प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

मोक्ष मार्ग प्रज्ञापनाधिकार

स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं।
भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है ।।२३२।।
जो श्रमण आगमन हैं वे स्व-पर को नहिं जानते।
वे कर्म क्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ।।२३३।।
साधु आगम चक्षु इन्द्रिय चक्षु तो सब लोक है।
देव अवधिचक्षु अर सर्वात्मचक्षु सिद्ध हैं ।।२३४।।
जैन-आगमों से सिद्ध हो सब अर्थ गुण-पर्याय सहित ।
जैन-आगमों से ही श्रमण जानकर साधे स्वहित ।।२३५।।
जिनागम अनुसार जिनकी दृष्टि न वे असंयमी।
यह जिनागम का कथन है वे श्रमण कैसे हो सकें ।।२३६।।
जिनागम से अर्थ का श्रद्धान ना सिद्धि नहीं।
श्रद्धान हो पर असंयत निर्वाण को पता नहीं ।।२३७।।
विज्ञ तीनों गुप्ति से क्षय करें स्वासोच्छ्वास में।
ना अज्ञ उतने कर्म नाशे भव हजार करोड़ में ।।२३८।
देहादि में अणुमात्र मूच्छा रहे यदि तो नियम से ।
वह सर्व आगम धर भले हो सिद्धि वह पाता नहीं ॥२३९॥
अनारंभी त्याग विषयविरक्त और कषायक्षय ।
ही तपोधन संत का सम्पूर्ण: संयम कहा ।।३५।।
तीन गुप्ति पाँच समिति सहित पंचेद्रियजयी ।
ज्ञानदर्शन माय श्रमण ही जितकषायी संयमी।२४०।।
कांच-कंचन बन्धु-अरि सुख-दु:ख प्रशंसा-निन्द में।
शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में।२४?।
ज्ञानदर्शन चरण में युगपत सदा आरूढ़ हो ।
एकाग्रता को प्राप्त यति श्रामण्य से परिपूर्ण हैं ।।२४२।।
अज्ञानि परद्रव्याश्रयी हो मुग्ध राग-द्वेष भय।
जो श्रमण वह ही बाँधता है विविध विध के कर्म सब ॥२४३।।
मोहित न हो जो लोक में अर राग-द्वेष नहीं करें।
वे श्रमण ही नियम से क्षय करें विध-विध कर्म सब।।२४४।।

• आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ३५

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