दीक्षा के सम्बन्ध में

जैन धर्म के अनुसार पहले शिक्षा होनी चाहिये या दीक्षा
कृपया आगम प्रमाण साथ में दें

तत्त्वज्ञान होना आवश्यक है

मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/264/2 मुनि पद लेनै का क्रम तौ यह है - पहलै तत्त्वज्ञान होय, पीछे उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहनें की शक्ति होय तब वह स्वयमेव मुनि बना चाहै।

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यहाँ तत्वज्ञान से आशय सम्यकज्ञान से है या 7 तत्वों की समझ होने से ?

टोडरमलजी, मात्र सात तत्त्वों के नाम मात्र अथवा उनके विशेष ज्ञान तक ही सीमित रहकर ज्ञान को सम्यकज्ञान कहने वाले विद्वान नही थे, उनका आशय यहाँ सम्यक श्रद्धान पूर्वक सम्यक ज्ञान का ही है।

एक जगह यह पढ़ने को मिला, शायद प्रश्नकर्ता @Vikas13 जी ने भी इसी प्रमाण के आधार पर प्रश्न किया हो, लेकिन वहाँ शिक्षा का और यहां शिक्षा का अर्थ अलग अलग भासित होता है।

  1. दीक्षादि कालों के आगम की अपेक्षा लक्षण
    पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/8यदा कोऽपि चतुर्विधाराधनाभिमुख: सन् पंचाचारोपेतमाचार्यं प्राप्योभयपरिग्रहरहितो भूत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति तदा दीक्षाकाल:, दीक्षानंतरं चतुर्विधाराधनापरिज्ञानार्थमाचाराराधनादिचरणकरणग्रंथशिक्षां गृह्णाति तदा शिक्षाकाल:, शिक्षानंतरं चरणकरणकथितार्थानुष्ठानेन व्याख्यानेन च पंचभावनासहित: सन् शिष्यगणपोषणं करोति तदा गणपोषणकाल:।…गणपोषणानंतरं स्वकीयगणं त्यक्त्वात्मभावनासंस्कारार्थी भूत्वा परगणं गच्छति तदात्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानंतरमाचाराराधनाकथितक्रमेण द्रव्यभावसल्लेखनां करोति तदा सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनांतरं चतुर्विधाराधनाभावनया समाधिविधिना कालं करोति तदा स उत्तमार्थकालश्चेति।=जब कोई मुमुक्षु चतुर्विध आराधना के अभिमुख हुआ, पंचाचार से युक्त आचार्य को प्राप्त करके उभय परिग्रह से रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है तदा दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनंतर चतुर्विध आराधना के ज्ञान के परिज्ञान के लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोग के ग्रंथों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात् चरणानुयोग में कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यान के द्वारा पंचभावनासहित होता हुआ जब शिष्यगण को पोषण करता है तब गणपोषण काल है।…गणपोषण के पश्चात् अपने गण अर्थात् संघ को छोड़कर आत्मभावना के संस्कार का इच्छुक होकर परसंघ को जाता है तब आत्मसंस्कार काल है। आत्मसंस्कार के अनंतर आचाराराधना में कथित क्रम से द्रव्य और भाव सल्लेखना करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखना के उपरांत चार प्रकार की आराधना की भावनारूप समाधि को धारण करता है, वह उत्तमार्थकाल है।

उपर्युक्त शिक्षा का अर्थ है, जिनवाणी का विशेष परिज्ञान, और टोडरमलजी शिक्षा को तत्त्वज्ञान के नाम से बतातें हैं, जोकि पहले ही होगी।

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