प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

चरणानुयोग सूचक चूलिका महाधिकार

आचरणप्रज्ञापनाधिकार

हे भव्यजन ! यदि भवदुखों से मुक्त होना चाहते।
परमेष्ठियों को कर नमन श्रामण्य को धारण करो ।।२०१।।
वृद्धजन तिय-पुत्र-बंधुवर्ग से ले अनुमति ।
वीर्य-दर्शन-ज्ञान-तप-चारित्र अंगीकार कर ।।२०२।।
रूप कुल वयवान गुणमय श्रमणजन को इष्ट जो ।
ऐसे गाने को नमन करके शरण ले अनुग्रहित हो ।।२०३।।
रे दूसरों का मैं नहीं ना दूसरे मेरे रहे।
संकल्प क्र हो जितेन्द्रिय नग्नता को धारण करें ।।२०४।।
शृंगार अर हिंसा रहित अर केश लुंचन अकिंचन ।
यथाजातस्वरूप ही जिनवरकथित बहिर्लिंग है ।।२०५।।
आरंभ-मूर्छा से रहित पर की अपेक्षा से रहित ।
शुधयोग अरउपयोगसेजिनकथित अंतर लिंग है।।२०६।।युग्मं ।।
जो परम गुरु नाम लिंग दोनों प्राप्त करें व्रत करें।
आत्महित वे श्रमण ही बस यथायोग्य क्या करें ।।२०७।।
व्रत समिति इन्द्रिय रोध लुंचन अचेलक अस्नान व्रत ।
ना दन्त-धावन क्षिति-शयन अरे खड़े हो भोजन करें ।।२०८।।
दिन में करें इकबार ही ये मूलगुण जानवर कहें।
इनमें रहे नित लीजो छेदोपथापक श्रमण वह ।।२०९।।युग्मम् ।
दीक्षा समय जो दें प्रव्रज्या वे गुरु दो भेदयुत ।
छेदोपथापक श्रमण हैं अर शेष सब नियापका ।।२१०।।
यदि यत्नपूर्वक रहें पर देहिक क्रिया में छेद हो ।
आलोचना द्वारा अरे उसका करें परिमार्जन ।।२११।।
किन्तु यदि यति छेद में उपयुक्त होकर भ्रष्ट हों ।
तो योग्य गुरु के मार्गदर्शन में करें आलोचना ।।२१२।।युग्मं ।।
हे श्रमणजन! अधिवास में या विवास में बसते है ।
प्रतिबंध के परिवार पूर्व छेद विरहित ही रहो ।।२१३।।
रे ज्ञान-दर्शन में सदा प्रतिबद्ध एवं मूल गुण।
जो यत्नत: पालन करें बस हैं वही पूरण श्रमण ।।२१४।।
आवास में उपवास में आहार विकथा उपधि में
श्रमण व बिहार में प्रतिबंध न चाहें श्रमण ।।२१५।।
शयन आसन खड़े रहना गमन अधिक क्रिया में ।
यदि अयत्नाचार है तो सदा हिंसा जानना ।।२१६।।
प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से।
तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से ।।२१७।।
हो गमन या समिति से पर पैर के संयोग से।
हों जीव बाधित या मरण हो फिर भी उनके योग से।।१५।*
ना बंध हो उस निमित से ऐसा कहा जैन शास्त्र में ।
क्योंकि मुच्छ परिग्रह अध्यात्म के आधार में।।१६।।युग्मं ।।
जलकमलवत निर्लेप हैं जो रहें यत्नाचार से ।
पर अयत्नाचारि तो षट्काय के हिंसक कहे ।।२१८।।
बंध हो या न भी हो जिय मरे तन की क्रिया से ।
पर परिग्रह से बंध हो बस उसे छोड़े श्रमणजन ।।२१९।।
यदि भिक्षु के निरपेक्ष न हो त्याग तो शुद्धि न हो।
तो कर्मक्षय हो किसतरह अविशुद्ध भावों से कहो ।।२२०।।
वस्त्र वर्तन यति रखें यदि यह किसी के सूत्र में ।
ही कहा हो तो बताओ यति निरारंभी किसतरह ।१७।*
रे वस्त्र बर्तन आदि को जो ग्रहण करता है श्रमण ।
नित चित्त में विक्षेप प्राणारंभ नित उसके रहे ।।१८।"
यदि वस्त्र वर्तन ग्रहे धोवे सुखावे रक्षा करें।
खो न जावे डर सतावे सतत ही उस श्रमण को ।१९।*
उपधि के सद्भाव में आरंभ मुछ्छा असंयम ।
हो फिर कहो परद्रव्यरत निज आत्म साधे किसतरह ।।२२१।।
छेद न हो जिसतरह आहार लेवे उसी तरह।
हो विसर्जन बिहार का भी क्षेत्र काल विचार कर ।।२२२।।
मूछ्छांदि उत्पादन रहित चाहे जिसे न असंयमी।
अत्यल्प हो ऐसी उपधि ही अनिंदित अनिषिद्ध है ।।२२३।।
जब देह भी है परिग्रह उसको सजाना उचित ना।
तो किसतरह हो अन्य सब जिनदेव ने ऐसा कहा ।।२२४।।
लोक अर परलोक से निरपेक्ष है जब यह धर्म ।
पृथक् से तब क्यों कहा है नारियों के लिंग को ।।२०।।*
नारियों को उसी भव में मोक्ष होता ही नहीं।
आवरणयुत लिंग उनको इसलिए ही कहा है।२१।*
प्रकृतिजन्य प्रमादमय होती है उनकी परिणति ।
प्रमद बिहुला नारियों को इसलिए प्रमदा कहा।२२।*
नारियों के हृदय में हो मोह द्वेष भय घृणा।
माया अनेकप्रकार की बस इसलिए निर्वाण न ।२३ ।"
एक भी है दोष ना जो नारियों में नहीं हो।
अंग भी ना ढके हैं अतएव आवरणी कही ।।२४।।
चित्त चंचल शिथिल तन अर रक्त आवे अचानक ।
और उनके सूक्ष्म मानव सदा ही उत्पन्न हो ।।२५।*
योनि नाभि काँख एवं स्तनों के मध्य में ।
सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते रहें उनके नित्य ही।।२६।*
अरे दर्शन शुद्ध अर सूत्र अध्ययन भी करें।
घोर चारित्र आचरे पर ना नारियों के निर्जरा ।।२७।।’
इसलिए उनके लिंग को बस सपट ही जानवर कहा।
कुलरूप वययुत विज्ञ श्रमणी कही जाती आर्यिका।।२८*
त्रिवर्णी नीरोग तप के योग्य वय से युक्त हों।
सुमुख निन्दा रहित नर ही दीक्षा के योग्य हैं ।।२९।।
रत्नत्रय का नाश ही है भंग जानवर ने कहा।
भंगयुत हो श्रमण तो सल्लेखना के योग्य न।।३०।*
जन्मते शिशुसम नगन तन विनय अर गुरु के वचन ।
आगम पठन हैं उपकरण जिनमार्ग का ऐसा कथन ।।२२५।।
इहलोक से निरपेक्ष यति परलोक से प्रतिबद्ध ना।
अर कषायों से रहित युक्ताहार और विहार में ।।२२६।।
चार विकथा कषाय और इन्द्रियों के विषय में ।
रत श्रमण निद्रा-नेह में प्रमत्त होता है श्रमण ।।३१।।
अरे भिक्षा मुनिवरों की ऐसणा से रहित हो।
वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ।।२२७।।
तनमात्र ही है परिग्रह ममता नहीं है देह में।
शृंगार बिन शक्ति पाये बिना तप में जोड़ते।।२२८॥
इकबार भिक्षाचरण से जैसा मिले मधु-मांस बिन।
अधपेट दिन में ले श्रमण बस यही युक्ताहार है।।२२९।।
पकते हुए अर पके कच्चे माँस में उस जाति के ।
सदा ही उत्पन्न होते हैं निगोदी जीव वस।।३२।।
जो पके कच्चे माँस को खावें छुयें वे नारी-नर ।
जीवजन्तु करोड़ों को मारते हैं निरन्तर ।।३३।।
जिनागम अविरुद्ध जो आहार होवे हस्तगत ।
नहीं देवे दूसरों को दे तो प्रायश्चित योग्य है। ३४।
मूल का न छेद हो इस तरह अपने योग्य ही।
वृद्ध बालक श्रान्त रोगी आचरण धारण करें ।।२३०।।
श्रमण श्रम क्षमता उपाधि लख देश एवं काल को।
जानकर वर्तन करे तो अल्पलेपी जानिये ।।२३१।।

**आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १५-३४

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