जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


लेखक - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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<—work in progress—>

Contents:

  1. आत्मार्थी निर्देश
  2. दिनचर्या एवं वेशभूषा
  3. आत्मार्थी प्रवास
  4. जिनमन्दिर व्यवहार
  5. स्वाध्याय एवं अध्ययन
  6. प्रवचन (वक्ता) निर्देश
  7. प्रवचन (श्रोता) निर्देश
  8. प्रवचन (विषय) निर्देश
  9. शिविर निर्देश
  10. सामान्य व्यवहार (सार्वजनिक व्यवहार)
  11. गुरुजनों के प्रति व्यवहार
  12. लघुजनों के प्रति व्यवहार
  13. पारस्परिक व्यवहार
  14. सामाजिक व्यवहार
  15. अतिथि सत्कार
  16. पारिवारिक सौन्दर्य
  17. संयुक्त परिवार के लाभ
  18. विनय
  19. सत्संगति
  20. स्वच्छता निर्देश
  21. दान निर्देश
  22. ईमानदारी
  23. स्वास्थ्य
  24. भोजन निर्देश
  25. आश्रम, विद्यालय निर्देश
  26. छात्रावास, अधीक्षक निर्देश
  27. ट्रस्ट, समिति, संस्थान निर्देश
  28. व्यापार निर्देश
  29. सर्विस निर्देश
  30. अल्प बचत निर्देश
  31. विवाह निर्देश
  32. शिशुपालन निर्देश
  33. बाल एवं किशोर निर्देश
  34. युवा निर्देश
  35. बच्चों को छोटी उम्र में बाहर भेज देने के दुष्परिणाम
  36. नारी निर्देश
  37. प्रौढ़ एवं वृद्धजन निर्देश
  38. सेवा निर्देश
  39. रोगी सेवा निर्देश
  40. समाधि निर्देश
  41. जिनमंदिर निर्माण निर्देश
  42. गृह निर्माण निर्देश
  43. यात्रा, धर्मशाला, विश्राम स्थल निर्देश
  44. आयोजन निर्देश
  45. कार्यक्रम उद्घाटन निर्देश
  46. धार्मिक कार्यक्रम से शिक्षाएं ले
  47. शासन-प्रशासन निर्देश
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1. आत्मार्थी निर्देश :arrow_up:

  1. आत्मार्थी जीव शरीराश्रित मेरे-तेरे या अच्छे-बुरे के विकल्पों में न उलझे । उदय प्रमाण यथालब्ध व्यवस्था को सहज भाव से स्वीकारते हुए आत्मोपलब्धि का लक्ष्य रखें।

  2. अधिक से अधिक समय ज्ञानाभ्यास में व्यस्त रहें।

  3. चारों अनुयोगों एवं अन्य धार्मिक साहित्य का प्रयोजन परक अर्थ विचारते हुए स्वाध्याय करें।

  4. तात्त्विक निर्णय स्पष्ट एवं निष्पक्ष करें।

  5. मिथ्यापक्ष या शिथिलाचार का पोषण न करें।

  6. अच्छे कार्यों की अनुमोदना एवं दोषों में मध्यस्थ रहें।

  7. धार्मिक एवं लौकिक व्यवहारों में अत्यन्त सावधान रहें। सतत भेद-विज्ञान रखें, जिससे अभिमानादि दुर्भाव न आ पायें।

  8. अपने रत्नत्रय की सुरक्षा एवं वृद्धि में निरन्तर प्रयत्नशील रहें।

  9. आत्म निरीक्षण एवं तत्त्वचिंतन के लिए नित्य ही अवश्य बैठे।

  10. आत्महित को गौण कदापि न करें।

  11. उत्तम विचारों का लेखन करें।

  12. अपने लेखन को संशोधित करते हुए प्रामाणिक प्रति स्वयं तैयार करें।

  13. दूसरों के सम्बन्ध में अधिक न सोचें।

  14. स्वावलम्बी रहें अर्थात् अपनी चर्या स्वयं करें। घर में रहें तो घरेलू और समाज में रहें तो सामाजिक व्यवस्थाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें।

  15. अपना जीवन सस्ता, स्वच्छ, सहज एवं स्पष्ट रखें। विशिष्ट व्यवस्थाओं-ए.सी., कूलर, स्पंज गद्दियाँ, मंहगे फल, मोबाइल, इन्टरनेट आदि पर लम्बी बातचीत, अनावश्यक घूमना आदि से बचें जिससे जैनत्व की अवहेलना न हो पाये।

  16. एक ही स्थान पर अधिक समय न रहें।

  17. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ध्यान रखते हुए, अपनी क्रियायें एवं प्रवृत्ति इसप्रकार रखें, जिनका निर्वाह सहजता से हो सके।

  18. किसी भी कार्य का निर्देशन सांगोपांग, विवेक पूर्वक, करुणासहित, प्रयोजन समझाते हुए स्पष्टता से दें।

  19. व्यवस्थाओं में न जुड़ने वालों से अपेक्षा न रखें और जुड़ने वालों को व्यर्थ परेशान या भयभीत न करें।

  20. मोह या मान वश (लोग क्या कहेंगे? यह सोचकर) अनावश्यक रूप से माता-पिता आदि रोगी को अस्पताल में भर्ती न करें । यथायोग्य शुद्ध चिकित्सा एवं सेवा करें और समाधि करें और करायें।

  21. रात्रि भोजन, रात्रि विवाह, विजातीय विवाह, मृत्यु भोज, जन्म दिन आदि के आयोजन स्वयं तो करें ही नहीं और उनमें शामिल भी नहीं हों।

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2. दिनचर्या :arrow_up:

  1. प्रात:शीघ्र (ब्रह्ममुहूर्त में) अवश्य उठ जावें। उठकर णमोकार मंत्र, ओम् आदि का योग विधि से उच्चारण करें। पंचपरमेष्ठी एवं तत्त्वों का चिन्तन करें। अपने साध्य की प्राप्ति के संकल्प को दोहरायें। आत्म स्वभाव (ध्येय) को लक्ष्य में लें।

  2. आज की तिथि, पर्व, विशेष नियम, कार्य आदि का निर्णय करें।

  3. विधिपूर्वक शौच, स्नानादि से निवृत्त हो, प्राणायाम योग के माध्यम से प्रसन्न एवं एकाग्र हो,समय की सुविधानुसार एकांत में व्यक्तिगत स्वाध्याय, पाठ, जप, ध्यान आदि करें।

  4. उत्साह पूर्वक यथासम्भव जिनदर्शन, पूजानादि के लिए जिनमंदिर जावें । वहाँ मात्र रूढ़ि से जिनदर्शन, पूजनादि न करें, व्यवस्थाओं में भी सहयोगी बनें । यत्नाचार एवं विवेक पूर्वक स्वाध्याय, जिनमंदिर की स्वच्छता एवं मर्यादा, अतिथि सेवा, साधर्मी वात्सल्य, पाठशाला, तात्कालीन कार्यक्रमों में सक्रिय सहयोग दें।

  5. जहाँ और जब जिनमंदिर में साक्षात् दर्शन का योग न बन सके, वहाँ भी नियत समय पर यथाशक्ति एवं यथायोग्य जिनभक्ति, पाठ, स्वाध्याय एवं चिन्तनादि में प्रमाद एवं बहाना छोड़कर प्रवर्ते ।

  6. नियत समय पर संयम एवं स्वास्थ्य के अनुकूल शुद्ध भोजन, क्षेत्र एवं वस्त्रादि की शुद्धि पूर्वक करें।

  7. विद्यार्जन, व्यापार, सेवा आदि समस्त कार्य अनुशासन सहित, निष्ठा पूर्वक, समय पर करें।

  8. अधीरता, उत्तेजना, भावुकता, अनैतिकता, प्रमाद से दूर रहें।

  9. अपनी हर वस्तु नियत स्थान पर व्यवस्थित ढंग से रखें। गंदगी न फैलायें ।

  10. शाम को सूर्यास्त से पूर्व ही भोजन-पानी से निवृत्त हो जावें।

  11. रात्रि में कीड़ों की हिंसा को बचाते हुए लाइट का कम से कम प्रयोग करें।

  12. अपने काम निपटाते हुए भक्ति, स्वाध्याय, पाठ, चिन्तनादि अवश्य करें।

  13. नियत समय पर योग निद्रा पूर्वक रात्रि विश्राम करें।

  14. बिना किसी कारण से देर तक जागना स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। प्रात: जल्दी उठकर कार्य करने की वृत्ति बनायें।

  15. सोने के पूर्व दिनभर का निरीक्षण कर दोषों के दूर करने का उपाय विचारें, मात्र प्रायश्चित ही पर्याप्त नहीं है। दोषों के कारणों का भी निवारण करें।

  16. दूसरे दिन की योजनानुसार तैयारी करते हुए निश्चिंत होवें।

वेशभूषा एवं प्रसाधन निर्देश

  1. हिंसात्मक, विलासितापूर्ण, शील एवं पद विरुद्ध वस्त्र न पहनें और न ऐसी प्रसाधन सामग्री का उपयोग करें। जैसे - चर्बीयुक्त साबुन, शैम्पू, क्रीमें, सुगन्धित बाजारू तेल, टूथपेस्ट आदि हिंसक सामग्री से बचें।

  2. पारदर्शी, अधिक नीचे-ऊँचे, कसे, अधिक ढीले, विविध डिजायन के या काले, अत्यंत गहरे रंगों के कपड़े न पहनें।

  3. अत्यंत महंगे कपड़े, जूते, बैल्ट, टाई आदि न पहनें। वस्त्रादि को बड़प्पन का आधार न बनायें।

  4. अनावश्यक संग्रह न करें।

  5. समय से पहले ही वस्त्र बनवा लेवें।

  6. कुछ शुद्ध वस्त्र धुले हुए रखे रहने दें, जिससे अचानक किसी साधर्मी या त्यागी के आ जाने पर काम आ सकें।

  7. बच्चों को भी अत्याधुनिक कपड़े न पहिनायें।

  8. रेशमी वस्त्रों का त्याग करें। पोलिस्टरादि, सिंथेटिक, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्त्रों से भी यथासम्भव बचें।

  9. मल-मूत्र सोखने वाले वस्त्र चड्डी (डायपर) न पहनें, न बच्चों को पहिनायें (अति आवश्यक परिस्थिति छोड़कर)।

  10. अपने अनुपयोगी वस्त्रों को दूसरे जरूरतमंद लोगों में बाँट दें, परन्तु बहुत फटे बेढंग के न हों।

  11. अपने पद, स्थान, शील आदि का ध्यान रखते हुए, उचित वेशभूषा ही पहनें, कभी-कैसी कभी-कैसी डिज़ायने न बदलें।

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3. आत्मार्थी प्रवास :arrow_up:

1. गुरुजनों की बिना आज्ञा कोई कार्यक्रम न बनायें। आज्ञा पालन का अतिरिक्त प्रदर्शन न करें।

2. श्रावकों पर व्यवस्था का अतिभार न डालें। उनकी परिस्थिति एवं समय का भी ध्यान रखें। दूसरों की निंदा या हीनता न करें। तुलना करके स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न न करें।

3. अपने त्याग का रौब न दिखायें।

4. अकेली महिलाओं की कक्षा न लें। न कक्षाओं में महिलाओं को मुख्य करें। निकट खड़े होकर बातचीत न करें। फोन पर धार्मिक चर्चा भी अति आवश्यक होने पर अत्यंत सीमित करें। भीड़ में न घुसें । अशक्यता छोड़कर घरों में नहीं रुकें। नव बाड़ों का पालन अवश्य करें।

5. निर्लज्जता पूर्वक नग्न बैठना आदि निंद्य कार्य न करें।

6. अनावश्यक सामग्री (उपहार में भी) न लें । ली हुई सामग्री एवं नगदी आदि की रिपोर्ट तैयार करें।

7. अनावश्यक अत्यधिक सेवा न करायें।

8. अपनी भाषा, चर्या, स्वच्छता, सहनशीलता, परोपकारी वृत्ति, अनुशासन, सरलता आदि द्वारा आदर्श प्रस्तुत करें।

9. अनावश्यक पानी न फैलाएं। बिजली न जलाएं। अन्य अनर्थदण्डों से बचें।

10. मेला, बाजारादि में बार-बार न जायें।

11. प्राकृतिक या अन्य चिकित्सा का पक्ष लेकर अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टान्हिका, दशलक्षण, रत्नत्रय आदि धर्म पर्वो में भी हरी सब्जियाँ, फल आदि लेना, अंजीर, अनन्नास, पालक या अभक्ष्य पदार्थ आदि लेना कदापि उचित नहीं।

12. स्वाध्याय एवं अध्ययन द्वारा अपनी योग्यता विशुद्धि बढ़ाते रहें।

13. अपना स्वाध्याय, पाठ, चिंतन, जपादि नियत समय पर करें। अपनी चर्या अव्यवस्थित करके कोई कार्यक्रम न करें।

14. मनमानी भावुकता पूर्ण व्याख्यायें न करें। हल्के दृष्टांत न दें। निर्देशिकाओं का पुनरावलोकन करते रहें।

15. अखबार एवं अन्य हल्की पुस्तकें न पढ़े। सीरियल, क्रिकेट मैच, चुनाव परिणाम आदि रुचि पूर्वक विशेष रूप से न देखें।

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4. जिनमन्दिर व्यवहार :arrow_up:

1. देव दर्शन मात्र रूढ़ी से न करें। आत्महित की भावना पूर्वक यथाशक्ति योग्य विधि से करें।

2. यथासम्भव शरीर, वस्त्र, क्रिया एवं भाव की शुद्धि पूर्वक, योग्य द्रव्य लेकर, अति उल्लास से देव दर्शन के लिए आवें।

3. चप्पल, जूते आदि यथास्थान उतारें, बीच दरवाजे पर पैरपोश के ऊपर अथवा चाहे कहीं भी अव्यवस्थित तरीके से न उतारें । मोजे पहनकर मंदिरजी में प्रवेश न करें। पैर पोंछकर ही जावें, जिससे पैरों की गंदगी से मंदिर का फर्श गंदा न हो।

4. मंदिरजी के प्रांगण तक (विशेष रूप से जहाँ श्रीजी के दर्शन बाहर से ही हो रहे हो) वाहन आदि पर चढ़कर न जायें।

5. पहले से दर्शन, पूजन करते हुए अन्य भाई-बहिनों के आगे से न निकलें और न उनके आगे खड़े हों। सभी को बैठने या खड़े होने से पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि पीछे से निकलने की जगह बनी रहे और आगे से न निकलना पड़े। आपने सुना होगा - पूजा लांघी नहीं जाती।

6. सामान्य वस्त्रों से गन्धकुटी में न जाएँ, वेदी पर न चढ़े एवं प्रतिमा का स्पर्श न करें।

7. चावलादि द्रव्य यत्नाचार से चढ़ायें, जिससे वे इधर-उधर न बिखरें और न पैरों से कुचलें तथा सूखी एवं धुली द्रव्य अलग-अलग नियत स्थान पर ही चढ़ायें।

8. यदि घर से स्नान करके आए हों तो पूजन की धोती-दुपट्टा पहनने से पहले भी हाथ-पैर धोकर गीले कपड़े से शरीर अवश्य पोंछे।

9. अशुद्ध वस्त्र पहनकर, धुली द्रव्य से, अष्ट द्रव्य की थाली लगाकर पूजा न करें एवं पूजन में दिनभर पहने जाने वाले वस्त्र धोकर भी न पहनें । (रेशमी या ऊनी वस्त्र धुला होने पर भी अशुद्ध ही होता है। इसीप्रकार स्नान करने में या दूषित श्रृंगार प्रसाधनों, जैसे-साबुन, तेल, पाउडर इत्यादि का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को भी अशुद्ध ही समझना चाहिए) पुजारी को विधि पूर्वक छने हुए अल्प जल से ही स्नान एवं पूजन के वस्त्र धोना चाहिए।

10. पूजन, पाठ, स्तुति आदि मध्यम स्वर से बोलें, जिससे दूसरों को अन्तराय न हो।

11. धोक देते समय जमीन पर हाथ न लगायें, यदि हाथ लग जायें तो हाथ धोकर ही प्रतिमाजी, जिनवाणी एवं अष्ट द्रव्य का स्पर्श करें।

12. परिक्रमा में अति जल्दी से न चलें । स्तुति-पाठ आदि बोलते हुए सावधानी से चलें।

13. महिलायें एवं बालिकायें गवासन से नमस्कार करें।

14. पूजन, स्वाध्याय आदि के बाद पूजन की पुस्तकों, ग्रन्थों, चौकी, आसन, माला आदि को स्वयं तो यथास्थान रखें ही, पहले से यदि अव्यवस्थित हों तो उन्हें भी व्यवस्थित कर दें।

15. दर्शन, पूजन के बाद स्वाध्याय अवश्य करें पत्र-पत्रिकायें भी बाद में अवश्य देख लें।

16. जिनवाणी के ऊपर पूजा की थाली, पेन, द्रव्य की डिब्बी आदि न रखें तथा छोटे आकार की जिनवाणी को भी ग्लास आदि ढंकने में प्रयोग न करें। जिनवाणी जमीन पर, पैरों पर न रखें, थूक लगाकर न खोलें, पृष्ठ न मोड़े एवं उससे हवा न करें।

17. मंदिरजी में पूजन और प्रवचन में कुर्सी आदि पर न बैठे। अति अशक्य अवस्था में शास्त्र की चौकी से नीचा स्टूल, पाटा आदि उपयोग करें।

18. मंदिरजी में दैनिक उपयोगी, नैमित्तिक उपयोगी, मासिक पत्र-पत्रिकाओं तथा दुर्लभ ग्रन्थों को यथास्थान अलग अलग विराजमान किए जाने की उचित व्यवस्था करें तथा दुर्लभ ग्रन्थों को सूचीबद्ध कर सुरक्षित रूप से उपयुक्त स्थान पर रखा जाये।

19. प्रतिदिन दर्शन, पूजन, स्वाध्याय के साथ ही साथ मंदिर एवं जिनवाणी की वैयावृत्ति (साफ सफाई, साज-सम्हाल, कवर चढ़ाना, धूप दिखाना आदि) हेतु भी कुछ समय अवश्य दें। यह भी एक प्रकार से पूजा ही है।

20. यदि प्रवचन, सामूहिक पूजन, भक्ति आदि हो रही हो तो घंटा न बजायें। यदि प्रवचन के समय पूजन कर रहे हों तो मंद स्वर में करें ।

21. पूजन के उपकरण, प्रक्षाल, पानी छानने एवं पोंछने के छन्ने, शास्त्र के वेष्ठन आदि साफ करते रहें। सामग्री शोधन, रखने एवं सफाई (पोंछा, जाले, धूल आदि) का ध्यान घर से भी अधिक रखें। इसमें महिलायें अपना दायित्व अधिक समझें।

22. बाहर से आये साधर्मीजनों के साथ यथायोग्य वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करें।

23. मंदिर में सामग्री, गंदगी या पानी फैला हो तो साफ करें या करा दे।

24. सिल्क (रेशम या कोशा) के काले, लाल या अति गहरे रंग के वस्त्र एवं जीन्स चमडे की बेल्ट आदि पहनकर मंदिर न आयें । सादा वस्त्र पहनकर विनय पूर्वक ही मंदिर में आयें।

25. दूषित सौन्दर्य प्रसाधन, अन्य हिंसा से उत्पन्न वस्तुओं एवं लाख की चूड़ियाँ आदि का प्रयोग न करें।

26. मंदिरजी का कोई भी उपकरण पुस्तक आदि बिना आज्ञा के घर न ले जायें।

27. मंदिरजी में पंखे का प्रयोग जहाँ तक संभव हो न करें। यदि करें तो उनमें जाली अवश्य लगवाई जाये।

28. नल, बिजली, पंखे आदि व्यर्थ चल रहे हो तो अवश्य बन्द कर दें।

29. जीव दया का विचार कर, मंदिर में अनावश्यक रोशनी धार्मिक आयोजनों एवं पर्व आदि के समय भी न करें।

30. मंदिरजी के कार्यों में तो यत्नाचार पूर्वक छने हुए जल का प्रयोग करें (हाथ-पैर आदि धोने में भी) मंदिरजी की बिछायत आदि सामग्री भी समय-समय पर यत्नाचार पूर्वक धुलवायें, परन्तु धोबी के यहाँ नहीं।

31. मंदिरजी में हिंसक सामग्री से उत्पन्न अशुद्ध वस्तुओं, जैसे सनमाइका, स्वर्ण वर्क, चाँदी वर्क, अगरबत्ती, सरेस तथा चिकना चमकदार कागज आदि (आमंत्रण पत्र-पत्रिकाओं में प्रयुक्त) का प्रयोग वर्जित किया जाए।

32. धार्मिक आमंत्रण पत्रिकाओं में मूल गाथाओं, मंत्रों, पंच परमेष्ठी आदि के चित्रों को ना छापा जाये। यदि हस्तलिखित पत्रिकाओं (पं. टोडरमलजी की भाँति) का प्रयोग हो तो अति उत्तम होगा। इन पत्रिकाओं एवं अन्य जीर्ण जिनवाणी के पत्रों को सम्हालकर व्यवस्थित रूप से रखें या उचित रीति से विसर्जित करें, जिससे जिनवाणी की अविनय न हो।

33. मंदिरजी के प्रांगण या तीर्थ आदि धार्मिक स्थानों का दुरुपयोग अपने विषय-कषाय पोषण, पिकनिक स्थल या खेल आदि के लिए न करें तथा फर्शादि भी लौकिक कार्यों में प्रयोग न करें।

34. यदि किसीप्रकार का निर्माण कार्य या व्यवस्था हो रही हो तो वेदी पर आवरण अवश्य डाल दें तथा बाद में आवश्यकता अनुसार हटा दें। कार्य पूरा होने के समय सामान बिखरा न छोड़े। दूसरे दिन आवश्यक होने पर पुनः ले लेवे।

35. मंदिरजी की चौकी, चटाई, फर्श, बर्तनादि कारीगरों को उनके कार्य हेतु न दें।

36. पानी एवं अन्य घोल खुले न छोड़े। दाग तुरन्त साफ कर दें।

37. मंदिर में लौकिक कार्य, वार्ताएं तो करें ही नहीं, बुद्धि पूर्वक लौकिक विचार भी न करें।

38. बच्चे यदि भाग-दौड़ रहे हों या शोर कर रहे हों तो उन्हें अवश्य रोकें एवं समझायें।

39. मंदिरजी में अपने बच्चों को खाने-पीने (बिस्कुट, टॉफी आदि) तथा खेलने की सामग्री आदि न दें। साथ ही उन्हें शुरू से ही समझाने का प्रयास करें कि मंदिरजी में क्या करना, क्या नहीं करना।

40. स्टीकर चाहे जहाँ अयोग्य स्थानों पर न लगायें।

41. मंदिरजी के फर्श लौकिक प्रयोजनों, जैसे-शादी आदि में प्रयोग न हों।

42. दो सप्ताह में एक बार पूजा के वस्त्रादि अच्छे से धोयें जायें। प्रतिदिन अच्छे से निचोड़ कर सल रहित, अच्छे से फटक कर, क्लिप लगाकर डाले जावें । छिद्र रहित पारदर्शी धोती-दुपट्टे का प्रयोग न करें। गर्मियों में भी पुरुषवर्ग वक्षस्थल खुला न रखें, दुपट्टा अवश्य ओढ़ें।

43. तीनों समय प्रवचन, कक्षायें, भक्ति आदि कार्यक्रम अवश्य एवं यथासमय चलायें।

44. जिनमंदिरजी एवं तीर्थों पर सुनियोजित हरियाली एवं लॉन न बनायें।

45. हीन आचरण वाले कर्मचारी न रखें जायें।

46. मंदिरजी की ध्वजा पुरानी या फटी न हो।

47. छत्र की लटकन मोती माला आदि अस्त-व्यस्त न हो। भामण्डल, छत्र, सिंहासन, श्रीजी अव्यवस्थित न हों।

48. वेदी में चूहे, छिपकली, जीवों का प्रवेश न हो, ऐसा प्रबंध हो। मंदिरजी में भी जालादि लगायें जिससे चिडियाँ, कबूतर, बंदर आदि आकर गंदगी न कर सकें।

49. फटी चटाईयाँ न हों । वेष्टन सुन्दर हो।

प्रक्षाल, अभिषेक-पूजा के समय ध्यान देने योग्य बातें

50. गैस सिलेण्डर को मंदिरजी हो या घर, अच्छी तरह माँज धोकर ही अंदर लायें।

51. प्रक्षाल-पूजा हेतु जल दिन निकलने के बाद ही भरा जाये। शुद्धि एवं सफाई हेतु पुजारी को विशेष रूप से प्रेरित करें।

52. प्रक्षाल हेतु मंदिरजी में ही स्नान करें। धोती-दुपट्टे शुद्ध साफ हों, फटे न हों, पारदर्शी न हों, बनियान व अन्डरवियर नई हो, वह मात्र प्रक्षाल के समय ही पहनें।

53. प्रक्षाल के वस्त्रों को पहनकर कुछ खायें-पियें नहीं और न ही लघुशंकादि करें।

54. प्रक्षाल करते समय घड़ी न पहिने । घड़ी कभी धुलती नहीं है; अत: अशुद्ध रहती है।

55. प्रक्षाल-पूजा के बर्तनों में स्टीकर या उसे चिपकाने वाला पदार्थ न लगा हो, उसे निकाल दें।

56. जमीन से छुए, पहिने हुए कपड़ों व अधोअंगो से छुये हाथ धोकर ही प्रक्षाल करें, श्रीजी को स्पर्श करें। हाथ नियत स्थान पर ही धोयें, जिससे गंदगी नहीं होगी।

57. प्रक्षाल हेतु श्रीजी को विराजमान करने की चौकी सादा लकड़ी, धातु या संगमरमर की हो। सनमाइका लगी, रंग पेंट पुती न हो। 58. प्रक्षाल का समय निश्चित हो, बार-बार जलधारा करना तीनलोक के नाथ का अनादर है।

59. प्रक्षालन इसप्रकार हो कि जल का एक अंश भी प्रतिमाजी पर न रहे।

60. प्रक्षाल करने के कपड़े मुलायम व साफ हों। पुराने, गंदे होने पर तुरन्त बदल दें। प्रक्षाल करते समय कपड़े बर्तन में रखें। बड़े घड़े से जल निकालने वाला बर्तन व कलश भी साफ थाली या प्लेट में रखें।

61. प्रक्षाल उपरांत प्रतिमाजी, सिंहासन, भामंडल, छत्रादि सावधानी पूर्वक सही तरह से व्यवस्थित करें। देख लें प्रतिमाजी व अन्य उपकरण आड़े-तिरछे न हों। काँच को साफ रखें।

62. श्रीजी की वेदी के अंदर, सामने प्रक्षाल के कपड़े सूखने न डालें और न ही जिनवाणी रखें, यह अशोभनीय है। अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर व्यवस्था करें । प्लास्टिक की रस्सी और क्लिप का प्रयोग न करें।

63. जिनप्रतिमा स्पर्शित जल ‘गंधोदक’ पवित्र होता है, इसे जल से हाथ धोकर बीच की दो अंगुलियों से उत्तम अंग मस्तक पर ही धारण करें। यत्र-तत्र मलने से अविनय रूप महापाप ही होता है।

64. द्रव्य की थाली के साथ ही पूजन की पुस्तक को भी उच्च आसन पर विराजमान करें।

65. प्रायः देखा जाता है कि गीले हाथों से ही पूजन की पुस्तक उठा लेते है और गीली चौकी पर ही रख लेते हैं। सूखे कपड़े से हाथ और चौकी पोंछकर ही पुस्तक उठाइये, जिससे वह खराब न हो।

66. पूजा के उपरान्त देख लें, पुस्तक में कहीं चावल तो नहीं हैं; यदि जिनवाणी फटती है तो आपको तीव्र पाप बंध होता है। नैवेद्य आदि भी नीचे जमीन पर न गिरें, इससे चीटियों से बच सकते हैं।

67. बनियान, दुपट्टा अलग बर्तन में धोवें, जबकि अंडरवियर, धोती (अधोवस्त्र) धोने का बर्तन अलग से नियत हो। सामान्य वस्त्रों के साथ तो कदापि न धोयें। तेज वाशिंग पावडर, नील न लगावें।

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5. स्वाध्याय एवं अध्ययन :arrow_up:

1. आत्मार्थ के लक्ष्य से विषय का तात्त्विक निर्णय करते हुए, प्रयोजन परक वीतरागता पोषक अर्थ समझते हुए, अध्ययन करें। मूल एवं प्राचीन ग्रन्थों का भी स्वाध्याय करें।

2. विद्यार्थी की भाँति चारों अनुयोगों का नित्य स्वाध्याय करें। समय तालिका बनायें।

3. उपलब्ध समय के ¼ समय अध्यात्म शास्त्र, ⅛ प्रथमानुयोग, ⅛ सामान्य पत्र पत्रिकायें, प्रेरक प्रसंग आदि एवं पुस्तकें, ¼ चरणानुयोग कभी करणानुयोग, ¼ समय में परिभाषा, पद्य-पंक्ति (हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत शास्त्र) वैराग्य पाठ, भजन, श्लोक आदि एवं अन्य छन्द याद करें। अध्ययन करते हुए महत्वपूर्ण प्रसंग, कथनादि शास्त्र या पुस्तक के प्रमाण सहित कॉपी में नोट अवश्य करें। अध्ययन करते समय उत्पन्न होने वाले प्रश्नों को भी नोट करते जायें, जिससे विद्वानों का समागम होने पर उनका समाधान हो सके।

5. स्वाध्याय आद्योपांत करें। अक्रम एवं अधूरा स्वाध्याय पक्ष एवं भ्रम उत्पन्न करता है।

6. प्रवचन में विषय क्रमिक एवं सांगोपांग नहीं हो पाता। अतः मात्र कैसिट आदि सुनना पर्याप्त नहीं है।

7. किसी एक ही व्यक्ति के प्रवचन सुनना एवं एक ही पक्ष की प्रधानता से अध्ययन करते रहना उचित नहीं है। सर्वांगीण अध्ययन सूक्ष्म उपयोग पूर्वक निष्पक्षता से करें।

8. स्वाध्याय के पाँचों अंगों को पालें अर्थात् स्वयं वांचन भी करें। प्रश्न का समाधान भी विनम्रता पूर्वक योग्य रीति से करें। शंकाशील ही न बने रहें।

9. प्रयोजन परक अनुप्रेक्षा भी करें, तभी उसका श्रद्धान एवं हेय के त्याग, उपादेय के ग्रहण रूप आचरण संभव है। कहा भी है - ‘तत्त्व विचार वाला जीव ही सम्यक्त्व का अधिकारी होता है।’

10. अपने निर्णय को आगम एवं अनुभव से प्रमाणित करें।

11. अपने को एकान्त में सम्बोधन करें एवं जिज्ञासुओं को सहज भाव से उपदेश भी दें अथवा सिखायें भी।

12. स्वाध्याय का फल ध्यान है। ध्यान में ही साक्षात् सुख का वेदन होता है, कर्मों की निर्जरा होती है। अत: बाहर से उपयोग को समेटते हुए, आत्म ध्यान का अभ्यास अवश्य करें।

13. निश्चय-व्यवहार एवं ज्ञान-ध्यान आदि का सुमेल रखें। मात्र एक पक्ष ग्रहण कर दूसरे को निषेधते हुए अभिमानी न बनें।

14. स्वाध्याय को सार्थक भी करें अर्थात् आगम अनुसार ही श्रद्धान एवं आचरण करें।

15. शुद्ध आचरण एवं शुद्ध लेखन का ध्यान रखें। यथायोग्य विनय एवं बहुमान पूर्वक स्वाध्याय करें।

16. स्वानुभव एवं संयम की भावना एवं अन्तर्मुखी पुरुषार्थ रखें।

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(प्रवचन के अंग :- वक्ता, श्रोता, विषय)

6. प्रवचन (वक्ता) निर्देश :arrow_up:

श्रद्धान सम्बन्धी बिन्दु -

1. जिनधर्म का सम्यक् एवं दृढ़ श्रद्धान हो।

2. जिनधर्म ही समस्त आपत्तियों को दूर करने एवं सम्पत्तियों को देने में समर्थ है।

3. धर्म के सेवन से ही दोषों का निवारण एवं गुणों का विकास होता है।

4. वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप है। धर्म के दश लक्षण हैं। ‘अहिंसा परमो धर्मः।’

5. सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है।

6. ज्ञान धर्म का प्रकाशक है।

7. चारित्र साक्षात् धर्म है, जो विकारों, कर्मों एवं समस्त क्लेशों का दाहक है।

8. धर्म आत्मा के आश्रय से होता है।

9. व्यवहार से धर्म के आधार सच्चे देव-शास्त्र-गुरु हैं।

निर्देश सम्बन्धी बिन्दु -

10. धर्म की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम तत्त्वनिर्णय करना चाहिए । अर्थात् स्व-पर एवं हेय - उपादेय को सम्यक् प्रकार समझें।

11. तत्त्वश्रद्धान, भेदविज्ञान, आत्मानुभव पूर्वक आत्म-प्रतीति ही सम्यग्दर्शन है।

12. वस्तु की स्वतंत्रता की सम्यक् श्रद्धा के साथ ही परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध का भी यथार्थ ज्ञान होना चाहिए।

13. प्रलोभन या भय के वशीभूत होकर कुदेव, कुमंत्र, कुधर्म, कुगुरु आदि की ओर चित्त चलायमान न करें।

14. समस्त विघ्न बाधाओं ,रोगोपद्रवादि के प्रसंगो में भवितव्य एवं उदयादि का विचार करते हुए, चित्त की स्थिरता एवं विशुद्धता के लिए जिनभक्ति, जप, पूजन, विधान, दान, तप, तत्त्वविचार में ही प्रवर्ते । श्रद्धान, नियम, संयम में दृढ़ रहें। इसी से स्वयं का हित एवं धर्म की प्रभावना होती है। निश्चय का निश्चयरूप एवं व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान रहे। मात्र पक्ष ग्रहण कर उद्धत हो, उत्सूत्र कथन कर, विपरीत प्रवृत्ति को प्रोत्साहित न करें। निश्चय-व्यवहार रूप कथन के अभिप्राय एवं प्रयोजन को समझें।

15. स्थूल अन्याय, अनीति, कुशीलादि कुव्यसन, अयोग्य वचनादि के त्यागी हों । तीव्र क्रोध, मान, मायाचार या लोभादि के वशीभूत न हों। निंद्य वृत्ति न हो अर्थात् लोक में भी प्रामाणिक व्यापार एवं व्यवहार हो।

16. अपने या अन्य के परिणाम बिगड़ने का, धर्म की अप्रभावना होने का, जिनाज्ञा भंग होने का बहुत भय हो अर्थात् निरन्तर सावधान रहें।

17. चारों अनुयोगों के अभिप्राय एवं शैली को समझे, मात्र प्रासंगिक विषय को ही तैयार करके (पूर्वापर विचार किये बिना) लौकिक दृष्टांतों एवं तर्कों के बल से निरूपण न करें।

18. उपदेश में मात्र विविध भेद-प्रभेद, अनेक आगम प्रमाण, तर्क, दृष्टांतों द्वारा अपने ज्ञान का प्रदर्शन न करें। श्रोताओं के हित पर दृष्टि रखते हुए, उनकी योग्यता एवं भूमिका के अनुसार प्रयोजन परक निरूपण करें, जिससे उनकी तात्त्विक दृष्टि बने। अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप में संदेह रहित ज्ञान हो। लोकनिंद्य वृत्ति से भयभीतपना हो। मोक्षमार्ग में निमित्तभूत जिनभक्ति, दान, शील, संयम, तप एवं सम्यक्त्व के अंगों में उत्साहपूर्वक यथायोग्य प्रवृति हो।

19. अध्यात्म ज्ञान-वैराग्य से युक्त हित-मित प्रिय वचन बोलें। स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण हो।

20. अनावश्यक हास्य या बार-बार व्यक्तिगत संबोधन न करें। मनोज्ञ एवं सौम्यमुद्रा हो।

21. गुणीजनों के प्रति प्रमोदपूर्ण योग्य व्यवहार हो। करुणाशील, कोमल परिणामी हो।

22. विपरीत वृत्ति एवं पक्ष वालों के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखें।

23. दूसरों की निंदा एवं व्यक्तिगत आक्षेप न करें। दोष भी कोमल भाषा में वात्सल्य पूर्वक इसप्रकार से कहें, जिससे व्यक्ति को अपमान जैसा न लगे।

24. नानाप्रकार के प्रश्नों एवं परिस्थितियों में सहनशील रहें, उत्तेजित न हो जायें।

25. यश एवं विषय संबंधी सामग्री के लोभी न बने। अपनी प्रशंसा स्वयं कदापि न करें और दूसरों के द्वारा करने पर लघुता प्रकट करें।

26. उदय प्रमाण सामग्री एवं व्यवस्था में संतोषी हों, परन्तु प्रमादी, संकोची या शिथिलाचारी न हों।

27. स्वच्छता, व्यवस्था एवं अनुशासन प्रिय हों। समय एवं वचन का पालन दृढ़ता से करें, परन्तु इन कारणों से कषाय कदापि न करें।

28. स्वावलंबी हों एवं उदार हों।

29. धार्मिक एवं लौकिक मर्यादाओं का पालन करें। 30. सभा के बीच में प्रश्न किये जाने पर भी योग्य उत्तर इसप्रकार से दें, जिससे मूल विषय भी न छूटे, सभा में क्षोभ भी न हो और प्रश्नकार को भी समाधान मिल जाये।

31. यदि कोई मत्सर भाव पूर्वक सभा में क्षोभ के अभिप्राय से ही प्रश्नादि करे तो शान्त रहें और सभा को भी शान्त रखें, किसी प्रकार उत्तेजित न हों।

32. स्व-रचित भजन, लेख आदि कृतियों को पूर्ण संशोधन पूर्वक ही प्रस्तुत करें।

33. स्वयं भी विशिष्ट विद्वानों का समागम करते रहें तथा निरन्तर अध्ययनशील रहें।

34. अनावश्यक भ्रमण, बातचीत, मोबाइल आदि के प्रयोग, शयन एवं प्रमाद में समय नष्ट न करें।

35. स्वास्थ्य के अनुकूल भोजनादि व्यवस्थाओं का निर्देश पूर्व से ही व्यवस्थापक द्वारा करवा दें। फिर भी अव्यवस्थाओं को समता से सहें।

36. उपयोगी सामग्री भी अत्यन्त वात्सल्यपूर्ण आग्रह सहित देने पर आवश्यक होने पर ही लें।

37. अपने सम्मान, सेवा आदि से यथाशक्ति बचें।

38. चर्या द्वारा भी सादगी, संतोष, क्षमा, जितेन्द्रियता, मितव्ययता, त्यागादि का आदर्श छोड़ें। कहीं भी अतिरिक्त प्रदर्शन करने का प्रयास न करें।

39. न भयभीत रहें, न भयभीत करें।

40. विषय का सर्वांगीण निरूपण करें। नय विविक्षा, अनुयोग शैली एवं कथन के अभिप्राय को स्पष्ट करें।

41. मर्यादित, संक्षिप्त,आगमानुकूल दृष्टांतों, तर्कों एवं प्रमाणों द्वारा विषय को बोधगम्य बनायें। अनेक प्रश्न स्वयं ही उठाकर समाधान करें। सभा में नाना प्रकार के श्रोता हैं, सभी को कुछ न कुछ श्रेष्ठ विषय मिल जाये, इसप्रकार विषय को प्रस्तुत करें।

42. बीच-बीच में आवश्यक प्रेरणा एवं अन्य कथन भी करें, परन्तु विषयान्तर न होने दें।

43. किसी विषय में संदेह होने पर सरलता से कह दें। अपनी भूल या दूसरों की योग्य सलाह या आगमानुकूल कथन को सरलता से स्वीकार कर लें।

44. कहीं भी विपरीतता या शिथिलता का पोषण न करें।

45. वक्ता के गुणों को जानकर, सच्चे वक्ताओं से उपदेश सुनकर, अपना हित करें तथा जिनधर्म की प्रभावना एवं स्व-पर कल्याणार्थ स्वयं भी सच्चे वक्ता बनें।

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7. प्रवचन (श्रोता) निर्देश :arrow_up:

1. ‘श्रोता’ का शब्दार्थ सुनने वाला है। अत: सामान्यत: सभी श्रोता हैं, परन्तु सच्चा श्रोता जिज्ञासा एवं विनय पूर्वक समझकर, स्व-पर के लिए हितरूप एवं प्रशंसनीय आचरण (दोषों के त्याग, गुणों के विकास) के लक्ष्य से सुनने वाला ही हो सकता है।

2. श्रोता के लक्षण का ज्ञान सच्चे श्रोता बनने के लिए है। दूसरों की निंदा या तिरस्कार करने के लिए नहीं।

3. संसार के संयोग अध्रुव एवं अशरण, परिग्रह बोझा और भोग रोग के समान संक्लेशता के निमित्त लगे हों और अपने दोषों को दूर कर,अपना हित करने की भावना जगी हो।

4. सर्व जीवों का प्रयोजन तो सुखी होना है,अतः सुख के मार्ग में प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्व का निर्णय करके, भेदज्ञान पूर्वक आत्मानुभव एवं आत्म साधना में बढ़ते जाना ही शास्त्राभ्यास एवं उपदेश श्रवण का प्रयोजन है। अतः श्रोता का लक्षण मात्र सुनना, याद कर लेना और दूसरों को सुना देना ही नहीं है।
अतः अपना स्वरूप, दुख और दुख के कारण, सुख और सुख के उपाय का निर्णय करने के लक्ष्य से, अंतरंग एवं बहिरंग उल्लास पूर्वक शास्त्र को वैसे ही सुनें, जैसे-पीड़ा को सहने में असमर्थ रोगी वैद्य की वार्ता को सुनता है।

5. समझ में न आने पर अति विनयवान होकर, उचित अवसर में प्रश्न करें।

6. अंतरंग में बारम्बार विचार एवं ऊहापोह करें।

7. समान बुद्धि वाले आत्मार्थी साधर्मीजनों से वात्सल्य पूर्ण व्यवहार करें।

8. स्वयं चारों अनुयोगों का यथायोग्य शास्त्राभ्यास करें।

9. निर्णय होने पर हेय के त्याग एवं उपादेय के ग्रहण का उद्यम करें।

10. अभिमान पूर्वक अपने विपरीत श्रद्धान, पक्ष, विषय या कषाय का पोषण न करें। अपनी भूल को सहजता से स्वीकार कर दूर करने का प्रयास करें।

11. कृतज्ञता एवं प्रसन्नता की अभिव्यक्ति भी करें।

12. रोगी, जैसे-पूर्ण स्वस्थ होने तक वैद्य की आज्ञा में प्रवर्तता है, अपनी सही स्थिति की जानकारी देते हुए चिकित्सा कराता है, वैसे ही पूर्ण वीतरागता होने तक निरन्तर तत्त्वाभ्यास एवं वैराग्य भावना आदि में उपयोग को लगावें।

13. गुरुजनों को अपने परिणामों की सही जानकारी देकर योग्य निर्देश प्राप्त करें।

14. पद्धतिबुद्धि से मात्र सुनते ही न रहें, जीवन को भी पवित्र एवं प्रशंसनीय बनायें । विनय, सेवा आदि में भी प्रमाद रहित एवं उदारता पूर्वक प्रवर्ते, जिससे गुरुजनों को शिक्षा देने में उत्साह रहे।

15. मात्र शब्दों को नहीं, अपितु कथन के अभिप्राय को ग्रहण करें।

16. प्रश्न भी इसप्रकार पूछे, जिससे वक्ता या सभा को विघ्न या क्षोभ न हो।

17. हठ और कुतर्क कदापि न करें। समझ में न आने पर भी सरलता पूर्वक विचार करें, खोज करें। आवेश में निषेध न करने लग जावें।

18. वक्ता के चूक जाने पर भी उसे योग्य रीति से संशोधित करें।

19. नवीन और अल्प अभ्यासी वक्ता से ऐसे प्रश्न न करें, जो उसे न आते हों।

20. सूक्ष्म बोध के अभिलाषी रहें। अध्यात्म रस के रसिक हों। आत्मानुभवमय वीतराग दशा को ही हितरूप समझें।

21. समय की नियमितता एवं अनुशासन का पालन करें।

22. दूसरों की निंदा, आत्म प्रशंसा या अन्य विकथा न करें।

23. बाह्य व्यवस्थाओं में अपने ही उदय का विचार कर समता रखें। अपनी आवश्यकतायें स्वयं पूरी करें।

24. शिविर या सभा का अनुशासन न बिगड़े। सकारात्मक एवं सहयोगात्मक शैली रखें।

25. लोकनिंद्य विचार, वचन और प्रवृत्ति को प्रयत्न पूर्वक छोड़ें।

26. खान-पान, वस्त्रादि, चेष्टाएं, व्यापार, लेन-देन, विनय, सेवा एवं अन्य समस्त क्रिया रूप समस्त व्यवहार सहज आगम के अनुकूल करें।

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8. प्रवचन (विषय) निर्देश :arrow_up:

1. श्रोताओं एवं समय के अनुसार शास्त्र के प्रकरण या प्रयोजनभूत विषय का चयन करें।

2. एक प्रवचन, दो, तीन, चार, पाँच, दस, बीस आदि के अनुसार विषय का विभाजन इसप्रकार करें कि निर्धारित समय में विषय पूरा स्पष्ट हो जाये।

3. अनावश्यक रूप से विषय को विषयान्तर करते हुए लम्बायमान न करें।

4. सारगर्भित, संक्षिप्त एवं रोचक शैली से विषय का निरूपण करें।

5. अध्यात्म विषय के बीच में व्यवहारिक विषयों का संक्षिप्त विवेचन एवं हितकारी प्रेरणा भी सामान्य सभा एवं कम समय होने पर भी करें। यदि अधिक समय हो तो अलग-अलग विषय चलायें।

6. व्यवहारिक विषयों के निरूपण के बीच में भी अध्यात्म की प्रेरणा अवश्य करें।

7. समस्त क्रियाओं का प्रयोजन अध्यात्म से जोड़ें। समस्त क्रियाओं और व्यवहार की निर्मलता का आधार भेदविज्ञान और तत्त्वविचार ही समझें ।

8. दर्शन विशुद्धि पूर्वक भावविशुद्धि होना ही सर्व व्यवहार का प्रयोजन है। ‘प्रेरे जो परमार्थ को सो व्यवहार समंत।’

9. निश्चय के द्वारा व्यवहार के निषेध की प्रयोगात्मक विधि भी समझायें।

10. सर्व विषयों का निरूपण वीतरागता का पोषक होना चाहिए। कहीं भी स्वच्छंदता, मिथ्यात्व, प्रमाद, विषय-कषाय आदि का पोषण न हो पाये, ऐसी सावधानी रखें।

11. मोक्षमार्ग के कारणभूत नियमों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, प्रेरणा तो करें ही, यथाशक्य संकल्प भी करायें।

12. चरणानुयोग के नाम पर मात्र ऊँची-नीची क्रियाओं का अक्रम कथन न करें। सम्यक्त्व से लेकर समाधि तक आवश्यकतानुसार क्रमश: एक दूसरे को जोड़ते हुए निरूपण करें। भावपक्ष-सम्यक्त्व के अंग, ज्ञान के अंग एवं चारित्र में अहिंसादि व्रतों के पूर्णत: या आंशिक पालन रूप नियमों की विधि समझायें, जिससे जीवन पवित्र, न्याय-नीति पूर्ण प्रशंसनीय बने और अध्यात्म की गहराई की ओर बढ़ता हुआ सार्थक बने।

13. देव-शास्त्र-गुरु, सात तत्त्व एवं उनके सम्बन्ध में भूल, छह सामान्य गुण, द्रव्य-गुण-पर्याय, चार अभाव, षट्कारक, निमित्त-नैमित्तिक और कारण-कार्य, कर्म, पंच-समवाय, क्रमबद्ध पर्याय, नय-प्रमाण, बन्ध प्रक्रिया, उदय-उदीरणा आदि अवस्थायें एवं रत्नत्रय, दशलक्षण, सोलहकारण, भेदविज्ञान आदि तथा आत्मा और आत्मानुभव, मूलगुण, नय-प्रमाण, स्याद्वाद-अनेकान्त, वीतराग-विज्ञान आदि। श्रावक के षट् आवश्यक, बारह व्रत, बारह तप, परीषहजय, सम्पूर्णतः श्रावक एवं मुनिधर्म आदि एवं समाधि स्वरूप एवं प्रक्रिया। नैतिकता, भक्ष्य-अभक्ष्य आदि विषयों का आगम आधार से सांगोपांग प्रयोजन परक विश्लेषण सभा के लिये उपयोगी है।

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9. शिविर निर्देश :arrow_up:

आयोजकों से अपेक्षित -

1. शिविर में विचार/मनन हेतु भी समय दिया जाये।

2. शिविर के समापन से पूर्व समीक्षा हेतु कुछ समय रखा जाये। (कमियों, सुझावों, अपेक्षाओं तथा अच्छाईयों की चर्चा हो)

3. शिविर या अन्य धार्मिक आयोजनों में अति हिंसक उपकरणों, जैसे-कूलर आदि तथा अशुद्ध अभक्ष्य पदार्थों, जैसे-बाजार की बर्फ, डेरी का दूध, घी, दही, पनीर, मैदा, मावा, चर्बीयुक्त साबुन, तेलादि का प्रयोग न किया जाये।

4. शिविर आदि धार्मिक आयोजनों में प्लास्टिक बैग आदि का प्रयोग न किया जाये तथा अन्य प्रचार सामग्री का प्रयोग भी सीमित रूप से (जिनवाणी की विनय को ध्यान में रखते हुए) अति सावधानीपूर्वक ही हो।

5. बैग पर धार्मिक सिद्धान्त न छपाकर मात्र नैतिकता-प्रधान सूक्तियाँ ही लिखी जायें एवं ये बैग मात्र जिनवाणी के लिए ही प्रयोग किये जायें तथा ऐसे बनें जिससे लटकाये न जा सकें तथा जल्दी खराब न हो जायें।

6. धार्मिक आयोजन, अव्यापारिक, आडम्बर रहित तथा फिजूलखर्ची रहित, सादगीपूर्ण हमारी अहिंसक संस्कृति के पोषक तथा यत्नाचारपूर्वक, विनय, भक्ति, गरिमायुक्त एवं प्रभावना पूर्ण हों।

7. श्री जिनेन्द्रदेव की रथयात्रा आदि के प्रसंग में डिस्पोजल गिलास, केले, संतरे, आईस्क्रीम, कोल्डड्रिंक के स्थान पर मात्र छना हुआ जल वितरण किया जाये, जिससे समवशरण विहार में गन्दगी एवं आसादना न हो।

शिक्षक, विद्वानों से संबंधित -

समस्त धार्मिक आयोजनों के आधार स्तम्भ विद्वान् ही होते हैं, वे समाज में जिनशासन के प्रभावक/ मार्गदर्शक होते हैं। निश्चित ही समाज को उनसे जैन शासन की गंभीर मर्यादाओं के प्रवर्तन / स्थापना की अपेक्षा होती है।

8. प्रात: शीघ्र जागकर पंच-परमेष्ठी प्रभु का स्मरण करें।

9. बिस्तर पर सामायिक या अध्ययन नहीं करें।

10. कमरा, कपड़े एवं सभी सामग्री स्वच्छ एवं व्यवस्थित रखें।

11. शिविर के अन्तर्गत होने वाली पूजाओं में शिविरार्थी एवं शिक्षक-गण शुद्ध धोती दुपट्टा पहनकर ही सम्मिलित हों।

12. पूजा-भक्ति आदि में अश्लील, उत्तेजक संगीत धुनों का प्रयोग न हो।

13. अध्यापकों की वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, सादगी एवं यत्नाचार पूर्वक हो। खड़े-खड़े खाना-पीना न हो। दिनभर कुछ भी न खाते रहें।

14. भोजनादि में पहले से निर्देश दें। सात्विक, अल्प भोजन भी शुद्धि एवं शांति पूर्वक करें।

15. शिविर के निर्धारित कार्यक्रम के समयचक्र का दृढ़ता एवं ईमानदारी से पालन किया जावे। पूजन, भक्ति, प्रवचन के समय पर नाश्ता, भोजन, शयन या विकथा न करें।

16. शिविर में भी यथास्थान उचित तरीके से बैठकर ही प्रवचन कक्षा आदि का लाभ लेवें । कुर्सी पर बैठकर, लेटे-लेटे या जूते-चप्पल पहनकर, विकथा करते हुए, जूठे मुख कभी न सुनें । प्रवचन की सी.डी. एवं कैसेट भी सावधानी पूर्वक बैठकर सुने।

17. शिविरादि धार्मिक आयोजनों में जिस प्रयोजन हेतु सम्मिलित हुये हों, उसके प्रतिकूल लौकिक कार्यों, विषय-कषाय आदि में समय नष्ट कर आसादना न करें।

18. धार्मिक आयोजनों में प्राप्त सुविधाओं का अन्य लौकिक प्रयोजन, जैसे-घूमने-फिरने, मार्केटिंग आदि में दुरुपयोग न कर, नैतिकता का पालन करें।

19. टी.वी. देखने से बचें एवं परिवार एवं रिश्तों की भी बराबर की बहिनों से भी एकांत में चर्चा से बचे। शील का पालन दृढ़ता से करें।

20. प्रवचन करते समय पैर का स्पर्श न करें। चटाई पर हाथ न रखें, हाथ उठाकर ताली बजाने या ताल ठोकने जैसी प्रवृत्ति से बचना योग्य है।

सामान्यतः पूजा का क्रम -

पूजन में क्रम का ध्यान रखा जावे। श्री देव-शास्त्र-गुरु, पंच-परमेष्ठी या समुच्चय पूजन, बीस तीर्थंकर, तीस चौबीसी, कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालय अर्घ्य, चैत्यभक्ति, कायोत्सर्ग, सिद्धपूजन का अर्घ्य, आदिनाथ भगवान, मूलनायक भगवान, बालयति तीर्थंकर, चौबीस तीर्थंकर का अर्घ्य एवं कल्याणक दिवस में संबंधित तीर्थंकर का अर्घ्य एवं साथ ही विशिष्ट पर्व में अर्घ्य / पूजाक्रम श्री पंचमेरू, नंदीश्वर, सोलहकारण, दशलक्षण व रत्नत्रय का अर्घ्य समर्पित करना चाहिये।

शिक्षण संबंधी निर्देश -

पाठ्य विषय सामग्री सांगोपांग एवं पूर्व निर्धारित हो, जिसमें प्रथमानुयोग की कहानियाँ एवं आध्यात्मिक पाठ भी सम्मिलित हों। 21. सदाचरण प्रेरणा में रात्रि भोजन त्याग, आलू आदि अभक्ष्य का त्याग तो रहे, साथ ही सच्चे देव-शास्त्र-गुरु, धर्म के प्रति भक्ति, श्रद्धा सर्वलौकिक एवं पारलौकिक प्रयोजन एवं आयोजनों में उनकी स्थापना करें। ऐसे संस्कारों पर बल दें जिससे आपत्तिकाल में भी कुदेवादि के प्रति या मंत्र-तंत्रों के प्रति झुकाव न होने पायें।

22. न्याय-नीति पूर्ण जीवन की विशेष प्रेरणा, जिससे किसी प्राणीमात्र के प्रति अन्याय से भयभीत रहें। इर्ष्या, तिरस्कार आदि का भाव न जन्में । मिथ्यात्व, कषायों, पापों एवं व्यसनों का सातिचार विवेचन करते हुए त्याग की प्रेरणा करें।

23. द्रव्य अहिंसा का सांगोपांग विश्लेषण, सत्यादि व्रतों, मैत्री आदि भावनाओं का स्वरूप स्पष्ट करें।

24. बिना श्रम के येन केन प्रकारेण अधिकाधिक धन प्राप्ति के कुसाधनों के प्रति मन आकर्षित न होने पाये, ऐसी प्रेरणा दें।

25. श्री जिनमंदिरजी में अनुशासन, वैयावृत्ति, यत्नाचार की विशेष प्रेरणा दें।

26. सद्विचार एवं सादा रहन-सहन रखें एवं सत्साहित्य पठन-पाठन की प्रेरणा करें।

27. वर्तमान कुसंग, साहित्य, टी.वी., मोबाइल, फोन, इंटरनेट वेबसाइट आदि के द्वारा विषय-कषायों के पोषण से बचने की प्रेरणा दें। आज्ञाकारिता, बड़े-बूढों की सेवा-वैयावृत्ति, सहानुभूति, विनय, सरलता, सहजता, क्षमा, दया आदि का प्रायोगिक स्वरूप भी समझाया जाये। भाषा एवं चेष्टाओं की शिष्टता (मर्यादा) पर विशेष बल देना चाहिये।

29. लड़कों एवं लड़कियों के सम्पर्क पर विशेष निगरानी रखी जाये। कक्षाओं में बड़ी लड़कियों को खड़ा न किया जाये। खेल भी लड़कों को लड़कियों से अलग खिलाएँ। लड़के व लड़कियाँ एक साथ न खेलें। अध्यापक साथ में न खेलें । सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बड़ी लड़कियाँ स्टेज पर पुरूषों के सामने न आयें । महिला-सभा अलग हो।

30. कक्षा में उल्लास एवं प्रसन्नता तो ठीक है, परन्तु मर्यादा रहित हास्यादि न हो। हाथ ऊपर उठाकर ताली न बजवायें।

31. पुरस्कार विशेषत: धार्मिक उपयोग के रहें। जैसे-सत्साहित्य, जपमाला, आसन, चटाई, चौकी, स्टीकर्स, सूक्तियों की तख्ती / प्लेटें, पूजन का सेट, डिब्बी आदि।

32. बच्चों में पंक्तिभोज के संस्कार जागृत हों; अत: उन्हें बिठाकर ही शुद्ध भोजन, अल्पाहार (नाश्ता), पेयजल भी कराया जाये। बाजार की मिठाईयाँ-नमकीन, टॉफी, बिस्कुट, आइस्क्रीम, कोल्डड्रिंक्स कभी न खिलायें-पिलायें। ऊपर को मुँह करके एक ही बर्तन से सभी पानी डालते हुए न गटकें। गिलासों का प्रयोग करें।

33. सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पाश्चात्य संस्कृति (फिल्म, टी.वी., हास्य, धर्मविरुद्ध, कवि सम्मेलन) की नहीं वरन् जैनत्व की गरिमा झलकती हो।

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10. सामान्य व्यवहार (सार्वजनिक व्यवहार) :arrow_up:

1. प्रातः ब्रह्मबेला में उठकर इष्ट देवादि का स्मरण एवं तत्त्व चिंतन करें। बच्चों को भी जल्दी उठाकर इष्ट देवादि का स्मरण, व्यायाम आदि के संस्कार दें।

2. घर, कमरे, कपड़े एवं अन्य सामग्री स्वच्छ एवं व्यवस्थित रखें। जूते, चप्पल आदि भी नियत स्थान पर रखें। घर में चाहे जहाँ न पहने रहें ।

3. जूते, चप्पल आदि तथा बाथरूम आदि में प्रयुक्त झाडू, वाईपर, मग, बाल्टी आदि का प्रयोग रसोई तथा भोजन करने के स्थान तक न करें।

4. चाहे कहीं न थूकें। घर का कूड़ा, कचरा नियत समय एवं नियत स्थान पर डालें जिससे गली के कूड़े के साथ चला जाए और दिनभर गली में गंदगी न रहे। सब्जी एवं फलों के छिलके अलग ऐसे स्थान पर रख दें, जिससे पशु खा लेवें। कचरा में न मिले और न सड़े। प्लास्टिक थैली में बंद करके कदापि न फेंकें। सर्वत्र स्वच्छता का ध्यान रखें।

5. वाहन रास्ते में अवरोध न हो, ऐसे खड़े करें । स्वयं भी बीच रास्ते में खड़े होकर बातें न करें।

6. बिलासिता की हिंसक सामग्री का बहिष्कार करें। (शैम्पू, चर्बीयुक्त साबुन, डिटर्जेन्ट, तरल नील, टूथपेस्ट, क्रीम, पाउडर, इत्र, नेल पॉलिश आदि) चमड़े, रेशम से बनी वस्तुओं का कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करें।

7. अश्लील पुस्तकें, कैसिट, चित्रादि घरों में न रखें।

8. यदि टी.वी. हटाना सुगम न हो तो शील विरुद्ध कार्यक्रमों (सीरियल तथा फिल्में) के देखने पर दृढ़ता से अंकुश रखें।

9. जल, विद्युत, गाड़ी, स्टेशनरी, कागजादी एवं अन्य उपकरणों का प्रयोग आवश्यकतानुसार न्यूनतम ही करें, दुरुपयोग न करें, जिससे आर्थिक बचत हेतु चोरी न करनी पड़े।

10. बिना मूल्य की वस्तु भी आवश्यकता न होने पर कदापि न लें।

11. बच्चों को संस्कारित करना आपका अनिवार्य कर्तव्य है।

12. बच्चों में मीठी सुपाड़ी, बबलगम, टॉफी, बिस्किट, फ्रूटी आदि शीतल पेय, ब्रेड, बाजारू चाट-पकौड़ी या मिठाईयों की आदत न डालें।

13. शील की मर्यादा का पालन कृत-कारित-अनुमोदना से करें।

14. देव दर्शन यथासंभव प्रातः एवं सायं दोनों बार करें। मंदिरजी के समीप की महिलाएं एवं निवृत्त वृद्धजन दोपहर के समय का सदुपयोग मंदिरजी में स्वाध्याय एवं व्यवस्था में सहयोग करते हुए करें।

15. स्वाध्याय, पूजा, भक्ति एवं अन्य आयोजनों में समय का विशेष ध्यान रखें। ‘प्रमाद से समय की अवहेलना, अक्षम्य अपराध है।’

16. घर में भी कम से कम एक बार सामूहिक पाठ एवं स्वाध्याय अवश्य करें।

17. परिवार के प्रत्येक सदस्य द्वारा दान-फण्ड अवश्य बनायें। मुख्यतः बालकों में दान के संस्कार अवश्य डालें।

18. तत्त्वज्ञान का अभ्यास आत्महित की दृष्टि से करें।

19. अपरिचित एकान्त स्थान में सामायिक या स्वाध्याय करने अकेले न बैठे।

20. लेटे-लेटे (प्रमादपूर्वक) जिनवाणी (ग्रन्थों आदि) का अध्ययन न करें।

21. बड़े पुरुषों के अति समीप, अति दूर एवं सिर की ओर न बैठे। मित्रों के समान हास्यादि न करें।

22. जिनवाणी, धार्मिक पुस्तकों आदि को पंखे की तरह प्रयुक्त न करें, जमीन पर न रखें; पैर, जूते, मोजे आदि अपवित्र वस्तुएँ छू जाने पर हाथ धोकर ही छुयें तथा छोटे (अबोध) बालकों को पढ़ने (फाड़ने या खोलने) के लिए न दें।

23. जिनवाणी (पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, फोल्डरों, कैसिटों आदि) को पात्र तथा उपयुक्त व्यक्तियों को विनय पूर्वक रखने के अनुरोध पूर्वक उचित मूल्य (या बिना मूल्य) पर उपलब्ध करायें। चाहे किसी को भी मुफ्त बांटकर जिनवाणी की अविनय में भागी न बनें।

24. विवाह आदि का निमंत्रण पत्रिकाओं में णमोकार मंत्र, अन्य श्लोक एवं परमेष्ठी के चित्र आदि न छपायें । जिनमें यह छपे हों, ऐसे निमंत्रण पत्रिकादि प्राप्त होने पर उसकी अविनय न हो, अत: यथाशीघ्र विसर्जित करें या व्यवस्थित रखें।

25. शौच, बिस्तर, बाजारादि में छुए हुए तथा धोबी के यहाँ धुले एवं बच्चों को शौच कराने के बाद उन्हीं वस्त्रों का प्रयोग कम से कम मंदिर, स्वाध्याय, चौका (रसोई कार्य) आदि में न करें।

26. घर या दुकान आदि पर भी जिनवाणी तथा अन्य धार्मिक पत्रिकाओं को उचित एवं उच्च स्थान पर विनय पूर्वक विराजमान करें। यह विशेष रूप से ध्यान रखें कि उसके ऊपर जूते चप्पलादि न रखे जायें।

27. रसोई की स्वच्छता एवं शुद्धता का विशेष ध्यान रखें।

28. (डबलरोटी, बिस्कुट, आइसक्रीम, पेय, मिठाईयाँ, नमकीन, मसाले, आटा आदि) बाजारू खाद्य-सामग्री घरों में न लाएँ तथा तीर्थों एवं धार्मिक आयोजनों में कदापि न खायें।

29. पानी छानने की प्रक्रिया विवेकपूर्ण हो, छन्ना साफ एवं योग्य हो, पिसी हरड़, सौंफ, इलायची, लोंग या गर्म करके पानी की मर्यादा का ध्यान रखें।

30. रात्रि भोजन, होटल का भोजन, खड़े-खड़े खाना-पीना, गिद्ध (बफर) भोज आदि का त्याग करें।

31. हिंसा के पाप से बचने एवं जैनत्व की रक्षा हेतु आलू, गाजर, मूली, अदरक आदि जमीकंद का त्याग करें।

32. एक ही थाली में दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ भोजन न करें।

33. घरेलू आटा चक्की आदि मशीनों की ठीक तरह से साफ सफाई भी मर्यादित समयानुसार अवश्य करें।

34. मेहमानों को भोजन वयस्क कन्याएँ या बहुएँ न परोसें। भाई या वृद्ध महिलायें परोसें । युवा संसर्ग का बचाव रखें। लज्जा शील का आभूषण तो है ही, रक्षिका भी है।

35. कुसंग एवं विकथा से बचें।

36. वस्त्रों की सादगी की ओर विशेष ध्यान रखें, भड़कीले एवं मर्यादा विरुद्ध स्लीवलेस, मैक्सी, जीन्स, पारदर्शी तथा अति आधुनिक (एक्टरों जैसे फिल्मी स्टाइल के) वस्त्र न पहनें एवं बच्चों को भी न पहनायें।

37. बच्चों को बचपन से ही सादा वस्त्र पहनायें एवं इसका गौरव समझायें।

38. रात्रि-विवाह, मरण-भोज का बहिष्कार करें। सामूहिक (पंक्ति) भोज में भी जमीकंद आदि अभक्ष्य बनाने का त्याग करें।

39. शादी की वर्षगाँठ मनाने का नियम पूर्वक निषेध करें। बच्चों की वर्षगाँठ का यदि निषेध न हो सके तो पूजन, भक्ति, विधान, दान आदि क्रियाओं पूर्वक मनायें । पाश्चात्य शैली, उपहारों के लेन-देन अथवा विशेष साज-सज्जा, निमन्त्रणकार्ड, बड़े सामूहिक भोज पूर्वक न मनायें । केक कदापि न काटें।

40. स्वास्थ्य के नियमों का ध्यान रखें।

41. महिलायें मासिक अशुद्धि संबंधी नियमों का पालन पूर्ण रूप से करें।

42. गर्भपात जैसे क्रूरतापूर्ण कार्यों का त्याग करें।

43. महिलायें धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित होने के लिए भी गोलियों (हार्मोन्स टेबलेट) का उपयोग कदापि न करें।

44. गाली आदि असभ्यतापूर्ण वचनों का प्रयोग नहीं करें।

45. जुआ, मद्य-मांस-मधु, कुशील आदि व्यसनों के उन्मूलन हेतु (व्यक्तिगत या सामूहिक) अभियान चलायें ।

46. ईर्ष्या, दम्भ, तुच्छ स्वार्थ, छल-प्रपंचपूर्ण निंद्य व्यवहार से दूर रहें।

47. लौकिक व्यवहार में प्रामाणिकता एवं नैतिकता का यथाशक्ति ध्यान रखें। किसी के प्रति अन्याय न करें। भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन न दें, अनुमोदना तो कदापि न करें।

48. हम जिन सार्वजनिक स्थलों का उपयोग करें, उसकी स्वच्छता का अपना नैतिक दायित्व अवश्य निभायें।

49. प्राण पीड़ित कर रिश्वत, फीस, वसूली आदि का त्याग करें।

50. अनैतिक रीति से कार्य साधने की अपेक्षा संतोषपूर्वक अभावों की चुनौती को जीवन में स्वीकारने का अभ्यास करें।

51. क्रूरतापूर्ण हिंसक घटनाओं (जैसे- आतंकवादी, साम्प्रदायिक दंगे, समाज एवं देश के लिए हानिकारक कार्यवाही या वैज्ञानिक-परमाणु विस्फोट आदि) की अनुमोदना भी न करें।

52. विदेशी (मल्टीनेशनल) बड़ी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार कर, स्वदेशी कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित सामग्री के प्रयोग को बढ़ावा देकर, भारतीय अहिंसक संस्कृति के संरक्षण में सहयोग करें।

53. अशुद्ध एवं पर्यावरण प्रदूषण के कारण, जीवन घातक हो जाता है। पॉलीथिन, सजावट सामग्री जरी आदि तथा प्लास्टिक फाइवर से बनी वस्तुओं का दुष्प्रयोग एवं अधिक प्रयोग न करें तथा आवश्यक प्रयोग के बाद यत्र-तत्र न फेंके।

54. सहजतापूर्ण जीवन जीने की कला सीखें।

55. प्रतिकूलताओं का धैर्य एवं साहस से सामना करें, जिससे आत्महत्या जैसी जघन्य घटनाएँ न घटें।

56. परदेश (तीर्थादि में) जावें तो जिसप्रकार घर का ध्यान रखते हैं, उसीप्रकार मंदिर की आवश्यक सामग्री का ध्यान रखें।

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11. गुरुजनों के प्रति व्यवहार :arrow_up:

1. धर्म एवं पद के अनुकूल प्रवर्तन करें, जिससे कषायों के प्रसंग न बनें।

2. अभिप्राय को समझें, मात्र शब्दों को न पकड़े।

3. अत्यन्त विनय पूर्वक बोलें । कुतर्क कदापि न करें।

4. उपेक्षा से न सुने । आवश्यकतानुसार नोट करें।

5. कुछ भी करने से पहले आज्ञा अवश्य लें, कार्य हो जाने की सूचना अवश्य दें। न हो पाने पर उचित कारण बतायें । कुछ भी छिपायें नहीं।

6. सेवा आवश्यकतानुसार अवश्य करें। अत्यधिक सेवा करके प्रमादी न बनायें।

7. दोष सरलता से स्वीकार कर लें। बड़े से बड़ा दोष हो जाने पर भी भयभीत होकर भटकें नहीं। क्षमा माँगते हुए समाधान प्राप्त करें।

8. परोक्ष में भी स्वच्छंदता पूर्वक ऐसा कोई कार्य न करें जो उनकी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल हो।

9. सूक्ष्म एवं जाग्रत उपयोग पूर्वक हर्ष सहित शिक्षा ग्रहण करें।

10. ताड़ना को भी वात्सल्य रूप समझें, उस समय कहे शब्दों को भी गम्भीरता से ग्रहण करें, कषाय समझकर उपेक्षा न करें।

11. गुरुजनों से सम्पत्ति, विद्या, अधिकारादि छीनने का प्रयत्न न करें। उनके हृदय में अपना योग्य स्थान बनायें। सेवा को ही लाभ समझे और निस्पृह भाव रखें।

12. स्वार्थपूर्ण व्यवहार न करें।

13. कुछ कहे जाने पर मौन न रह जायें, योग्य उत्तर दें, समझ में न आने पर विनय सहित पूछे।

14. भलीप्रकार समझ लेने पर ही कार्य करने के लिए अग्रसर हों, भावुकता पूर्वक बिना समझे ही करने के लिए तत्पर न हो जावें। बिना समझे अटकलें न लगायें। अनधिकृत या अप्रमाणिक लोगों से चाहे जैसा समझकर, हम सब समझते हैं -ऐसा भ्रम न पालें, न दूसरों को भ्रमित या भयभीत करें।

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12. लघुजनों के प्रति व्यवहार :arrow_up:

1. अन्तरंग स्नेह रखें। उनके उन्नत एवं उज्ज्वल भविष्य के लिए मंगल कामना एवं समय-समय पर उचित और आवश्यक निर्देश एवं नियम देवें।

2. अच्छे संस्कारों के लिए सक्रिय प्रयत्न करें। पाठशाला, शिविर, गोष्ठी, प्रतियोगिताएं आदि आयोजित करें। इनके लिये प्रेरणा, सहयोग, प्रोत्साहन आदि करें।

3. कुसंग, कुव्यसनों एवं कुत्सित साहित्य से बचायें।

4. उलझनों को सहानुभूति पूर्वक सुलझायें, उचित सलाह दें।

5. उनसे अपनी तुलना करके ईर्ष्यादि कदापि न करें, उनकी उन्नति में प्रसन्नता व्यक्त भी करें।

6. तिरस्कार या ईर्ष्यापूर्वक उपेक्षापूर्ण व्यवहार न करें।

7. उनके द्वारा कुछ पूछने पर योग्य रीति से बतायें और न पूछने पर अपमान न समझे । आवश्यक होने पर सहजता से अपनी ओर से बता देवें। न मानने पर भी क्षोभ न करें।

8. सबसे अत्यधिक निकटता न बनायें। आवश्यक दूरी (आवास, भोजन, अध्ययनादि में) बनाये रखें, जिसस मर्यादा एवं अनुशासन बना रहे।

9. उन्हें अपनी व्यवस्थाओं में अनावश्यक न उलझायें, परन्तु पूर्णत: अनभिज्ञ भी न रखें।

10. उनके दोषों के सम्बन्ध में अन्य प्रकार से जानकारी मिलने पर प्रथम भूमिका में ही निषेध कर दें। प्रतिष्ठा बिन्दु न बनने दें अर्थात् दोषों का उपगूहन पूर्वक निराकरण करें।

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13. पारस्परिक व्यवहार :arrow_up:

1. पद के योग्य आदर एवं स्नेहपूर्ण ही भावना रखें, वचन बोलें एवं चेष्टा करें।

2. चुगली, निन्दा, ईर्ष्यादि कदापि न करें। दूसरों के गुणों एवं अच्छे कार्यों की अनुमोदना तो करें ही, यथायोग्य सहयोग भी करें।

3. विपत्ति में सहयोगी बनें।

4. स्वयं का दोष होने पर विनय पूर्वक क्षमा माँगें और दूसरों के क्षमा माँगने के पहले ही, सहजभाव से क्षमा कर देवें।

5. कदाचित् कषायों का प्रसंग बन भी जावे तो उसे लम्बायें नहीं । समस्या का समाधान खोजें एवं करें, उसे उलझायें या टालें नहीं।

6. सही सलाह दें । छल न करें। आपस में फूट न डालें। चाहे किसी की बातों का विश्वास न करें।

7. उत्तेजित न होवें । उत्तेजना में निर्णय तो कदापि न लें।

8. अधिक से अधिक देने और कम से कम लेने का प्रयत्न करें।

9. महिलाओं में अत्यन्त सीमित एवं प्रमाणीक व्यवहार रखें। मित्रता एवं रिश्ते नाते होने पर भी उनमें निकटता या अमर्यादित व्यवहार न करें, जिससे संदिग्धता की स्थिति बने और अन्तर्कलह से भविष्य क्लेशमय हो जाये।

10. लेन-देन, आय-व्यय का हिसाब अत्यन्त स्पष्ट एवं सूक्ष्म रखें।

11. स्वार्थपूर्ण व्यवहार कदापि न करें।

12. कंजूसी न करें, उदारता रखें। जैसे-किसी कमजोर आर्थिक स्थिति वाले को एडवांस दे देवें, जिससे उसका काम चल जाए, बाद में ले लेवें। सब्जी बेचने वाला, रिक्शा चालक, मजदूर आदि के प्रति प्रसंगानुसार लेन-देन में उदारता वर्ते ।

13. उपकार का अवसर कदापि न चूकें। अपने प्रति किये गये उपकार के प्रति कृतज्ञ बने रहें । स्वयं द्वारा किये उपकार का बखान न करें। वैसे ही व्यवहार की अपेक्षा न रखें।

14. श्रेय दूसरों को ही देते रहें। उन्हें ही आगे बढाएं । हाँ! गलती होने पर तुरन्त अपने ऊपर ले लें।

15. किसी के कहने मात्र से परस्पर अविश्वास न करने लगें, स्वयं निर्णय करें।

16. कोई भी अनुबन्ध लिखित एवं साक्षीपूर्वक ही करें।

17. बिना निर्णय के चाहे किसी का विश्वास न करें। विश्वास भी सीमित करें। विश्वसनीयता कायम रखें । संवैधानिक प्रक्रिया करने को अविश्वास न समझे। जैसे-दी हुई धन राशि को गिन लेना, लेन-देन में लिख लेना, अविश्वास का द्योतक नहीं, अपितु विश्वसनीयता बनाये रखने का उपाय है। कभी-कभी अति विश्वसनीयता भी व्यवहार बिगड़ने का कारण बन जाता है।

18. अपनी सामर्थ्य के अनुसार नुकसान स्वयं झेलें, दूसरों पर न थोपें ।

19. दूसरों के अन्याय को भी अपना कर्मोदय विचारते हुए समता से सहन कर लेवें।

20. अपना निर्णय बिना विशेष कारण के क्षण-क्षण में न बदलें । भूल अवश्य ही शीघ्रता एवं सहजता से सुधार लेवें।

21. जिस विषय की प्रामाणिक जानकारी न हो उस पर मौन ही रहें या स्पष्ट कहें कि मुझे ज्ञात नहीं है।

22. अति संकोच न करें।

23. योग्य उत्तर सहजता से न देना भी कभी-कभी कषाय का निमित्त बन जाता है; अत: योग्य उत्तर देने की सहज वृत्ति बनायें।

24. लघुता से प्रभुता एवं त्याग से शान्ति और प्रतिष्ठा मिलती है; अत: नाम, प्रशंसादि के लिए षड्यंत्र न करें, सावधान रहें।

25. बिना समझे हाँ न करें। विपरीत का भी विनय सहित सीमित शब्दों में निषेध करें।

26. अपनी मनवाने का आग्रह न करें।

27. बाह्य हानि-लाभ की अपेक्षा परिणामों की निर्मलता का अधिक ध्यान रखें।

28. अति राग भी क्षुब्ध करता है, भले ही शुभ ही क्यों न हो; अतः भवितव्य का विचार कर अतिरेक से बचें।

29. अन्तरंग में प्रसन्न रहें और प्रसन्नता की अभिव्यक्ति भी करें। प्रसन्न मुद्रा में ही बातचीत एवं व्यवहार करें।

30. कर्जा, पुस्तक या कोई वस्तु लेकर न देने की वृत्ति कदापि न बनायें।

31. किसी की जमीन, मकान, कमरा या दुकानादि पर कब्जा कदापि न करें।

32. किसी के साथ असभ्यतापूर्ण व्यवहार न करें, जिससे उसे कष्ट हो और स्वयं की निंदा हो।

33. निर्दोष चिकित्सा पद्धति अपनायें, स्वास्थ्य के नियमों को पहले से ही समझे, पालें और पलवायें ।

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14. सामाजिक व्यवहार :arrow_up:

1. अपने व्यापार को सीमित एवं नियमित रखें।

2. साधर्मीजनों के प्रति अत्यंत वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करें। बाहर से आये हुए साधर्मी को मात्र व्यवस्था से भार स्वरूप समझकर अपेक्षा से नहीं, अपितु अंतरंग हर्ष पूर्वक यथायोग्य भोजनादि करायें। शिष्टाचारपूर्ण व्यवहार करें। आने पर हर्ष प्रगट करें। उसके लौकिक कार्य में भी यथासंभव सहयोग करें। कोई कष्ट आ जाने पर समर्पण भाव से आत्मीयता पूर्ण वैयावृत्य करें। परस्पर तत्त्वचर्चा करके समय का सदुपयोग तो करें ही, स्वाध्यायादि की प्रेरणा यथासंभव स्वयं भी लें एवं उन्हें भी दें। यदि कोई विद्वानादि हो तो समय निकालकर जिसप्रकार उनकी व्यक्तिगत चर्या में विघ्न न हो, उसप्रकार यथासंभव अधिक से अधिक लाभ लें । जाने के प्रसंग पर व्यवस्था सहित प्रेम पूर्ण विदाई दें एवं पुनः पधारने का आग्रह करें। बच्चों को भी यथायोग्य सेवा आदि की प्रेरणा करें।

3. व्यवहार में पद की मर्यादा का ध्यान रखें, अनर्गल न बोलें । अहंकार पूर्ण चेष्टा न करें। व्यवस्थाओं में मात्र दूसरों पर निर्भर न रहें।

4. ऐसा कोई कार्य न करें जिससे लोगों को उपहास का अवसर मिले। जैसे-अधीन कर्मचारियों, पड़ोसियों से दुर्व्यवहार, अधिकार हनन या धरोहर हड़प करना, अनुचित ब्याजादि लेना। अत्यधिक हिंसापूर्ण, अन्याय, अनीतिपूर्ण व्यापार एवं व्यवहार करना आदि ।

5. शील मर्यादाओं का पालन करें।

6. पूर्ण निवृत्ति की भावना सहित यथासंभव निवृत्ति लेते जायें।

7. धर्मायतनों की व्यवस्थाओं में अधिकाधिक सहयोग करें।

8. आयोजनों एवं कार्यक्रमों में उपेक्षा पूर्ण भाव से मात्र (रेडीमेड) उपस्थिति ही न दें, अपितु समय से पूर्व आकर व्यवस्था देखें एवं पश्चात् भी थोड़ी देर रुककर व्यवस्था में सहयोग करें । तात्पर्य यह है कि वात्सल्य मात्र अंतरंग में ही न रहे, उसकी वचन एवं चेष्टाओं से अभिव्यक्ति भी आवश्यक है।

9. अपने से छोटों को ज्ञानदान दें, दिलावें, प्रोत्साहित करें, अनुमोदना करें आदि।

10. स्थानीय साधर्मीजन एवं विद्वानों को भी समय-समय पर भोजनादि के लिए आमंत्रित करें । बीमारी आदि प्रसंगों में उनकी यथायोग्य वैयावृत्ति एवं अन्य प्रकार से सहयोग करें। यदि आवश्यक हो तो आजीविका आदि में भी उनका सहयोग करें।

11. त्यागी एवं विद्वान, समाज के गौरव हैं एवं गुरुजन हमारे परिवार के आभूषण हैं, उनका योग्य सम्मान, सहयोग एवं सेवा करें।

12. परोपकार का प्रत्युपकार नहीं चाहें ।

13. किसी की आराधना एवं प्रभावना में बाधक नहीं हों।

14. सामर्थ्यानुसार आर्थिक एवं अन्य किसी प्रकार से असमर्थ व्यक्तियों का व्यक्तिगत निस्पृह भाव से सहयोग करें। समाजोत्थान हेतु ट्रस्ट, विद्यालय, औषधालय, वाचनालय अन्य लघु उद्योग केन्द्र आदि बनायें और ऐसी संस्थाओं में यथाशक्ति सहयोग करें।

15. परोपकार के प्रसंगों में यथाशक्ति और यथायोग्य प्रवर्ते ।

16. विषय-कषायों में लिप्त होकर आडम्बर एवं प्रदर्शनपूर्ण, विवेकशून्य रहन-सहन से अत्यंत दूर रहकर, अन्तरंग की विवेकमयी विशुद्धि को वृद्धिंगत करते हुए, आत्मार्थ की साधना एवं जिनधर्म की प्रभावना कर सार्थक सहज जीवन जियें।

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15. अतिथि-सत्कार :arrow_up:

1. अतिथि के आने पर मुद्रा एवं वचनों से हर्ष प्रगट करें। बड़ों को योग्य अभिवादन कर खड़े हों और उनका सामान आदि लेकर रखवाएँ।

2. समय अनुसार स्नान, भोजन, जलपान, औषधि, विश्राम आदि की उचित व्यवस्था करें।

3. कार्य में सहयोग की व्यवस्था करें।

4. मन में कोई भार या दुर्भाव न आने दें। शिष्ट वचनों में अपनी उलझन या असमर्थता हो तो कह दें। कपट पूर्वक ऊपर ऊपर से शिष्टाचार मात्र ही नहीं करते रहें।

5. सहज व्यवहार करें।

6. उनके वात्सल्य को भी सहजता से स्वीकार करें।

7. परिस्थिति के अनुसार उसे अल्प या अधिक समय अवश्य दें।

8. योग्य रीति से विदाई दें।

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16. पारिवारिक सौन्दर्य :arrow_up:

1. ‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान में एक। पाले पोषे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।’ प्रमुख को परिवार के सभी सदस्यों की एक परिचय तालिका बना लेना चाहिए, जिसमें सभी सदस्यों के नाम, आयु, योग्यता, अभिरुचि, क्षमता, प्रकृति आदि की सूक्ष्म जानकारी रहना चाहिए।

2. आय की स्पष्ट जानकारी सभी सदस्यों को रहना चाहिए, जिससे किसी को अनावश्यक अपेक्षा न हो पाये।

3. यथासम्भव सभी के साथ समानता का व्यवहार किया जाये।

4. गृह एवं अन्य निर्माण भी दूरदर्शिता पूर्वक इसप्रकार किए जायें, जिससे बँटवारा उचित रीति से हो सके। विवादों का प्रसंग न बने।

5. बड़ों का आदर एवं छोटों से स्नेह का ध्यान रखा जाये।

6. अनुचित माँगों का निषेध दृढ़ता से हो, परन्तु उचित अपेक्षाओं की उपेक्षा न हो।

7. कार्य विभाजन विवेक पूर्वक हो, उसका पालन सावधानी पूर्वक हो । प्रत्येक सदस्य अपने से अधिक दूसरों का ध्यान रखें।

8. आर्थिक एवं वैचारिक उदारता वर्ते ।

9. परस्पर विश्वास रखें और विश्वासघात कदापि न करें।

10. किसी प्रकार की हानि होने या विपत्ति आने पर सहनशील रहें। व्यक्ति विशेष (आरोपी) को भोगने के लिए अकेला न छोड़ें। धैर्य एवं सहयोग दें। युक्ति पूर्वक समस्या का समाधान करें।

11. दोषों के लिए उचित अवसर देखकर कोमलता पूर्वक सन्तुलित भाषा में ही कहें । तिरस्कार करते हुए कदापि न कहें।

12. गुणों की प्रशंसा एवं प्रोत्साहन अवश्य करें।

13. छोटों से भी सभ्य एवं शुद्ध भाषा में विनय सहित बोलने की प्रवृत्ति विकसित करें।

14. किसी कार्य में छोटों की भी सलाह लेवें। अपने को ही सर्वोपरि न समझते रहें।

15. छोटे कार्यों को स्वयं करने की पहल करें, जिससे दूसरों को उस कार्य के करने में हीनता न लगे।

16. उन्नति एवं विश्राम आदि का सबको उचित अवसर दें।

17. तात्त्विक वातावरण बनायें। स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, क्षमा, विनय, सेवा, पाठ, चिंतन की प्रयोगात्मक शिक्षा दें। त्याग का आदर्श दें।

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17. संयुक्त परिवार के लाभ :arrow_up:

1. बड़ों के अनुशासन में प्रमाद नहीं हो पाता । दिनचर्या व्यवस्थित बनी रहती है।

2. शील एवं मर्यादाओं की सुरक्षा रहती है। पहले तो बन्धन-सा लगता है, परन्तु बाद में समझ आने पर, सहज सुरक्षा कवच जैसा लगने लगता है।

3. अनेक प्रंसगों पर सुशिक्षा एवं संस्कार मिलते हैं, जो भविष्य में हमारी समस्याओं के समाधान में सहायक होते हैं।

4. लज्जा एवं संकोच से दुष्प्रवृत्तियाँ या दुर्व्यसनों से सहज ही बचे रहते हैं।

5. बड़ों की विनय, सेवा आदि के संस्कार रहने से अभिमान आदि नहीं आ पाते।

6. माता-पिता, भाई-भावजादि के बीच में सन्तान का पालन पोषण भलीप्रकार से हो जाता है। स्वयं के अनुभव न होने के कारण, होने वाले टेंशन से मुक्त रहते हैं।

7. पारिवारिक संगठन होने से समाज में प्रतिष्ठा रहती है।

8. सामाजिक व्यवहार निभाने में सुविधा रहती है।

9. आपत्ति के समय असहायपना नहीं लगता।

10. व्यवहार से देखें तो सुख बँटता रहने से बढ़ता है और दु:ख घटता रहता है।

11. धर्म साधन एवं समाधि में सरलता होती है।

12. परन्तु ये सब तभी सम्भव है, जब हृदय में विवेक और उदारता हो। वाणी में मधुरता हो । सहनशीलता हो। आक्षेप कटाक्षादि न हों। सहयोग की वात्सल्यपूर्ण भावना हो। समस्या का समाधान शान्तिपूर्वक निकाला जाये। त्याग और समर्पण के भाव रहें । पक्षपात और मिथ्या स्वार्थ न हों।

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18. विनय :arrow_up:

1. विनय, सही समझपूर्वक, उपकृत हृदय से, सहज वर्तनेवाला भाव है। विनय में भय और प्रदर्शन के लिए अवकाश नहीं है।

2. विनय उत्कृष्ट शिष्टाचार है।

3. विनय की प्रकृति पहिचान कर, अनुकूल प्रवर्तन (विचार, वचन एवं चेष्टा) करें।

4. मर्यादा एवं यश के प्रतिकूल कार्य न करना, विनय का पहला चरण है। अज्ञान,अभिमान और प्रमाद को छोड़कर विवेक एवं यत्नाचार पूर्वक उचित समय पर खड़े हों। सामने नीचे बायीं ओर बैठे-चलें । योग्य अभिवादन पूर्वक संतुलित चर्चा करें। ध्यान पूर्वक पूरी बात सुने एवं समझकर उचित प्रक्रिया करें।

5. चर्चा के प्रसंगों में स्वयं आगे-आगे और बीच-बीच में न बोलें। किसी बात या कार्य को छिपाने का प्रयास न करें।

6. बोलने की अपेक्षा सुनने में अधिक उत्साहित रहें। मात्र स्वार्थसिद्धि के लिए अतिरिक्त विनय का प्रदर्शन कदापि न करें।

7. मन में प्रमोदभाव, गुण एवं उपकार चिंतन पूर्वक ही यथायोग्य बाह्य विनय सम्भव है।

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(19) संगति :arrow_up:

1. गति का अर्थ ज्ञान भी है। संगति के अनुसार प्रायः गुण दोष, बिना चाहे भी प्रवृत्ति में आ जाते हैं। अत: कुसंग के त्याग और सत्संग में रहने की प्रेरणा की जाती है।

2. मिथ्या श्रद्धान की प्रबलता वाले; चमत्कारादि में उलझे हुए; मिथ्या मंत्र तंत्रों में फंसे हुए; ज्ञान या क्रियादि एकान्त के पक्षपाती; तीव्र कषायों से युक्त; विषयों में आसक्त; जुआ, नशा, आदि व्यसनों में लीन; (भक्ष्य-अभक्ष्य, न्याय-अन्याय, धर्म-कुधर्म, योग्य-अयोग्य आदि के विवेक से रहित); रूढ़ियों में ग्रस्त; आचरण से भ्रष्ट; शील से रहित; रसनादि इन्द्रियों के लोलुपी; विश्वासघाती (मित्र, गुरु, धर्म, देश आदि के प्रति द्रोह करने वाले हिंसक, क्रूर परिणामी); अपयश आदि के भय रहित; निर्लज्ज, कलह प्रिय, पापों में ग्लानि रहित, कायर, स्वाभिमान से रहित; आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, धर्म-अधर्म की सत्ता को निषेधने वाले; धर्म-धर्मात्माओं की निंदा करने वाले अथवा दूसरों की निंदा करने वाले; अपनी मिथ्या प्रशंसा करने वाले तीव्रमानी; दूसरों के दुःख अपमान हानि आदि में हर्ष मानने वाले; दूसरों की उन्नति, वैभव, ज्ञान, पद, प्रतिष्ठा आदि से ईर्ष्या करने वाले; प्रमादी, स्वार्थी, संयम नियम में अत्यंत शिथिल - ऐसे जीवों की संगति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ऐसी संगति में स्वयं के दोषों का पोषण एवं गुणों की हानि होती है।

3. संगति योग्य : सम्यक् श्रद्धानी; विवेकवान, दयायुक्त, पापभीरु; यश की कामना से रहित, परन्तु अपयश के कारणों से विरक्त; सत्यवादी, शीलवान, संतोषी, ईमानदार, निष्पक्ष, न्यायवान; विषयों में अनासक्त या संतोषी, शांत स्वभावी, विनयवान, गंभीर, तीव्र क्रोधादि रहित; क्षमावान; ईर्ष्या, परनिन्दा एवं आत्म प्रशंसा से रहित; देव-गुरु-धर्म-शास्त्रादि के प्रति भक्तिवान; परोपकारी; किसी का अहित चिंतन भी न करने वाले; कोमलता पूर्वक हित-मित-प्रिय वचन बोलने वाले; लोकनिंद्य कार्यों से दूर रहने वाले; कष्टसहिष्णु, ज्ञानाभ्यासी, श्रेष्ठ आचरण वाले; अपने संयम नियम के प्रति दृढ़; गुणग्राही; दूसरों के गुणों एवं अच्छे कार्यों के प्रशंसक एवं अच्छे कार्यों में निस्पृहता पूर्वक सहयोग करने वाले - ऐसे जीव संगति योग्य हैं। ऐसे जीवों की संगति में हमारे दोष निकलते हैं और गुणों का विकास होता है।

4. संगति केवल संग रहने का नाम नहीं। जैसे-दूसरे जलते हुए दीपक का स्पर्श पाकर, दीपक स्वयं अपनी तैलयुक्त बत्ती से प्रकाशमय हो जाता है, वैसे ही ज्ञानी जीवों की संगति में पात्र जीव अपने विवेक, गुणग्राहकता, विनय एवं पुरुषार्थ से स्वयं के गुणों का विकास कर लेते हैं।

समझें -

सत्संगति
कुसंगति
1. कल्पवृक्ष समान है। विषवृक्ष समान है।
2. चंदन समान है। अंगारे समान है।
3. उत्तम वस्त्र जैसी है। जीर्ण वस्त्र जैसी है (यत्न करने पर भी फटने वाला)
4. निरन्तर सुखप्रद है। निरन्तर क्लेशकारी है।
5. उत्तरोत्तर वृद्धिंगत है। पतन का कारण, अन्त में कलह पूर्वक टूटने वाली है।
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