लघु बोध कथाएं - ब्र. रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Laghu Bodh Kathayen
स्वाध्याय
पुरुषार्थ
एक आलसी व्यक्ति रास्ते में लुटेरों के भय से भयभीत, श्मशान में बने एक मंदिर में पहुँचा और दीनतापूर्वक बोला - “हे प्रभो ! रक्षा करो।”
वहाँ रहने वाले एक देव को दया आ गई गयी उसने कहा - “मंदिर के किवाड़ लगा ले।”
व्यक्ति - “भय के कारण मेरी हिम्मत किवाड़ लगाने की नहीं हो रही।”
देव - “अच्छा कोई आये तो जोर से हुँकार देना।”
व्यक्ति - “मेरी जीह्वा में शक्ति नहीं रही। "
देव - “मात्र सामने देखते रहना।”
व्यक्ति - “मेरी आँखे ही नहीं खुल पा रही।”
देव - “अच्छा ! जाओ वेदी के पीछे छिप जाओ।”
व्यक्ति - “मेरे पैर आगे नहीं बढ़ रहे।”
देव - " (क्रोध सहित ) निकल जा यहाँ से, तुझ जैसे पुरुषार्थहीन की रक्षा नहीं हो सकती।”
सच है ! भगवान भी दुःख से छूटकर सुखी होने का मार्ग बताते हैं। समझ कर श्रद्धान एवं आचरण तो स्वयं के पुरुषार्थ से ही होगा।
कृतज्ञता
कषाय की विचित्रता
उन्होंने उसे वैराग्यपूर्ण धर्म का उपदेश दिया, जिससे वह स्त्री विरक्त हो गयी।
- शील में दृढ़ रहें।
- कपट कदापि न करें।
- दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर, निर्दोषता पूर्वक आगे बढ़ें।
"दुर्व्यसनों के त्याग बिना आर्थिक समृद्धि भी क्लेश और पतन का कारण बन जाती है।"
युक्ति एवं धैर्य
विपत्ति में रोना उपाय नहीं है। धैर्य ,साहस एवं युक्तिपूर्वक परिस्थिति का सामना करना चाहिए।
प्रेरणा
संतोषवृत्ति
सत्यनिष्ठा
ईमानदारी
ठीक ही कहा है -"धन तो पुण्य के उदय से बहुत से लोगों को मिल जाता है, परन्तु जो उसका सदुपयोग कर लें वे प्रसन्न भी रहते हैं और प्रशंसनीय भी होते हैं। "
चोरी भी हिंसा है
सत्य ही कहा है -
१.चोरी करना हिंसा करने जैसा ही पाप है।
२. पाप के उदय में सहाय का निमित्त नहीं बनता।
३. मोह ही दुःख का कारण है।
४. मोह के नाश के लिए सत्समागम और ज्ञानाभ्यास करना चाहिए।
सादा भोजन
नारियल जैसा
परिणामों का फल
एकान्त और मौन
संतोष और विवेक
व्यर्थ हैं विकल्प
एक व्यक्ति को व्यर्थ वस्तु खोजने का विकल्प आ गया। उसने सोचा-“मिट्टी व्यर्थ है।”
मिट्टी बोली-“मेरे बिना तो जनजीवन की कल्पना ही नहीं हो सकती। रहने का स्थान-धरती है। खाद्य-सामग्री खेतों और बागों में पैदा होती है। धातुएं मिट्टी में से निकलती हैं आदि।”
उसने सोचा कि पत्थर बेकार है। पत्थर बोला-" भवनों, मन्दिरों का निर्माण पत्थरों से ही होता है। आप जिन मूर्तियों की पूजा करते हैं, वे पत्थर से ही निर्मित हैं।"
उसने विचारा कि कूड़ा, विष्टा आदि व्यर्थ है।
उत्तर मिला-" खाद आदि इन्हीं की बनती है।"
प्रकृति में एक से दूसरे पदार्थो का निमित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसी से विश्व की स्थिति है। संसार के कार्य चल रहे हैं। व्यवहार से हर पदार्थ का उपयोग है।
उसने एक साधु से पूछा, तब गम्भीर होते हुए साधु ने कहा-"परपदार्थो में अच्छे-बुरे की कल्पना ही मिथ्या है। व्यर्थ तो हमारे मोह और कषायें हैं, जिनसे न स्वयं को सुख, न दूसरों को सुख। मिथ्या अहंकारादि दुर्भाव स्वयं के लिए दुःख के कारण हैं और इनके वशीभूत होकर होने वाली प्रवृत्तियां, दूसरों के लिए दुःख का निमित्त होती हैं।"
देखा-देखी
ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव जीतने के बाद जैन साहब का विजय जुलूस निकल रहा था। परोपकारी लोकप्रिय होने के कारण महिलायें भी मंगल कलश लिए गीत गा रहीं थी। उधर से जैसे ही जैन साहब का निकलना हुआ कि एक विधवा स्री निकली। उसने देखा तो अपशकुन के भय से वह गली में छिप गयी। जैन साहब ने देख लिया। वे उसके विवेक पर बहुत प्रसन्न हुए। सबको सौ-सौ रुपये और उस स्त्री कोएक हजार रुपये उन्होंने दिलवा दिये।
परस्पर की वार्ता से, यह बात सभी स्त्रियों को जब मालूम पड़ी तो उन्होंने अभिप्राय तो समझा नहीं। ऐसे ही दूसरे प्रसंग पर बहुत स्त्रियाँ सफेद धोती पहन कर खड़ी हो गयी।
जैन साहब ने पूछा -“ऐसा क्यों किया ?”
तब एक स्त्री बोली -"आपको प्रसन्न करके अधिक रुपये पाने के लोभ से। "
तब वे बोले -“मैंने विधवा के विवेक पर खुश होकर उसके सहयोग की भावना से ऐसा किया था। आप लोगों को लोभवश ऐसा करना कदापि उचित नहीं था।”
कार्य करने से पहले भलीप्रकार विचार कर लेना ही हितकर है।
लोभी जौहरी
एक सड़क किनारे स्थित झोपड़ी में सीधा-सा मजदूर रघु, अपने परिवार सहित रहता था। एक दिन उसे जंगल में एक चमकदार पत्थर मिला, जिसे उसने चमक के कारण बच्चे के खेलने के लिए उठा लिया। वास्तव में वह पत्थर नहीं, कीमती हीरा था।
एक दिन दरवाजे पर बच्चा उस हीरे से खेल रहा था। उधर से एक लोभी जौहरी धनपाल निकला। उसने देखकर रघु को बुलाया और वह चमकदार पत्थर, पाँच सौ रुपये में माँगा। इससे वह समझ गया कि यह कोई कीमती रत्न है। उसने कहा पाँच हजार में दूँगा। जौहरी एक हजार, दो, तीन और चार हजार कह कर आगे बढ़ गया। उसने सोचा यहाँ कौन लेगा ? लौट कर आऊँगा,तब अपने आप दे देगा।
होनहार की बात, तभी ईमानदार जौहरी जिनपाल उधर से निकला। उस मजदूर ने उसे वह पत्थर दिखाया। तब उसने दस हजार देकर, उसे उसकी दुकान पर आने की कह कर, वह हीरा ले लिया।
जब उधर से लोभी जौहरी धनपाल वापस आकर पाँच हजार में ही माँगने लगा तब उसने समस्त हाल कहा।अब क्या हो सकता था ? लोभवश ठगने के भाव के कारण वह लाभ से वंचित रहा। जब मजदूर रघु जौहरी जिनपाल की दुकान पर गया तो उन्होंने परख कर, उस हीरे के पचास हजार रुपए ओर दिये।
"असंतुष्ट व्यक्ति प्राप्त अवसर एवं सामग्री का भी सदुपयोग नहीं कर पाता। उसकी वृत्ति पागल कुत्ते की भांति हो जाती है जिसे एक क्षण भी न चैन है और न स्थिरता।"
खाली मन
एक नवयुवक संतोष ने सत्समागम का निमित्त पाकर, ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। दूसरे लोगों को देख-देखकर वह जप,पाठ, पूजा,स्वाध्याय आदि करने लगा, परन्तु उसके मन में यही भाव चलते रहते कि एक सुन्दर और सुविधा युक्त भवन बन जाये। कुछ फण्ड और अन्य आमदनी हो जाये। उसके लिए कुछ धार्मिक आयोजन कर लें।प्रचारक एवं कर्मचारी, गाड़ी आदि साधन हो जायें। विश्व में ख़ूब ख्याति हो जाए; अतः उसके चित्त में शान्ति नहीं थी।
एक दिन वह बाजार से निकल रहा था। मार्ग में पूर्व के परिचित मित्र की दुकान मिली। मित्र ने बुलाया और वह भी स्नेहवश दुकान में भीतर जाकर बैठ गया।उसकी किराने की दुकान में अनेक छोटे-बड़े डिब्बे लगे थे। वहां खाली डिब्बे भी थे। उन्हें देखकर कौतूहलवश उसने पूछा- " इनमें क्या है?"
मित्र ने बताया- “आतमराम है।”
उसने तो ग्रामीण दुकानदारी की भाषा में कहा, परन्तु वह ब्रह्मचारी युवक विचारने लगा कि मित्र ठीक ही तो कह रहा है कि जो खाली होते हैं, उनमें आतमराम होता है। मेरा मन भी जब इन बाह्य विकल्पों से खाली होगा, तभी परमात्मा का ध्यान हो सकेगा।
सचेत होकर वह लग गया बाह्य विकल्पों को छोड़कर,समता की साधना और आत्मा की आराधना में, निस्पृह भाव से। अब उसकी परिणति बदल चुकी थी। संतोष,समता एवं शान्ति उसकी पावन मुद्रा से ही दिखती थी।