भूला है स्वयं आत्मा को, जो भुलाने के काबिल नहीं है।
आत्मन् आया है अवसर सुनहरा, चूक जाने के काबिल नहीं है।।टेक।।
मूढ़ काया को प्रतिदिन सजाता, नाना भूषण वसन पहनाता।
एक दिन छूट जाएगा निश्चित, ममता करने के काबिल नहीं है।।१।।
पाप छोड़ के पुण्य में आता, मानकर धर्म उसमें भ्रमाता।।
अरे बन्ध का ये भी कारण, मुक्ति मारग के काबिल नहीं है।।२।।
तत्त्व निर्णय में मन को लगाओ, भेद विज्ञान सम्यक् सजाओ।
सर्व पर्याय गुण भेद को भी, मैं कहाने के काबिल नहीं है।।३।।
ध्रुव के आश्रय सम्यक् उपजाता, ज्ञान चारित्र सच्चा प्रगटाता।
कोई शिव मार्ग अरु शिव स्वयं ही, शंका करने के काबिल नहीं है।।४।।
एक ही मंगलोत्तम शरण है, ज्ञायक ही निश्चय तारन तरन है।
होता स्वयमेव सब परिणमन है, चिन्ता करने के काबिल नहीं है।।५।।
सुन समझ चेत निज को समझले, मात्र ज्ञायक हूँ स्वीकार कर ले।
कैसा सुन्दर समागम मिला है, जो गंवाने के काबिल नहीं है।।६।।
रचनाकार: बा. ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’