समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(अनुष्टुभ्)
अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् ।
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ।।४१।।


श्लोकार्थ : — [अनादि ] जो अनादि है, [अनन्तम् ] अनन्त है, [अचलं ] अचल है, [स्वसंवेद्यम् ] स्वसंवेद्य है [तु ] और [स्फुटम् ] प्रगट है — ऐसा जो [इदं चैतन्यम् ] यह चैतन्य [उच्चैः ] अत्यन्त [चकचकायते ] चकचकित – प्रकाशित हो रहा है, [स्वयं जीवः ] वह स्वयं ही जीव है ।
भावार्थ : — वर्णादिक और रागादिक भाव जीव नहीं हैं, किन्तु जैसा ऊपर कहा वैसा चैतन्यभाव ही जीव है ।४१।

(शार्दूलविक्रीडित)
वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो
नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः ।
इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा
व्यक्तं व्यंजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम् ।।४२।।


श्लोकार्थ : — [यतः अजीवः अस्ति द्वेधा ] अजीव दो प्रकार के हैं — [वर्णाद्यैः सहितः ]वर्णादिसहित [तथा विरहितः ] और वर्णादिरहित; [ततः ] इसलिये [अमूर्तत्वम् उपास्य ]अमूर्तत्व का आश्रय लेकर भी (अर्थात् अमूर्तत्व को जीव का लक्षण मानकर भी) [जीवस्य तत्त्वं ] जीव के यथार्थ स्वरूप को [जगत् न पश्यति ] जगत् नहीं देख सकता; — [इति आलोच्य ] इसप्रकार परीक्षा करके [विवेचकैः ] भेदज्ञानी पुरुषों ने [न अव्यापि अतिव्यापि वा ] अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दूषणों से रहित [चैतन्यम् ] चेतनत्व को जीव का लक्षण कहा है [समुचितं ] वह योग्य है । [व्यक्तं ] वह चैतन्य लक्षण प्रगट है, [व्यज्जित-जीव-तत्त्वम् ] उसने जीव के यथार्थ स्वरूप को प्रगट किया है और [अचलं ] वह अचल है — चलाचलता रहित, सदा विद्यमान है। [आलम्ब्यताम् ] जगत् उसी का अवलम्बन करो ! (उससे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है।)

भावार्थ : — निश्चय से वर्णादिभाव — वर्णादिभावों में रागादिभाव अन्तर्हित हैं — जीव में कभी व्याप्ति नहीं होते, इसलिये वे निश्चय से जीव के लक्षण हैं ही नहीं; उन्हें व्यवहार से जीव का लक्षण मानने पर भी अव्याप्ति नामक दोष आता है, क्योंकि सिद्ध जीवों में वे भाव व्यवहार से भी व्याप्त नहीं होते । इसलिये वर्णादिभावों का आश्रय लेने से जीव का यथार्थस्वरूप जाना ही नहीं जाता । यद्यपि अमूर्तत्व सर्व जीवोंमें व्याप्त है, तथापि उसे जीवका लक्षण मानने पर अतिव्याप्तिनामक दोष आता है,कारण कि पाँच अजीव द्रव्यों में से एक पुद्गलद्रव्य के अतिरिक्त धर्म,अधर्म, आकाश और काल — ये चार द्रव्य अमूर्त होने से, अमूर्तत्व जीव में व्यापता है वैसे ही चार अजीव द्रव्यों में भी व्यापता है; इसप्रकार अतिव्याप्ति दोष आता है । इसलिये अमूर्तत्व का आश्रय लेने से भी जीव के यथार्थ स्वरूप का ग्रहण नहीं होता । चैतन्यलक्षण सर्व जीवों में व्यापता होने से अव्याप्तिदोष से रहित है, और जीव के अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्य में व्यापता न होने से अतिव्याप्तिदोष से रहित है; और वह प्रगट है; इसलिये उसी का आश्रय ग्रहण करने से जीव के यथार्थ स्वरूप का ग्रहण हो सकता है ।४२।

(वसंततिलका)
जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं
ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम् ।
अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोऽयं
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ।।४३।।


श्लोकार्थ : — [इति लक्षणतः ] यों पूर्वोक्त भिन्न लक्षण के कारण [जीवात् अजीवम् विभिन्नं ] जीव से अजीव भिन्न है [स्वयम् उल्लसन्तम् ] उसे (अजीव को) अपने आप ही (-स्वतन्त्रपने, जीव से भिन्नपने) विलसित हुआ — परिणमित होता हुआ [ज्ञानी जनः ] ज्ञानीजन [अनुभवति ] अनुभव करते हैं, [तत् ] तथापि [अज्ञानिनः ] अज्ञानी को [निरवधि-प्रविजृम्भितः अयं मोहः तु ] अमर्यादरूप से फैला हुआ यह मोह (अर्थात् स्व-परके एकत्व की भ्रान्ति) [कथम् नानटीति ] क्यों नाचता है — [अहो बत ] यह हमें महा-आश्चर्य और खेद है ! ।४३।

(वसन्ततिलका)
अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः ।
रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध-
चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।४४।।

श्लोकार्थ : — [अस्मिन् अनादिनि महति अविवेक-नाट्ये ] इस अनादिकालीन महा अविवेक के नाटक में अथवा नाच में [वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति ] वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, [न अन्यः ] अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञान में पुद्गल ही अनेक प्रकार का दिखाई देता है, जीव तो अनेक प्रकार का नहीं है;) [च ] और [अयं जीवः ] यह जीव तो [रागादि-पुद्गल-विकार-विरुद्ध-शुद्ध-चैतन्यधातुमय-मूर्तिः ] रागादिक पुद्गल-विकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है।

भावार्थ : — रागादिक चिद्विकारों को (-चैतन्यविकारों को) देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही हैं, क्योंकि चैतन्य की सर्वअवस्थाओं में व्याप्त हों तो चैतन्य के कहलायें । रागादि विकार सर्व अवस्थाओं में व्याप्त नहीं होते — मोक्षअवस्था में उनका अभाव है । और उनका अनुभव भी आकुलतामय दुःखरूप है । इसलिये वे चेतन नहीं, जड़ हैं । चैतन्य का अनुभव निराकुल है, वही जीव का स्वभाव है ऐसा जानना ।४४।

( मन्दाक्रान्ता )
इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा
जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः ।
विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्वयक्तचिन्मात्रशक्त्या
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ।।४५।।

श्लोकार्थ : — [इत्थं ] इसप्रकार [ज्ञान-क्रकच-कलना-पाटनं ] ज्ञानरूपी करवत का जो बारम्बार अभ्यास है उसे [नाटयित्वा ] नचाकर [यावत् ] जहाँ [जीवाजीवौ ] जीव और अजीव दोनाें [स्फुट-विघटनं न एव प्रयातः ] प्रगटरूपसे अलग नहीं हुए, [तावत् ] वहाँ तो [ज्ञातृद्रव्यम] ज्ञाता-द्रव्य, [प्रसभ-विकसत्-व्यक्त -चिन्मात्रशक्त्या ] अत्यन्त विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट चिन्मात्रशक्ति से [विश्वं व्याप्य ] विश्व को व्याप्त करके, [स्वयम् ] अपने आप ही [अतिरसात् ] अतिवेग से [उच्चैः ] उग्रतया अर्थात् आत्यन्तिकरूप से [चकाशे ] प्रकाशित हो उठा।

भावार्थ : — इस कलश का आशय दो प्रकार से है:—
उपरोक्त ज्ञान का अभ्यास करते करते जहाँ जीव और अजीव दोनों स्पष्ट भिन्न समझ में आये कि तत्काल ही आत्मा का निर्विकल्प अनुभव हुआ — सम्यग्दर्शन हुआ । (सम्यग्दृष्टि आत्मा श्रुतज्ञान से विश्व के समस्त भावों को संक्षेप से अथवा विस्तार से जानता है और निश्चयसे विश्व को प्रत्यक्ष जानने का उसका स्वभाव है; इसलिये यह कहा कि वह विश्व को जानता है ।) एक आशय तो इसप्रकार है ।
दूसरा आशय इसप्रकार से है : — जीव-अजीव का अनादिकालीन संयोग केवल अलग होने से पूर्व अर्थात् जीव का मोक्ष होने से पूर्व, भेदज्ञान के भाते-भाते अमुक दशा होने पर निर्विकल्प धारा जमीं — जिसमें केवल आत्मा का अनुभव रहा; और वह श्रेणि अत्यन्त वेग से आगे बढ़ते बढ़ते केवलज्ञान प्रगट हुआ । और फिर अघातियाकर्मों का नाश होने पर जीवद्रव्य अजीव से केवल भिन्न हुआ । जीव-अजीव के भिन्न होने की यह रीति है ।४५।

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