चरखा चलता नाँहि | charkha chalta nahi

चरखा चलता नाँहि, चरखा हुआ पुराना।

पग-खूँटे दो हालन लागे, उर मदरा खखराना।
छींदी हुई पाँखड़ी पाँसू, फिरे नाँहि मनमाना ।।

रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसे खूटे ।
शब्द-सूत सूधा नहीं निकले, घड़ि-घड़ि पल-पल टूटे।।

आयु-माल का नाँहि भरोसा, अंग चलावे सारे ।
रोज इलाज मरम्मत चाहे, वैद-बढ़ि ही हारे ।।

नया चरखला रंगा चंगा, सबका चित्त बुरावै ।
पलटा बरन गये गुल अगले, अब देखें नहिं भावै ।।

मोटा महीं कातकर भाई! कर अपना सुरझेरा।
अन्त आग में ईंधन होगा, “भूधर’ समझ सबेरा ।।

Artist : प. श्री भूदरदास जी

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@Sulabh
@Sarvarth.Jain
Please tell the meaning of this bhajan line wise.

इस भजन में कवि ने वृद्धावस्था का वर्णन किया है। इस शरीर को चरखे की उपमा दी गयी है।

प्रथम अन्तरे में पग खूंटे अर्थात 2 पैरों के बारे में लिखा है।

द्वितीय अन्तरे में रसना तकली अर्थात जीभ ने किस प्रकार कार्य करना बंद कर दिया है, वह बताया।

बाद के अंतरों में कवि कहते हैं कि अब इसके चलने का कोई भरोसा नहीं रह गया है। इसे वैद्य-हकीमों के द्वारा मरम्मत की प्रतिदिन ज़रूरत पड़ने लगी है।

और कहते हैं कि जब ये नया था तब सभी को अच्छा लगता था, सबका मन प्रसन्न करता था। अब यह सबको बुरा लगने लगा है।

अंतिम अन्तरे में कवि लिखते हैं कि ‘मोटा मही कातकर, कर अपना सुरझेरा’ अर्थात स्वयं के लिए अधिक समय निकाल कर अपना काम बना लो क्योंकि अंत समय में तो यह आग में ही झोंका जाना है।

यह इस भजन का संक्षिप्त अर्थ है।

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यहां बुढ़ापे की अवस्था को चरखे के पुरानेपन से जोड़ा गया है।

छंद में आए चरखे से सम्बन्धित शब्दावली -
• खूंटे - जिस पर चरखा रखा होता है।
• पांखड़ी - चक्के की पंखुड़ी
• तकली - जिस खूंटे से सूत को लपेटा जाता है (टेकुआ)
• सूत - धागा
• माल - टेकुआ का धागा
• बढ़ी - बढ़ई
• बरन - चरखे का रंग

इसमें निम्न सुधार करना चाहिए -
• बल खाना - ये एक ही क्रियापद बलखाना है
• तीसरे अन्तरे में

अंग चलाचल सारे’
• चौथे अंतरे में

सबका चित्त चुरावै

बाकी अर्थ तो सरल है।