श्री भरत जिन पूजन। श्री भरत चक्रवर्ती पूजन। श्री भरत भगवान पूजा। Bharat Bhagwan Puja। Bharat Chakrawarti Pujan

श्रीभरतजिन पूजन

(दोहा)

त्याग प्रभु तुम चल दिये, छह खण्डों का राज।
प्रकटा केवल हो गये, तीन लोक सिरताज ॥
छवि नयनों को भा गयी, मम उर रहो विराज ।
कोटि-कोटि वन्दन तुम्हें, भरत प्रभु जिनराज ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्

( ताटंक )

मेरा स्वभाव शुचितामय है, मैं अशुचि देह में रमा रहा ।
जल से मल को मैं दूर करूँ, सब विफल यत्न में लगा रहा।
छवि शान्त तेरी निरखी जिनवर ! मुझको आनन्द महान हुआ।
हे भरत प्रभु ! जय भरत प्रभ! अब निजस्वभाव श्रद्धान हुआ ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

शीतलता मेरा निजस्वभाव, चिर मिथ्या अग्नि तप्त रहा।
चन्दन से पाऊँ शीतलता, यह मान सदा संतप्त रहा। छवि ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

अक्षय अखण्ड मैं अविकारी, अक्षय पद को मैं बिसर गया।
क्षतपर्यायों की बुद्धि से ही भवअटवी में अटक गया। छवि ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

निष्काम स्वरूप सदा मेरा, मैं कामभोग में व्यस्त रहा।
विषयों की तुष्टि सुख देगी, इन भोगों में मैं त्रस्त रहा ॥ छवि ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

है मम स्वरूप अन - आहारी, तन क्षुधा-व्याधि को पोष रहा।
षट् रस व्यंजन के पोषण से, दुःख घोर अनादि भोग रहा । छवि. ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मैं सदा प्रकाशित ज्ञानपुंज में मिथ्या-तम से अन्ध रहा।
स्वपर दरशायक ज्योत न देखी, जगत- कूप में बन्द रहा | छवि ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

शाश्वत भाव पारिणामिक, मैं करमों से निरपेक्ष सदा ।
जड़कर्मों को कर्ता माना, छक रहा नित्य मिथ्यात्व मुधा ॥छवि ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

मैं शक्ति पुंज वीरज मण्डित, जो मोक्ष महाफल को पाता ।
पर पापपुण्य के दुष्फल में, चिरकाल रहा मैं भरमाता । छवि. ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

तुम चक्रवर्ती अनुपम प्रभुवर ! जो निज स्वभाव संधान किया।
निजबल पुरुषार्थ चक्र द्वारा, वसु कर्मों का अवसान किया ॥
छवि शान्त तेरी निरखी जिनवर ! मुझको आनन्द महान हुआ।
हे भरत प्रभु ! जय भरत प्रभ ! अब निजस्वभाव श्रद्धान हुआ ।

ॐ ह्रीँ श्री भरतजिनेन्द्र अनर्घ्यपदप्रासये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

जयमाला

ऋषभदेव के पुत्र तुम, पिता- पन्थ पर धाय ।
मोक्ष-राज को पा लिया, ध्यान-चक्र प्रकटाय ॥

(मानव)

छह खण्डों के थे स्वामी, भरतेश अतुल बलवानी ।
वैभव अकूत के धारी पर ज्यों पंकज अरु पानी ॥
दरबार में एक दिवस जब, मुख को दर्पण में देखा।
झुरकी कपाल में देखी, मानो मुक्ति का सन्देशा ||
वैराग्य हृदय में जागा, वन-गमन की है तैयारी।
चले राज-पाट को तजकर, स्व गुरु बन दीक्षा सँभारी ॥
हे अचिन्त्य आत्मबल धारी, जब ध्यान अश्व पर धाये।
निर्जरा घाति कर्मों की, नहिं कर्म-रेणु टिक पाये ॥
प्रकटीं नव केवल- लब्धि, जब केवलज्ञान उपाया।
हो गये प्रभु परमातम, त्रैलोक्य हर्ष है छाया ॥
तब ही कुबेर ने आकर की गन्धकुटी संरचना ।
आसीन हुए भरतेश्वर, झरें दिव्यध्वनि के वचना ॥
आतम है भिन्न सभी से, बस ज्ञाता दृष्टा मानो ।
निज- पर विवेक से निज को, निज में ही देखो जानो ।।
हैं जीव सफल जग भर के, शक्ति में सिद्ध- समाना ।
निज शक्ति को पहिचानो, यदि सुख है अनाकुल पाना ॥
थी भोर की स्वर्णिम आभा, हिम शिखरों लाली छायी।
तब समुद्घात के द्वारा, आत्मा त्रैलोक्य समायी ॥
खिर गये कर्म रज सारे लोकाग्र प्रभु जा विराजे ।
जगती में आनन्द छाया, बज रहे देवकृत बाजे ॥
मर्दन कर वसु कर्मों का गुण दिव्य अष्ट प्रकटाये।
आनन्द परम तुम भोगो, हम भक्ति-प्रमोद मनाये ॥
है नमन तुम्हें सिद्धातम, हे भरत नाथ परमेश्वर।
दीजे सन्मति हम सबको, है यही आश करुणेश्वर ॥

ॐ ह्रीँ श्रीभरतजिनेन्द्र अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

भरत छवि उर धाय के, कर लीनों निरधार ।
अब निज आतम को लखूँ, तो उतरूँ भव-पार ॥

पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्

सोर्स: मंगल अर्चना पृष्ठ क्रमांक १७९

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