बाल भावना। १३.अनादि अनंत जो । Anadi Anant Jo

१३. नौ पदार्थ

अनादि अनंत जो एक रूप है, सदा काल ज्ञाता स्वरूप है।
सुख-दुःख को वेदे व्यवहार, निश्चय से तो सुख स्वरूप है ॥१॥

मैं तो ऐसा जीव तत्त्व हूँ, आश्रय योग्य सु परम तत्त्व हूँ ।
अकृत्रिम शाश्वत परमातम, तीन लोक में सार तत्त्व हूँ ॥२॥

देहादिक अजीव तत्त्व हैं, मात्र ज्ञान के ज्ञेय अरे ।
मैं नहीं इनका कर्ता-भोक्ता, स्वामी नहिं तिहुँकाल अरे ॥३॥

मोहादिक भावों का होना, भावाश्रव दु:खदाता है ।
उस निमित्त से कर्म जो आवें, द्रव्याश्रव कहलाता है ॥४॥

द्रव्यबंध का निमित्त भाव ही, भावबंध तुम पहिचानो ।
कर्मों का बंधना द्रव्यबंध, भव भ्रमने का कारण जानो ॥५॥

सम्यक्तादि शुद्ध भावों से, अशुद्ध परिणति रूक जाना ।
यही भाव सुखमय संवर, द्रव्यसंवर कर्म नहीं आना ।।६।।

शुद्धभाव का बढ़ते जाना, भाव निर्जरा सुखकारी ।।
पूर्व बंध का झड़ते जाना, द्रव्य निर्जरा हितकारी ।।७।।

सर्व प्रकार शुद्ध परिणति ही, भाव मोक्ष मंगलमय है ।
सकल कर्म का क्षय हो जाना, द्रव्य मोक्ष ही अक्षय है ।।८।।

विषयों का अनुराग पाप है, सब प्रकार दु:ख का कारण ।
पुण्य भाव धर्मानुराग है, परंपरा सुख का कारण ॥९ ॥

ये ही प्रयोजन भूत तत्त्व हैं, इनका निर्णय अब करना ।
भेदज्ञान अरू स्वानुभूति से, सम्यक् दर्श प्रकट करना ॥१०॥

रचयिता-: बा.ब्र. श्री रवींद्र जी ‘आत्मन्’

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