लघु बोध कथाएं - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen

एकान्त और मौन

रघुराज पूजा-पाठ, स्वाध्याय दानादि तो करता था ,परन्तु दिनभर, व्यापारादि की व्यस्तता रहती। रात्रि में मनोरंजन के नाम पर घूमता, टी.वी. देखता, मित्रों के साथ इधर-उधर की बातें करता ; अतः उसके मन में अशान्ति बनी रहती।

एक दिन उसने एक अत्यन्त संतोषी, धैर्यवान, शान्तचित वाले साधर्मी विनयजी से उपाय पूछा। उन्होंने कहा -“व्यापारादि सीमित करो। टी.वी. देखना और विकथाएँ भी छोड़ो। इनसे मन थकता है और विकृत होता है। बाहर के अनेक प्रसंगों की जानकारी होने से स्वयं की कषायें निमित्त पाकर जाग्रत होती हैं।”
फिर उसने कहा -"थोड़ी देर एकान्त और मौन आवश्यक है। इससे परपदार्थों से उपयोग टूटता हैं और तत्त्वचिंतन और आत्म-निरीक्षण के लिए अवसर मिलता है। "
एकत्व ही आत्मा का स्वरुप है और सौन्दर्य भी; अतः आत्मीक ज्ञान और आनन्द की उपलब्धि के लिए, एकाकी जीवन और मौन एक पात्रता ही समझो।
स्वाध्याय के माध्यम से हम जो सीखते हैं, उसका ऊहापोह, निर्णय और चिन्तन होने पर ही वह सीखना सार्थक होता है। साधकों का जीवन प्रायः मौनरुप ही रहता है। वे बाहर से अपने उपयोग को समेटते हुए, अन्तर्मुख उपयोग में सहज अपने स्वरुप की प्राप्ति कर लेते हैं।
उस व्यक्ति ने जब यह प्रयोग किया, तब स्वयं शांति मिलने लगी। बाहर से विरक्तता आती गयी और एक दिन वह निवृत्त होकर, चला ही गया साधना के मार्ग पर।
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