्रव्य ना आतक यह ।
सर्वथा का अभाव है वह नहीं अभाव है ।।१०८।।
परिणाम द्रव्य स्वभाव जो वह पृथक सत्ता से सदा ।
स्वभाव में थित द्रव्य सत् जिनदेव का उपदेश यह ।।१०९।।
पर्याय या गुण द्रव्य के बिन कभी भी होते नहीं।
द्रव्य ही है भाव इससे द्रव्य सत्ता है स्वयं ।।११०।।
पूर्वोक्त द्रव्यस्वभाव में उत्पाद सत् नया द्रव्य से ।
पर्याय नया से असत् का उत्पाद होता है सदा ।।१११।।
परिणमित जिय नरदेव हो या अन्य हो पर कभी भी।
द्रव्यत्व को छोड़े नहीं तो अन्य होवे किसतरह ।११२।
मनुज देवता नहीं है अथवा देव मनुजादिक नहीं।
ऐसी अवस्था में कहो कि अनन्य होवे किसतरह ।११३।
द्रव्य से है अन्य जियो पर्याय से अन-अन्य है।
पर्याय तन्मय द्रव्य से तत्समय अत: अनन्य है ।।११४।।
अपेक्षा से द्रव्य है है नहीं ‘अनिर्वचनीय है।
है है नहीं इसतरह ही अवशेष तीनों भंग हैं ।।११५।।
पर्याय शाश्वत नहीं परन्तु है विभावस्वभाव तो।
है सफल परम धरम परन्तु क्रिया सफल नहीं कही ।।११६।।
नाम नामक कर्म जिय का पराभव कर जीव को।
नर नारकी तिर्यंच सुर पर्याय में दाखिल करे ।।११७।।
नाम नामक कर्म से पशु नरक सुर नर गति में ।
स्वकर्म परिणत जीव को निजभाव उपलब्धि नहीं ।।११८।।
उत्पाद-व्यय ना प्रतिक्षण उत्पादव्ययमय लोक में ।
अन-अन्य हैं उत्पाद-व्यय और अभेद से हैं एक भी ।।११९ ।।
स्वभाव से ही अवस्थित संसार में कोई नहीं।
संसरण करते जीव की यह क्रिया ही संसार है ।।१२०।।
कर्ममल से मलिन जिय पा कर्मयुत परिणाम को
कर्मबंधन में पर परिणाम ही बस धर्म है ।।१२१।।
परिणाम आत्मा और वह ही कही जीवमयी क्रिया।
वह क्रिया ही है कर्म जीव द्रव कर्म का कर्ता नहीं ।।१२२।।
कर्म एवं करमफल अर ज्ञानमय यह चेतना ।
ये तीन इनके रूप में ही परिणाम यह आत्मा ।।१२३।।
ज्ञान अर्थ विकल्प जो जिय करे वह ही कर्म है।
अनेकविध वह कर्म है अर करमफल सुख-दुक्ख है।।१२४।।
ज्ञान कर्मरु कर्मफल परिणाम तीन प्रकार हैं।
आत्मा परिणाममय परिणाम ही हैं आत्मा।।१२५।।
जो श्रमण निश्चय करे कर्ता कर्म कर्म कर्म फल।
ही जीव ना पररूप हो शुद्धात्म उपलब्धि करे ।।१२६।।
**आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा- १०