समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषेण प्रविशतः ।

( मन्दाक्रान्ता )
एकः कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी
इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ।
ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं
साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम् ।।४६।।

श्लोकार्थ : — ‘[इह ] इस लोक में [अहम् चिद् ] मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो [एकः कर्ता ] एक कर्ता हूँ और [अमी कोपादयः ] यह क्रोधादि भाव [मे कर्म ] मेरे कर्म हैं’ [इति अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ] ऐसी अज्ञानियों के जो कर्ताकर्म की प्रवृत्ति है उसे [अभितः शमयत् ] सब ओर से शमन करती हुई ( – मिटाती हुई) [ज्ञानज्योतिः ] ज्ञानज्योति [स्फुरति ] स्फुरायमान होती है । वह ज्ञान-ज्योति [परम-उदात्तम् ] परम उदात्त है अर्थात् किसी के आधीन नहीं है, [अत्यन्तधीरं ] अत्यन्त धीर है अर्थात् किसी भी प्रकार से आकुलतारूप नहीं है और [निरुपधि-पृथग्द्रव्य-निर्भासि ] पर की सहायता के बिना-भिन्न भिन्न द्रव्यों को प्रकाशित करने का उसका स्वभाव है, इसलिये [विश्वम् साक्षात् कुर्वत् ] वह समस्त लोकालोक को साक्षात् करती है — प्रत्यक्ष जानती है ।

भावार्थ : — ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह, परद्रव्य तथा परभावों के कर्तृत्वरूप अज्ञान को दूर करके, स्वयं प्रगट प्रकाशमान होता है ।४६।

(मालिनी)
परपरिणतिमुज्झत् खण्डयद्भेदवादा-
निदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चैः ।
ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्ते-
रिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः ।।४७।।


श्लोकार्थ : — [परपरिणतिम् उज्झत् ] परपरिणति को छोड़ता हुआ, [भेदवादान् खण्डयत् ] भेद के कथनोंको तोड़ता हुआ, [इदम् अखण्डम् उच्चण्डम् ज्ञानम् ] यह अखण्ड और अत्यंत प्रचण्ड ज्ञान [उच्चैः उदितम् ] प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है । [ननु ] अहो ! [इह ] ऐसे ज्ञान में [कर्तृकर्मप्रवृत्तिः ] (परद्रड्डव्यके) कर्ताकर्म की प्रवृत्ति का [कथम् अवकाशः ] अवकाश कैसे हो सकता है ? [वा ] तथा [पौद्गलः कर्मबन्धः ] पौद्गलिक कर्मबंध भी [कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? (कदापि नहीं हो सकता ।)

(ज्ञेयों के निमित्त से तथा क्षयोपशम के विशेष से ज्ञान में जो अनेक खण्डरूप आकार प्रतिभासित होते थे उनसे रहित ज्ञानमात्र आकार अब अनुभव में आया, इसलिये ज्ञान को ‘अखण्ड’ विशेषण दिया है । मतिज्ञानादि जो अनेक भेद कहे जाते थे उन्हें दूर करता हुआ उदय को प्राप्त हुआ है, इसलिये ‘भेद के कथनों को तोड़ता हुआ’ ऐसा कहा है । पर के निमित्त से रागादिरूप परिणमित होता था उस परिणति को छोड़ता हुआ उदय को प्राप्त हुआ है, इसलिये ‘परपरिणति को छोड़ता हुआ’ ऐसा कहा है । पर के निमित्त से रागादिरूप परिणमित नहीं होता, बलवान है इसलिये ‘अत्यन्त प्रचण्ड’ कहा है ।)

भावार्थ : — कर्मबन्ध तो अज्ञान से हुई कर्ताकर्म की प्रवृत्ति से था । अब जब भेदभाव को और परपरिणति को दूर कर के एकाकार ज्ञान प्रगट हुआ तब भेदरूप कारक की प्रवृत्ति मिट गई;तब फिर अब बन्ध किसलिये होगा ? अर्थात् नहीं होगा ।४७।

(शार्दूलविक्रीडित)
इत्येवं विरचय्य सम्प्रति परद्रव्यान्निवृत्तिं परां
स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिघ्नुवानः परम् ।
अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं
ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ।।४८।।


श्लोकार्थ : — [इति एवं ] इसप्रकार पूर्वकथित विधानसे, [सम्प्रति ] अधुना (तत्काल) ही [परद्रव्यात् ] परद्रव्य से [परां निवृत्तिं विरचय्य ] उत्कृष्ट (सर्व प्रकार से) निवृत्ति करके, [विज्ञानघनस्वभावम् परम् स्वं अभयात् आस्तिघ्नुवानः ] विज्ञानघनस्वभावरूप केवल अपने पर निर्भयता से आरूढ होता हुआ अर्थात् अपना आश्रय करता हुआ (अथवा अपने को निःशंकतया आस्तिक्यभाव से स्थिर करता हुआ), [अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशात् ] अज्ञान से उत्पन्न हुई कर्ताकर्म की प्रवृत्ति के अभ्यास से उत्पन्न क्लेश से [निवृत्तः ] निवृत्त हुआ, [स्वयं ज्ञानीभूतः ] स्वयं ज्ञानस्वरूप होता हुआ, [जगतः साक्षी ] जगत का साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा), [पुराणः पुमान् ] पुराण पुरुष (आत्मा) [इतः चकास्ति ] अब यहाँ से प्रकाशमान होता है ।४८।

(शार्दूलविक्रीडित)
व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि
व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः ।
इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिन्दंस्तमो
ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४९।।


श्लोकार्थ : — [व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत् ] व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूप में ही होती है, [अतदात्मनि अपि न एव ] अतत्स्वरूप में नहीं ही होती । और [व्याप्यव्यापकभावसम्भवम् ऋते ] व्याप्यव्यापकभाव के सम्भव बिना [कर्तृकर्मस्थितिः का ] कर्ताकर्म की स्थिति कैसी ? अर्थात् कर्ताकर्म की स्थिति नहीं ही होती । [इति उद्दाम-विवेक-घस्मर-महोभारेण ] ऐसे प्रबल विवेकरूप, और सबको ग्रासीभूत करने के स्वभाववाले ज्ञानप्रकाश के भार से [तमः भिन्दन् ] अज्ञानांधकार को भेदता हुआ, [सः एषः पुमान् ] यह आत्मा [ज्ञानीभूय ] ज्ञानस्वरूप होकर, [तदा ] उस समय [कर्तृत्वशून्यः लसितः ] कर्तृत्वरहित हुआ शोभित होता है।

भावार्थ : — जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त होता है सो तो व्यापक है और कोई एक अवस्थाविशेष वह, (उस व्यापक का) व्याप्य है । इसप्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है । द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ही है । जो द्रव्य का आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है वही पर्याय का आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है । ऐसा होने से द्रव्य पर्याय में व्याप्त होता है और पर्याय द्रव्य के द्वारा व्याप्त हो जाती है । ऐसी व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूप में ही (अभिन्न सत्तावाले पदार्थ में ही) होती है; अतत्स्वरूप में (जिनकी सत्ता – सत्त्व भिन्न-भिन्न है ऐसे पदार्थों में) नहीं ही होती । जहाँ व्याप्यव्यापकभाव होता है वहीं कर्ताकर्मभाव होता है; व्याप्यव्यापकभाव के बिना कर्ताकर्मभाव नहीं होता । जो ऐसा जानता है वह पुद्गल और आत्मा के कर्ताकर्मभाव नहीं है ऐसा जानता है । ऐसा जानने पर वह ज्ञानी होता है, कर्ताकर्मभाव से रहित होता है और ज्ञाताद्रष्टा — जगत का साक्षीभूत — होता है ।४९।

(स्रग्धरा)
ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन्
व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात् ।
अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत्
विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः ।।५०।।

श्लोकार्थ : — [ज्ञानी ] ज्ञानी तो [इमां स्वपरपरिणति ] अपनी और पर की परिणति को [जानन् अपि ] जानता हुआ प्रवर्तता है [च ] और [पुद्गलः अपि अजानन् ] पुद्गलद्रव्य अपनी तथा पर की परिणति को न जानता हुआ प्रवर्तता है; [नित्यम् अत्यन्त-भेदात् ] इसप्रकार उनमें सदा अत्यन्त भेद होने से (दोनों भिन्न द्रव्य होने से), [अन्तः ] वे दोनों परस्पर अन्तरङ्ग में [व्याप्तृव्याप्यत्वम् ] व्याप्यव्यापकभाव को [कलयितुम् असहौ ] प्राप्त होने में असमर्थ हैं । [अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः ] जीव-पुद्गल को कर्ताकर्मभाव है ऐसी भ्रमबुद्धि [अज्ञानात् ] अज्ञान के कारण [तावत् भाति ] वहाँ तक भासित होती है कि [यावत् ] जहाँ तक [विज्ञानार्चिः ] (भेदज्ञान करनेवाली) विज्ञानज्योति [क्रकचवत् अदयं ] करवत्की भाँति निर्दयता से (उग्रतासे) [सद्यः भेदम् उत्पाद्य ] जीव-पुद्गल का तत्काल भेद उत्पन्न कर के [न चकास्ति ] प्रकाशित नहीं होती ।

भावार्थ : — भेदज्ञान होने के बाद, जीव और पुद्गल को कर्ताकर्मभाव है ऐसी बुद्धि नहीं रहती; क्योंकि जब तक भेदज्ञान नहीं होता तब तक अज्ञान से कर्ताकर्मभाव की बुद्धि होती है ।

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