(अनुष्टुभ्)
अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जसा ।
स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ।।६१।।
श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [अञ्जसा ] वास्तव में [आत्मानम् ] अपने को [अज्ञानं ज्ञानम् अपि ] अज्ञानरूप या ज्ञानरूप [कुर्वन् ] करता हुआ [ आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात् ] आत्मा अपने ही भाव का कर्ता है, [परभावस्य ] परभाव का (पुद्गल के भावों का) कर्ता तो [क्वचित् न ] कदापि नहीं है ।६१।
श्लोकार्थ : — [आत्मा ज्ञानं ] आत्मा ज्ञानस्वरूप है, [स्वयं ज्ञानं ] स्वयं ज्ञान ही है; [ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति ] वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? [आत्मा परभावस्य कर्ता ] आत्मा परभाव का कर्ता है [अयं ] ऐसा मानना (तथा कहना) सो [व्यवहारिणाम् मोहः ] व्यवहारी जीवों का मोह (अज्ञान) है ।६२।
श्लोकार्थ : — ‘[यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति ] यदि पुद्गलकर्म को जीव नहीं करता [तर्हि ] तो फिर [तत् कः कुरुते ] उसे कौन करता है ?’ [इति अभिशंक या एव ] ऐसी आशंका कर के, [एतर्हि ] अब [तीव्र-रय-मोह-निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाले मोह का (कर्तृकर्मत्वके अज्ञानका) नाश करने के लिये, यह कहते हैं कि — [पुद्गलकर्मकर्तृ संकीर्त्यते ] ‘पुद्गलकर्म का कर्ता कौन है’; [शृणुत ] इसलिये (हे ज्ञानके इच्छुक पुरुषों !) इसे सुनो ।६३।
(उपजाति)
स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य
स्वभावभूता परिणामशक्तिः ।
तस्यां स्थितायां स करोति भावं
यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ।।६४।।
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [पुद्गलस्य ] पुद्गलद्रव्य की [स्वभावभूता परिणामशक्तिः ] स्वभावभूत परिणमन शक्ति [खलु अविघ्ना स्थिता ] निर्विघ्न सिद्ध हुई । [तस्यां स्थितायां ] उसके सिद्ध होने पर, [सः आत्मनः यम् भावं करोति ] पुद्गलद्रव्य अपने जिस भाव को करता है [तस्य सः एव कर्ता ] उसका वह पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है ।
भावार्थ : — सर्व द्रव्य परिणमन स्वभाव वाले हैं, इसलिये वे अपने अपने भाव के स्वयं ही कर्ता हैं । पुद्गलद्रव्य भी अपने जिस भाव को करता है उसका वह स्वयं ही कर्ता है ।।६४।।
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [जीवस्य ] जीव की [स्वभावभूता परिणामशक्तिः ] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [निरन्तराया स्थिता ] निर्विघ्न सिद्ध हुई । [तस्यां स्थितायां ] यह सिद्ध होने पर, [सः स्वस्य यं भावं करोति ] जीव अपने जिस भावको करता है [तस्य एव सः कर्ता भवेत् ] उसका वह कर्ता होता है ।
भावार्थ : — जीव भी परिणामी है; इसलिये स्वयं जिस भावरूप परिणमता है उसका कर्ता होता है ।६५।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत् ] यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानी को ज्ञानमय भाव ही क्यों होता है [पुनः ] और [अन्यः न ] अन्य (अज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होता ? [अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः ] तथा अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं तथा [अन्यः न ] अन्य (ज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होते ? ।६६।
(अनुष्टुभ्)
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि ।
सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ।।६७।।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानिनः ] ज्ञानी के [सर्वे भावाः ] समस्त भाव [ज्ञाननिर्वृत्ताः हि ] ज्ञान से रचित [भवन्ति ] होते हैं [तु ] और [अज्ञानिनः ] अज्ञानी के [सर्वे अपि ते ] समस्त भाव [अज्ञाननिर्वृत्ताः ] अज्ञान से रचित [भवन्ति ] होते हैं ।६७।
श्लोकार्थ : — [अज्ञानी ] अज्ञानी [अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाम् ] (अपने) अज्ञानमय भावों की भूमिका में [व्याप्य ] व्याप्त होकर [द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम् ] (आगामी) द्रव्यकर्म के निमित्त जो (अज्ञानादि) भाव उनके [हेतुताम् एति ] हेतुत्व को प्राप्त होता है (अर्थात् द्रव्यकर्म के निमित्तरूप भावों का हेतु बनता है) ।६८।
श्लोकार्थ : — [ये एव ] जो [नयपक्षपातं मुक्त्वा ] नयपक्षपात को छोड़कर [स्वरूपगुप्ताः ] (अपने) स्वरूप में गुप्त होकर [नित्यम् ] सदा [निवसन्ति ] निवास करते हैं [ते एव ] वे ही, [विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः ] जिनका चित्त विकल्पजाल से रहित शान्त हो गया है ऐसे होते हुए, [साक्षात् अमृतं पिबन्ति ] साक्षात् अमृत को पीते हैं ।
भावार्थ : — जब तक कुछ भी पक्षपात रहता है तब तक चित्त का क्षोभ नहीं मिटता । जब नयों का सब पक्षपात दूर हो जाता है तब वीतराग दशा होकर स्वरूप की श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूप में प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता है ।।६९।।
(उपजाति) एकस्य बद्धो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात-
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७०।।
श्लोकार्थ : — [बद्धः ] जीव कर्मों से बँधा हुआ है [एकस्य ] ऐसा एक नय का पक्ष है और [न तथा ] जीव कर्मों से नहीं बँधा हुआ है [परस्य ] ऐसा दूसरे नय का पक्ष है; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीव के सम्बन्ध में [द्वयोः ] दो नयों के [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता (वस्तुस्वरूपका ज्ञाता) पक्षपात रहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभवमें आता है) ।
भावार्थ : — इस ग्रन्थ में पहले से ही व्यवहारनय को गौण कर के और शुद्धनय को मुख्य कर के कथन किया गया है । चैतन्य के परिणाम परनिमित्त से अनेक होते हैं उन सबको आचार्यदेव पहले से ही गौण कहते आये हैं और उन्होंने जीव को मुख्य शुद्ध चैतन्यमात्र कहा है । इसप्रकार जीव-पदार्थ को शुद्ध, नित्य, अभेद चैतन्यमात्र स्थापित करके अब कहते हैं कि — जो इस शुद्धनय का भी पक्षपात (विकल्प) करेगा वह भी उस शुद्ध स्वरूप के स्वाद को प्राप्त नहीं करेगा । अशुद्धनय की तो बात ही क्या है ? किन्तु यदि कोई शुद्धनयका भी पक्षपात करेगा तो पक्षका राग नहीं मिटेगा, इसलिये वीतरागता प्रगट नहीं होगी । पक्षपात को छोड़कर चिन्मात्र स्वरूप में लीन होने पर ही समयसार को प्राप्त किया जाता है । इसलिये शुद्धनय को जानकर, उसका भी पक्षपात छोड़कर शुद्ध स्वरूप का अनुभव करके, स्वरूप में प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करके, वीतराग दशा प्राप्त करनी चाहिये ।७०।