(मालिनी)
कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूला-
मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा ।
प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावै-
र्मुकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव ।।२१।।
श्लोकार्थ : — [ये ] जो पुरुष [स्वतः वा अन्यतः वा ] अपने ही अथवा पर के उपदेश से [कथम् अपि हि ] किसी भी प्रकार से [भेदविज्ञानमूलाम् ] भेदविज्ञान जिसका मूल उत्पत्ति कारण है ऐसी अपने आत्मा की [अचलितम् ] अविचल [अनुभूतिम् ] अनुभूति को [लभन्ते ] प्राप्त करते हैं, [ते एव ] वे ही पुरुष [मुकुरवत् ] दर्पण की भांति [प्रतिफ लन-निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः ] अपने में प्रतिबिम्बित हुए अनन्त भावों के स्वभावों से [सन्ततं ] निरन्तर [अविकाराः ] विकाररहित [स्युः ] होते हैं, — ज्ञानमें जो ज्ञेयों के आकार प्रतिभासित होते हैं उनसे रागादि विकार को प्राप्त नहीं होते ।२१।
श्लोकार्थ : — [जगत् ] जगत् अर्थात् जगत् के जीवो ! [आजन्मलीनं मोहम् ] अनादि संसार से लेकर आज तक अनुभव किये गये मोह को [इदानीं त्यजतु ] अब तो छोड़ो और [रसिकानां रोचनं ] रसिकजनों को रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम् ] उदय हुआ जो ज्ञान उसको [रसयतु ] आस्वादन करो; क्योंकि [इह ] इस लोक में [आत्मा ] आत्मा [किल ] वास्तव में [कथम् अपि ] किसीप्रकार भी [अनात्मना साकम् ] अनात्मा (परद्रव्य) के साथ [क्व अपि काले ] कदापि [तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न ] तादात्म्यवृत्ति (एकत्व) को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि [एकः ] आत्मा एक है वह अन्यद्रव्यके साथ एकतारूप नहीं होता ।
भावार्थ : — आत्मा परद्रव्य के साथ किसीप्रकार किसी समय एकता के भाव को प्राप्त नहीं होता । इसप्रकार आचार्यदेव ने, अनादिकाल से परद्रव्य के प्रति लगा हुवा जो मोह है उसका भेदविज्ञान बताया है और प्रेरणा की है कि इस एकत्वरूप मोह को अब छोड़ दो और ज्ञान का आस्वादन करो; मोह वृथा है, झूठा है, दुःख का कारण है ।२२।
श्लोकार्थ : — [अयि ] ‘अयि’ यह कोमल सम्बोधन का सूचक अव्यय है । आचार्यदेव कोमल सम्बोधन से कहते हैं कि हे भाई ! तू [कथम् अपि ] किसीप्रकार महा कष्ट से अथवा [मृत्वा ] मरकर भी [तत्त्वकौतूहली सन् ] तत्त्वों का कौतूहली होकर [मूर्तेः मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव ] इस शरीरादि मूर्त द्रव्य का एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर [अनुभव ] आत्मा का अनुभव कर [अथ येन ] कि जिससे [स्वं विलसन्तं ] अपने आत्मा के विलासरूप को, [पृथक् ] सर्व परद्रव्यों से भिन्न [समालोक्य ] देखकर [मूर्त्या साकम् ] इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य के साथ [एकत्वमोहम् ] एकत्व के मोह को [झगिति त्यजसि ] शीघ्र ही छोड़ देगा ।
भावार्थ : — यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करे (उसमें लीन हो), परीषह के आने पर भी डिगे नहीं, तो घातियाकर्म का नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके, मोक्ष को प्राप्त हो । आत्मानुभव की ऐसी महिमा है तब मिथ्यात्व का नाश करके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना तो सुगम है; इसलिये श्री गुरुओं ने प्रधानता से यही उपदेश दिया है ।२३।
(शार्दूलविक्रीडित)
कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये
धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये ।
दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।२४।।
श्लोकार्थ : — [ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः ] वे तीर्थंकर-आचार्य वन्दनीय हैं । कैसे हैं वे ? [ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति ] अपने शरीर की कान्तिसे दसों दिशाओं को धोते हैं — निर्मल करते हैं, [ये धाम्ना उद्दाम-महस्विनां धाम निरुन्धन्ति ] अपने तेज से उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादि के तेज को ढक देते हैं, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति ] अपने रूप से लोगों के मन को हर लेते हैं, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः ] दिव्यध्वनिसे (भव्योंके) कानों में साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [अष्टसहस्रलक्षणधराः ] एक हजार आठ लक्षणों के धारक हैं ।२४।
(आर्या)
प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् ।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ।।२५।।
श्लोकार्थ : — [इदं नगरम् हि ] यह नगर ऐसा है कि जिसने [प्राकार-कवलित-अम्बरम् ] कोट के द्वारा आकाश को ग्रसित कर रखा है (अर्थात् इसका कोट बहुत ऊँचा है), [उपवन-राजी-निर्गीर्ण-भूमितलम् ] बगीचों की पंक्तियों से जिसने भूमितल को निगल लिया है (अर्थात् चारों ओर बगीचों से पृथ्वी ढक गई है) और [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव ] कोट के चारों ओर की खाई के घेरे से मानों पाताल को पी रहा है (अर्थात् खाई बहुत गहरी है) ।२५।
श्लोकार्थ : — [जिनेन्द्ररूपं परं जयति ] जिनेन्द्र का रूप उत्कृष्टतया जयवन्त वर्तता है,[नित्यम्-अविकार-सुस्थित-सर्वांगम् ] जिसमें सभी अंग सदा अविकार और सुस्थित हैं, [अपूर्व-सहज-लावण्यम् ] जिसमें (जन्म से ही) अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है (जो सर्वप्रिय है) और [समुद्रं इव अक्षोभम् ] जो समुद्रकी भांति क्षोभरहित है, चलाचल नहीं है ।२६।
(शार्दूलविक्रीडित)
एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चया-
न्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः ।
स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे-
न्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः ।।२७।।
श्लोकार्थ : — [कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं ] शरीर और आत्मा के व्यवहारनयसे एकत्व है, [तु पुनः ] किन्तु [ निश्चयात् न ] निश्चयनय से नहीं है; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति ] इसलिए शरीर के स्तवन से आत्मा-पुरुष का स्तवन व्यवहारनय से हुआ कहलाता है, [तत्त्वतः तत् न ] निश्चयनय से नहीं; [निश्चयतः ] निश्चय से तो [चित्स्तुत्या एव ] चैतन्य के स्तवन से ही [चितः स्तोत्रं भवति ] चैतन्य का स्तवन होता है । [सा एवं भवेत् ] उस चैतन्य का स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह — इत्यादिरूप से कहा वैसा है । [अतः तीर्थकरस्तवोत्तरबलात् ] अज्ञानी ने तीर्थंकर के स्तवन का जो प्रश्न किया था, उसका इसप्रकार नयविभाग से उत्तर दिया है; जिसके बल से यह सिद्ध हुआ कि [आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न ] आत्मा और शरीर में निश्चय से एकत्व नहीं है ।२७।
श्लोकार्थ : — [परिचित-तत्त्वैः ] जिन्होंने वस्तु के यथार्थ स्वरूप को परिचयरूप किया है ऐसे मुनियों ने [आत्म-काय-एकतायां ] जब आत्मा और शरीर के एकत्व को [इति नय-विभजन-युक्त्या ] इस प्रकार नयविभाग को युक्ति के द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम् ] जड़मूल से उखाड़ फेंका है — उसका अत्यन्त निषेध किया है, तब अपने [स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फुटन् एकः एव ] निजरस के वेग से आकृष्ट हुए प्रगट होनेवाले एक स्वरूप होकर [कस्य ] किस पुरुष को वह [बोधः ] ज्ञान [अद्य एव ] तत्काल ही [बोधं ] यथार्थपने को [न अवतरति ] प्राप्त न होगा ? अवश्य ही होगा ।
भावार्थ : — निश्चय-व्यवहारनय के विभाग से आत्मा और पर का अत्यन्त भेद बताया है; उसे जानकर, ऐसा कौन पुरुष है जिसे भेदज्ञान न हो ? होता ही है; क्योंकि जब ज्ञान अपने स्वरस से स्वयं अपने स्वरूप को जानता है, तब अवश्य ही वह ज्ञान अपने आत्मा को परसे भिन्न ही बतलाता है । कोई दीर्घ संसारी ही हो तो उसकी यहाँ कोई बात नहीं है ।२८।
श्लोकार्थ : — [अपर-भाव-त्याग-दृष्टान्त-दृष्टिः ] यह परभाव के त्याग के दृष्टान्तकी दृष्टि, [अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति ] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यन्त वेग से जब तक प्रवृत्ति को प्राप्त न हो, [तावत् ] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [सकल-भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता ] सकल अन्यभावों से रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो [आविर्बभूव ] प्रगट हो जाती है ।
भावार्थ : — यह परभाव के त्याग का दृष्टान्त कहा उस पर दृष्टि पड़े उससे पूर्व, समस्त अन्य भावोंसे रहित अपने स्वरूप का अनुभव तो तत्काल हो गया; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि वस्तु को पर की जान लेने के बाद ममत्व नहीं रहता ।२९।
श्लोकार्थ : — [इह ] इस लोक में [अहं ] मैं [स्वयं ] स्वतः ही [एकं स्वं ] अपने एक आत्मस्वरूप का [चेतये ] अनुभव करता हूँ [सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं ] कि जो स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्य के परिणमन से पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसलिये यह [मोहः ] मोह [मम ] मेरा [कश्चन नास्ति नास्ति ] कुछ भी नहीं लगता नहीं लगता अर्थात् इसका और मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है । [शुद्ध-चिद्-घन-महः-निधिः अस्मि ] मैं तो शुद्ध चैतन्य के समूहरूप तेजपुंज का निधि हूँ । (भाव्य-भावक के भेद से ऐसा अनुभव करे ।) ।३०।