समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(रथोद्धता)
इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत्
पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः ।
यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं
कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ।।९१।।

श्लोकार्थ : —[पुष्कल-उत्-चल-विकल्प-वीचिभिः उच्छलत् ] विपुल, महान, चञ्चल विकल्परूपी तरंगों के द्वारा उठते हुए [इद्म् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम् ] इस समस्त इन्द्रजाल को [यस्य विस्फु रणम् एव ] जिसका स्फुरण मात्र ही [तत्क्षणं ] तत्क्षण [अस्यति ] उड़ा देता है [तत् चिन्महः अस्मि ] वह चिन्मात्र तेजःपुञ्ज मैं हूँ ।

भावार्थ : — चैतन्य का अनुभव होने पर समस्त नयों के विकल्परूपी इन्द्रजाल उसी क्षण विलय को प्राप्त होता है; ऐसा चित्प्रकाश मैं हूँ ।९१।

(स्वागता)
चित्स्वभावभरभावितभावा-
भावभावपरमार्थतयैकम् ।
बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां
चेतये समयसारमपारम् ।।९२।।


श्लोकार्थ : — [चित्स्वभाव-भर-भावित-भाव-अभाव-भाव-परमार्थतया एकम् ] चित्- स्वभाव के पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किये जाते हैं — ऐसा जिसका परमार्थ स्वरूप है, इसलिये जो एक है ऐसे [अपारम् समयसारम् ] अपार समयसार को मैं, [समस्तां बन्धपद्धतिम् ] समस्त बन्धपद्धति को [अपास्य ] दूर करके अर्थात् कर्मोदय से होनेवाले सर्व भावों को छोड़कर, [चेतये] अनुभव करता हूँ ।

भावार्थ : — निर्विकल्प अनुभव होने पर, जिसके केवलज्ञानादि गुणों का पार नहीं है ऐसे समयसाररूपी परमात्मा का अनुभव ही वर्तता है, ‘मैं अनुभव करता हूँ ’ ऐसा भी विकल्प नहीं होता — ऐसा जानना ।९२।

(शार्दूलविक्रीडित)
आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।।९३।।


श्लोकार्थ : — [नयानां पक्षैः विना ] नयों के पक्षों के रहित, [अचलं अविकल्पभावम् ] अचल निर्विकल्पभाव को [आक्रामन् ] प्राप्त होता हुआ [यः समयस्य सारः भाति ] जो समय का (आत्मा का) सार प्रकाशित होता है [सः एषः ] वह यह समयसार (शुद्ध आत्मा) — [निभृतैः स्वयम् आस्वाद्यमानः ] जो कि निभृत (निश्चल, आत्मलीन) पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है ( – अनुभव में आता है) वह — [विज्ञान-एक-रसः भगवान् ] विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, [पुण्यः पुराणः पुमान् ] पवित्र पुराण पुरुष है; चाहे [ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं ] ज्ञान कहो या दर्शन वह यह (समयसार) ही है; [अथवा किम् ] अथवा अधिक क्या कहें? [यत् किंचन अपि अयम् एकः ] जो कुछ है सो यह एक ही है ( – मात्र भिन्न-भिन्न नाम से कहा जाता है) ।९३।

(शार्दूलविक्रीडित)
दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् ।
विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।।९४।।


श्लोकार्थ : — [तोयवत् ] जैसे पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो उसे दूर से ही ढालवाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये; तो फिर वह पानी, पानी को पानी के समूह की ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूह में आ मिलता है; इसीप्रकार [अयं ] यह आत्मा [निज-ओघात् च्युतः ] अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर [भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर परिभ्रमण कर रहा था उसे [दूरात् एव ] दूरसे ही [विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा [निज-ओघं बलात् नीतः ] अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिए [तद्-एक-रसिनाम् ] केवल विज्ञानघन के ही रसिक पुरुषों को [विज्ञान-एक-रसः आत्मा ] जो एक विज्ञानरसवाला ही अनुभव में आता है ऐसा वह आत्मा, [आत्मानम् आत्मनि एव आहरन् ] आत्मा को आत्मा में ही खींचता हुआ (अर्थात् ज्ञान ज्ञान को खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर), [सदा गतानुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है ।

भावार्थ : — जैसे पानी, अपने (पानी के) निवासस्थल से किसी मार्ग से बाहर निकलकर वन में अनेक स्थानों पर बह निकले; और फिर किसी ढालवाले मार्ग द्वारा, ज्योंका त्यों अपने निवास-स्थान में आ मिले; इसीप्रकार आत्मा भी मिथ्यात्व के मार्ग से स्वभाव से बाहर निकलकर विकल्पों के वन में भ्रमण करता हुआ किसी भेदज्ञानरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा स्वयं ही अपने को खींचता हुआ अपने विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है ।९४।

(अनुष्टुभ्)
विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम् ।
न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ।।९५।।


श्लोकार्थ : — [विकल्पकः परं कर्ता ] विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और [विकल्पः केवलम् कर्म ] विकल्प ही केवल कर्म है; (अन्य कोई कर्ता-कर्म नहीं है;) [सविकल्पस्य ] जो जीव विकल्पसहित है उसका [कर्तृकर्मत्वं ] कर्ताकर्मपना [जातु ] कभी [नश्यति न ]नष्ट नहीं होता ।

भावार्थ : — जब तक विकल्पभाव है तब तक कर्ता-कर्मभाव है; जब विकल्प का अभाव हो जाता है तब कर्ता-कर्मभाव का भी अभाव हो जाता है ।९५।

(रथोद्धता)
यः करोति स करोति केवलं
यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् ।
यः करोति न हि वेत्ति स क्वचित्
यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।।९६।।

श्लोकार्थ : — [यः करोति सः केवलं करोति ] जो करता है सो केवल करता ही है [तु ] और [यः वेत्ति सः तु केवलम् वेत्ति ] जो जानता है सो केवल जानता ही है; [यः करोति सः क्वचित् न हि वेत्ति ] जो करता है वह कभी जानता नहीं [तु ] और [यः वेत्ति सः क्वचित् न करोति ] जो जानता है वह कभी करता नहीं ।

भावार्थ : — जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं ।९६।

(इन्द्रवज्रा)
ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः
ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः ।
ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने
ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ।।९७।।


श्लोकार्थ : — [करोतौ अन्तः ज्ञप्तिः न हि भासते ] करनेरूप क्रिया के भीतर जानने रूप क्रिया भासित नहीं होती [च ] और [ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते ] जानने रूप क्रिया के भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती; [ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने ] इसलिये ‘ज्ञप्तिक्रिया’ और ‘करोति’ क्रिया दोनों भिन्न है; [च ततः इति स्थितं ] और इससे यह सिद्ध हुआ कि [ज्ञाता कर्ता न ] जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ।

भावार्थ : — जब आत्मा इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्य को करता हूँ’ तब तो वह कर्ताभावरूप परिणमन क्रिया के करने से अर्थात् ‘करोति’-क्रिया के करने से कर्ता ही है और जब वह इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको जानता हूँ’ तब ज्ञाताभावरूप परिणमन करने से अर्थात् ज्ञप्तिक्रिया के करने से ज्ञाता ही है ।

यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अविरत-सम्यग्दृष्टि आदि को जब तक चारित्रमोह का उदय रहता है तब तक वह कषायरूप परिणमन करता है, इसलिये उसका वह कर्ता कहलाता है या नहीं ? उसका समाधान : — अविरत-सम्यग्दृष्टि इत्यादि के श्रद्धा-ज्ञान में परद्रव्य के स्वामित्वरूप कर्तृत्व का अभिप्राय नहीं है; जो कषायरूप परिणमन है वह उदय की बलवत्ता के कारण है; वह उसका ज्ञाता है; इसलिये उसके अज्ञान सम्बन्धी कर्तृत्व नहीं है । निमित्त की बलवत्ता से होनेवाले परिणमन का फल किंचित् होता है वह संसार का कारण नहीं है । जैसे वृक्षकी जड़ काट देनेके बाद वह वृक्ष कुछ समय तक रहे अथवा न रहे — प्रतिक्षण उसका नाश ही होता जाता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझना ।९७।

(शार्दूलविक्रीडित)
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि
द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः ।
ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति-
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम् ।।९८।।


श्लोकार्थ : — [कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति ] निश्चय से न तो कर्ता कर्म में है, और न कर्म कर्ता में ही है — [यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते ] यदि इसप्रकार परस्पर दोनों का निषेध किया जाये [तदा कर्तृकर्मस्थितिः का ] तो कर्ता-कर्म की क्या स्थिति होगी ? (अर्थात् जीव-पुद्गल के कर्ताकर्मपन कदापि नहीं हो सकेगा ।) [ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि ] इसप्रकार ज्ञाता सदा ज्ञातामें ही है और कर्म सदा कर्ममें ही है [ इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता] ऐसी वस्तुस्थिति प्रगट है [तथापि बत ] तथापि अरे ! [नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति ] नेपथ्य में यह मोह क्यों अत्यन्त वेगपूर्वक नाच रहा है ? (इसप्रकार आचार्य को खेद और आश्चर्य होता है ।)

भावार्थ : — कर्म तो पुद्गल है, जीवको उसका कर्ता कहना असत्य है । उन दोनोंमें अत्यन्त भेद है, न तो जीव पुद्गलमें है और न पुद्गल जीवमें; तब फि र उनमें कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? इसलिये जीव तो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है, वह पुद्गलकर्मोंका कर्ता नहीं है; और पुद्गलकर्म हैं वे पुद्गल ही हैं, ज्ञाताका कर्म नहीं हैं । आचार्यदेवने खेदपूर्वक कहा है कि — इसप्रकार प्रगट भिन्न द्रव्य हैं तथापि ‘मैं कर्ता हूँ और यह पुद्गल मेरा कर्म है’ इसप्रकार अज्ञानीका यह मोह ( – अज्ञान) क्यों नाच रहा है ? ९८।

(मन्दाक्रान्ता)
कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव
ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि ।
ज्ञानज्योतिर्ज्वलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चै-
श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत् ।।९९।।


श्लोकार्थ : — [अचलं ] अचल, [व्यक्तं ] व्यक्त और [चित्-शक्तिनां निकर-भरतः अत्यन्त-गम्भीरम् ] चित्शक्तियों के ( – ज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों के) समूह के भार से अत्यन्त गम्भीर [एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति [अन्तः ] अन्तरङ्ग में [उच्चैः ] उग्रता से [तथा ज्वलितम् ] ऐसी जाज्वल्यमान हुई कि — [यथा कर्ता कर्ता न भवति ] आत्मा अज्ञान में कर्ता होता था सो अब वह कर्ता नहीं होता और [कर्म कर्म अपि न एव ] अज्ञान के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप होता था सो वह कर्मरूप नहीं होता; [यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च ] और ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है तथा [पुद्गलः पुद्गलः अपि ] पुद्गल पुद्गलरूप ही रहता है ।

भावार्थ : — जब आत्मा ज्ञानी होता है तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणमित होता है, पुद्गलकर्म का कर्ता नहीं होता; और पुद्गल पुद्गल ही रहता है, कर्मरूप परिणमित नहीं होता । इसप्रकार यथार्थ ज्ञान होने पर दोनों द्रव्यों के परिणमन में निमित्तनैमित्तिक भाव नहीं होता । ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टिके होता है ।९९।

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