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@jinesh
गाथा १४ देखिये

[सुविदिदपयत्थसुत्तो ] जिसने संशयादि रहित होने के कारण अच्छी तरह से निज शुद्धात्मा आदि पदर्थों और उनके प्रतिपादक सूत्रों (आगम-जिनवाणी) को जान लिया है, और उनका श्रद्धान किया है, उसे पदार्थों और सूत्रों को अच्छी तरह जाननेवाला कहते हैं । [संजमतवसंजुदो ] बाह्य में द्रव्येन्द्रियों से निवृत्त होकर छहकाय के जीवों की रक्षा से और अन्तरंग में अपने शुद्धात्मा के अनुभव के बल से स्वरूप में संयमित होने से जो संयम-सम्पन्न हैं तथा बहिरंग और अन्तरंग तप के बल से काम-क्रोधादि शत्रुओं के द्रारा जिसका प्रताप खण्डित नहीं हुआ है, ऐसे निज शुद्धात्मा मे प्रतापवंत-विजयवंत होने से (स्वरूपलीन होने से)जो तप-सम्पन्न हैं । [विगदरागो ] वीतराग शुद्धात्म-भावना के बल से समस्त रागादि दोषों से रहित होने के कारण जो विगतराग हैं । [समसुहदुक्खो ] वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न उसीप्रकार परमानन्द सुख-रस में लीन जो निर्विकार स्व-संवेदनरूप उत्कृष्ट कला, उसके अवलम्बन से इष्ट-अनिष्ट पंचेन्द्रिय विषयों में हर्ष-विषाद रहित होने के कारण जो समसुख-दु:ख हैं । [समणो ] ऐसे गुणों से समृद्ध श्रमण-उत्कृष्ट मुनि, [भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ] शुद्धोपयोग कहे गये हैं - यह अभिप्राय है ॥१४॥

यहाँ कहा गया है “श्रमण-उत्कृष्ट मुनि”, उनके गुण भी बताये है, जैसे छहकाय के जीवों की रक्षा करने वाले , बहिरंग और अन्तरंग तप करने वाले आदि। क्या ये गुण चतुर्थ गुणस्थान “अविरति” श्रावक में पाए जा सकते है?

गाथा १६ देखिये

[तह सो लद्धसहावो ] जैसे निश्चय रत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोग के प्रसाद से (यह आत्मा) सभी को जानता है, उसी प्रकार पूर्वोक्त (पन्द्रहवीं गाथा में कहे) शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त करता हुआ, [आदा ] यह आत्मा [हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो ] स्वयंभू है, ऐसा कहा गया है । वह आत्मा कैसा होता हुआ स्वयंभू है ? [सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो भूदो ] सर्वज्ञ और सम्पूर्ण लोक के (विविध) राजाओं द्वारा पूजित होता हुआ स्वयंभू है । वह स्वयंभू कैसे है? [सयमेव ] वह निश्चय से स्वयं ही स्वयंभू है ।

क्या चतुथ गुणस्तानी श्रावक राजाओ के द्वारा पूज्य है?

मुझे गाथा २८७ में आचार्य श्री क्या कहना चाह रहे है, कुछ कुछ समझ आ रहा है, किन्तु मै सुनिश्चित नहीं हूँ। इसका सही अर्थ क्या है आपको बाद में सुनिश्चित हो कर बताऊंगा।

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