अमृत वचन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’ | Amrut/Amrit Vachan

  1. संसार या दुःख के अन्तरंग कारण रागादि, बाह्य कारण कर्म-नोकर्म आदि का आत्मा में सदा अभाव ही है । आत्मा तो त्रिकाल सुखमय सर्वप्रकार के दुःखों से शून्य है । दुःख का वेदन मात्र पर्यायदृष्टि में है, मंगलमय द्रव्यदृष्टि में नहीं ।

  2. विकल्पों का होना अपवाद मार्ग तथा निर्विकल्प दशा उत्सर्ग मार्ग है । ज्ञानी को अपवाद मार्ग तो नहीं, उत्सर्ग मार्ग का भी आदर नहीं । ‘ज्ञानमात्र’ निज भाव का ज्ञान हो जाने पर पर्यायादि का आदर आ सकता नहीं अर्थात जो विकल्प आवे उसमें ‘ठीक है’ ऐसा नहीं ; तथा ‘विकल्प न आवे’ ऐसा भी विकल्प नहीं । मैं निर्विकल्प पर्याय से निर्विकल्प नहीं अपितु सहज, त्रिकाल निर्विकल्प हूँ ।

  3. अनुयोग तो शैली मात्र है । अनुयोग का उपदेश या अभ्यास नहीं करना । अनुयोग के माध्यम से अभ्यास या उपदेश तो मोक्षमार्ग का करना है अर्थात स्वरूप अभ्यास कर्तव्य है ।
    अनुयोग हेय या उपादेय नहीं । अनुयोगों में जो मिथ्यात्वादि वर्णित हैं वे तो हेय हैं और उन्हीं में वर्णित रत्नत्रय उपादेय है । अनुयोग तो ज्ञेय मात्र है ।

  4. प्रति पर्याय ममता से गुजरने पर भी आत्मा अनादि से आज तक समतामय ही है और अनन्तकाल तक समतामय ही रहेगा । आत्मस्वभाव का विस्मरण ही पर में ममता का मूल कारण है । स्वभाव की पहिचान होते ही ममता के पैर उखड़ जाते हैं ।

  5. पराए धन से धनवाले नहीं होते, पराये (पंच परमेष्ठी भगवन्तों) ज्ञान, दर्शन, सुख से अपना कुछ कार्य चलने वाला नहीं, लोक में भी दूसरे की आँख से स्वयं को नहीं देखा जाता परन्तु अपनी आँख (उपयोग) भी जब तक अन्य सन्मुख हो, तब तक स्वयं को देखा नहीं जा सकता । स्वसन्मुख दृष्टि ही आत्मकल्याण में कार्यकारी है ।

  6. पुण्य हेय होते हुए भी ज्ञानी के पुण्य में प्रवर्तन उसी प्रकार होता है - जैसे हेय जानते हुए भी गाड़ी में बैठना, कपड़े में साबुन लगाना, लेन्टर (छत से पहले कच्ची छत) झूला लगाना…आदि परन्तु उसी समय श्रद्धान यही रहता है - ‘ये झूला वास्तविक छत नहीं, वैसे ही पुण्य धर्म नहीं है ।’

  7. आत्मवैभववन्त पंचपरमेष्ठी भगवंतों की सच्ची महिमा उसी को आ सकती है जिसे (स्व) आत्मरुचि हुई हो । बाह्य जड़ वैभव की महिमा, राग (पुण्यादि) की महिमा आदि में अटका मिथ्यादृष्टि तो इन वीतरागी भगवन्तों के दर्शन करने भी जायेगा तो उनके पुण्यादि, शरीर, इष्ट संयोग, चित्रकारी आदि की महिमा आयेगी, उनमें आनन्द मानेगा ।

ठीक ही है प्रथमानुयोग में ज्ञानीजनों (तीर्थंकरादि) की कथाएँ पढ़ते समय ज्ञानियों को उनकी आत्मपवीत्रता की महिमा आती है जबकि अज्ञानी को पुण्योदय से मिली शरीर संयोगादि रूप विभूति की । ऐसा जीव आत्मकल्याण से विमुख ही रहता है । जिसे उनके दर्शनादि से आत्मा की महिमा आती है वही मोक्षमार्गी है ।

  1. केवल चाबियों से काम नहीं चलता । चाबी बनाने की कला सीखने पर ही तालों में चाबियाँ लग सकेंगी । उसी प्रकार शास्त्रों में नाना प्रकार के कथन आते हैं, उन कथनों को बदलने या निकालने से काम नहीं चलेगा । अर्थ करने की कला पद्धति सीखें बिना आचार्यों का अभिप्राय समझ में नहीं आ सकेगा और मुक्तिमार्ग नहीं प्रारम्भ हो सकेगा । जैसे चाबी वाला चाबी घिसता है ताला नहीं, वैसे ही हमें ही अपनी बुद्धि शास्त्रों के अनुसार ढालनी पड़ेगी ।

  2. जैसे कपड़े के अनुसार शरीर नहीं बदला जाता, शरीर के अनुसार कपड़ों की फिटिंग की जाती है, वैसे ही शास्त्रों के अनुसार अर्थात वस्तुस्वभाव के अनुसार अपना अभिप्राय बनाना पड़ेगा, अपनी मान्यता के अनुसार शास्त्रों का अर्थ नहीं होता ।

  3. जैसे डाॅक्टर अति कमजोर अथवा ब्लडप्रेशरादि ठीक करने की औषधि देते हैं परन्तु उस औषधि से कहीं वह रोग ठीक नहीं होगा ; वह तो आॅपरेशन होने पर ही ठीक होगा । ऐसे ही पापों की तीव्रता में फँसे जीवों को पहले मंदकषायों में लगाते हैं । तीव्र व्यसनादि से छुड़ाते हैं परन्तु इतने मात्र से मिथ्यात्व नहीं मिटेगा । मिथ्यात्व तो तत्वनिर्णय, भेदज्ञान पूर्वक आत्मरुचि होने पर ही मिटेगा ।

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