समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(शार्दूलविक्रीडित)
मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यत्-
मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः ।
विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं
ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ।।१११।।


अब कर्म और ज्ञान का नयविभाग बतलाते हैं : —

श्लोकार्थ : — [कर्मनयावलम्बनपराः मग्नाः ] कर्मनय के आलम्बन में तत्पर [अर्थात्(कर्मनय के पक्षपाती)] पुरुष डूबे हुए हैं, [यत् ] क्योंकि [ज्ञानं न जानन्ति ] वे ज्ञान को नहीं जानते । [ज्ञाननय-एषिणः अपि मग्नाः ] ज्ञाननय के इच्छुक (पक्षपाती) पुरुष भी डूबे हुए हैं, [यत् ] क्योंकि [अतिस्वच्छन्दमन्द-उद्यमाः ] वे स्वच्छंदता से अत्यन्त मन्द-उद्यमी हैं ( – वे स्वरूप प्राप्ति का पुरुषार्थ नहीं करते, प्रमादी हैं और विषय कषाय में वर्तते हैं) । [ते विश्वस्य उपरि तरन्ति ] वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं [ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः कर्म न कुर्वन्ति ] जो कि स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए – परिणमते हुए कर्म नहीं करते [च ] और [जातु प्रमादस्य वशं न यान्ति ] कभी भी प्रमादवश भी नहीं होते ( – स्वरूप में उद्यमी रहते हैं) ।

भावार्थ :- यहाँ सर्वथा एकान्त अभिप्राय का निषेध किया है, क्योंकि सर्वथा एकान्त अभिप्राय ही मिथ्यात्व है।
कितने ही लोग परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्मा को तो जानते नहीं और व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप क्रिया-कांड के आडम्बर को मोक्ष का कारण जानकर उसमें तत्पर रहते हैं — उसका पक्षपात करते हैं । ऐसे कर्मनय के पक्षपाती लोग — जो कि ज्ञान को तो नहीं जानते और कर्मनय में ही खेदखिन्न हैं वे — संसार में डूबते हैं।और कितने ही लोग आत्मस्वरूप को यथार्थ नहीं जानते तथा सर्वथा एकान्तवादी मिथ्यादृष्टियों के उपदेश से अथवा अपने आप ही अन्तरंग में ज्ञान का स्वरूप मिथ्या प्रकार से कल्पित करके उसमें पक्षपात करते हैं। वे अपनी परिणति में किंचित्मात्र भी परिवर्तन हुए बिना अपने को सर्वथा अबन्ध मानते हैं और व्यवहार दर्शन- ज्ञान- चारित्र के क्रियाकाण्ड को निरर्थक जानकर छोड़ देते हैं । ऐसे ज्ञाननय के पक्षपाती लोग जो कि स्वरूप का कोई पुरुषार्थ नहीं करते और शुभपरिणामों को छोड़कर स्वच्छंदी होकर विषय-कषाय में वर्तते हैं वे भी संसारसमुद्र में डूबते हैं।
मोक्षमार्गी जीव ज्ञानरूप परिणमित होते हुए शुभाशुभ कर्म को (अर्थात शुभाशुभभावो को) हेय जानते हैं और शुद्धपरिणति को ही उपादेय जानते हैं । वे मात्र अशुभ कर्म को ही नहीं, किन्तु शुभ कर्म को भी छोड़कर, स्वरूप में स्थिर होने के लिये निरन्तर उद्यमी रहते हैं — वे सम्पूर्ण स्वरूपस्थिरत होने तक उसका पुरुषार्थ करते ही रहते हैं । जब तक,पुरुषार्थ की अपूर्णता के कारण, शुभाशुभ परिणामों से छूटकर स्वरूप में सम्पूर्णतया स्थिर नहीं हुआ जा सकता तब तक – यद्यपि स्वरूपस्थिरता का आन्तरिक-आलम्बन (अन्तःसाधन) तो शुद्ध परिणति स्वयं ही है तथापि — आन्तरिक आलम्बन लेने वाले को जो बाह्य आलम्बनरूप कहे जाते हैं ऐसे (शुद्ध स्वरूप के विचार आदि) शुभ परिणामों में वे जीव हेयबुद्धि से प्रवर्तते हैं, किन्तु शुभकर्मों को निरर्थक मानकर तथा छोड़कर स्वच्छन्दतया अशुभ कर्मों में प्रवृत्त होने की बुद्धि उन्हें कभी नहीं होती । ऐसे एकान्त अभिप्रायरहित जीव कर्म का नाश करके, संसार से निवृत्त होते है।१११।

(मन्दाक्रान्ता)
भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयत्पीतमोहं
मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन ।
हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि
ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ।।११२।।


श्लोकार्थ : — [पीतमोहं ] मोहरूपी मदिरा के पीने से [भ्रम-रस-भरात् भेदोन्मादं नाटयत् ]भ्रमरस के भार से (अतिशयपने से) शुभाशुभ कर्म के भेदरूपी उन्माद को जो नचाता है [तत् सक लम् अपि कर्म ] ऐसे समस्त कर्म को [बलेन ] अपने बल द्वारा [मूलोन्मूलं कृत्वा ] समूल उखाडकर [ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे ] ज्ञानज्योति अत्यन्त सामर्थ्य सहित प्रगट हुई । वह ज्ञानज्योति ऐसी है कि [क वलिततमः ] जिसने अज्ञानरूपी अंधकार का ग्रास कर लिया है अर्थात् जिसने अज्ञानरूप अंधकार का नाश कर दिया है, [हेला-उन्मिलत् ] जो लीलामात्र से ( – सहज पुरुषार्थ से) विकसित होती जाती है और [परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि ] जिसने परम कला अर्थात् केवलज्ञान के साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की है (जब तक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तब तक ज्ञानज्योति केवलज्ञान के साथ शुद्धनय के बल से परोक्ष क्रीड़ा करती है, केवलज्ञान होने पर साक्षात् होती है ।)

भावार्थ : — आपको (ज्ञानज्योति को) प्रतिबन्धक कर्म जो कि शुभाशुभ भेदरूप होकर नाचता था और ज्ञान को भुला देता था उसे अपनी शक्ति से उखाड़कर ज्ञानज्योति सम्पूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित हुई । वह ज्ञानज्योति अथवा ज्ञानकला केवलज्ञानरूप परमकला का अंश है तथा केवलज्ञान के सम्पूर्ण स्वरूप को वह जानती है और उस ओर प्रगति करती है, इसलिये यह कहा है कि ‘ज्ञानज्योति ने केवलज्ञान के साथ क्रीड़ा प्रारंभ की है’ । ज्ञानकला सहजरूप से विकास को प्राप्त होती जाती है और अन्त में परमकला अर्थात् केवलज्ञान हो जाती है ।११२।

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