लेखक - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
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प्रकाशकीय
पंचमकाल की इस विनय-वात्सल्य शून्य स्वार्थ, ईर्ष्या, अहंकार पूर्ण व्यवस्था को भी माध्यस्थ भाव से स्वीकार ही करना होगा । बाहर से अपना उपयोग समेटना ही होगा । शान्ति अंतरंग में ही वीतराग भाव की साधना करने से मिलेगी ।
शास्त्र में तो मात्र संकेत हैं । संकेतानुसार मार्ग का निर्णय करते हुए अंतरंग में पुरुषार्थ करना है ।
वस्तुस्वरूप का विचार करते हुए बीच में मोह की मंदता होने से शुभभाव भी आयेंगे । पुण्योदयजनित अनुकूलताएँ भी आयेंगी जिनमें सुख-सा लगेगा परन्तु उनमें भ्रमित न होते हुए, न अटकते हुए, उपयोग को अन्तर्मुख करते हुए ज्ञानमात्र ध्रुव स्वरूप को लक्ष्य करना ही है । बिना स्वानुभव के विश्राम नहीं । उतावलापन, आकुलता भी न हो और प्रमाद भी न हो ऐसे सन्तुलन, धैर्य, पुरुषार्थ पूर्वक आत्माराधना करना ही सम्यक उपाय है ।
जैसे हीरों की खान में खुदाई करते हुए मिट्टी पत्थर आदि मिलते हैं । गहरे उतरने में कठिनाइयाँ बढ़ती जाती हैं परन्तु साहस, विश्वास और उत्साह पूर्वक खोदते जाते हैं और गहरे-गहरे उतरते जाते हैं अन्ततः हीरों को प्राप्त कर ही लेते हैं । वैसे ही स्वाध्याय, तत्त्वविचार पूर्वक गहरे उतरते हुए, उपयोग की एकाग्रता बढ़ाते हुए शुद्ध रत्नत्रय को प्राप्त करें ।
मिथ्यादर्शन को आत्मश्रद्धान, अज्ञान को सम्यग्ज्ञान व कषायों और कामनाओं को तत्त्वविचार एवं आत्मध्यान के अभ्यास से ही जीता जा सकता है ।
आत्मश्रद्धान और आत्मभावना से आत्मबल सहज ही प्रगट होता जाता है निर्भयता सहज ही वर्तती है ।
क्रमबद्ध परिणमन का मिथ्या विचार कर आत्महित में प्रमादी होना और विषयों में उलझे रहना भी स्वच्छन्दता ही है ।
दृढ़ संकल्पशक्ति व योग्य व्रत लेकर ही, अविरति और प्रति समय अंतरंग उत्साह और सतत सावधानी पूर्वक स्वरूप साधना में प्रवर्तन से ही प्रमाद को जीता जा सकता है । जैसे लौकिक में भी लक्ष्य प्राप्ति के लिए उत्साह पूर्वक प्रवर्तन होने पर प्रमाद स्वयं दूर हो जाता है ।
जैसे अकृतपुण्य के द्वारा खीर माँगने पर भी न देने के कारण श्रेष्ठी-पुत्रों के प्रति अन्तरंग में द्वेष भाव वर्तने से ऐसा कर्मबन्ध हुआ कि धन्यकुमार के भव में उसके मन में दुर्भाव न होने पर भी उसके भाइयों के मन में उसके प्रति ईर्ष्या और द्वेष होता था ; जिससे खिन्न होकर उसे घर छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा । अतः मन में भी कभी किसी के प्रति द्वेष मत रखना । भवितव्य और अपने उदय का विचार कर समता ही रखना श्रेयस्कर है ।
शरीर, रागादि सहित जीव का अनुभव तो सभी अज्ञानी करते ही हैं । देहादि से भिन्न ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुव आत्मा का अनुभव करने वाले विरले ज्ञानी ही हैं । जैसे छिलके रहित चावल का आस्वादन करने वाले मनुष्य विरले ही हैं ।
पुण्योदय से बड़ा और पापोदय में हीन मानने वाले तो बहुत हैं परन्तु कर्मोदय से निरपेक्ष देखने वाले ज्ञानी विरले हैं ।
स्थूल पापों को छोड़कर स्थूल पुण्य की क्रियाओं में संतुष्ट हो जाने वाले तो बहुत हैं परंतु भेद ज्ञान पूर्वक आत्म-आराधना करने वाले दुर्लभ हैं ।
पर द्रव्यों को दुख-सुख का कारण मानकर आर्त्त-रौद्र ध्यान करने वाले तो बहुत हैं परंतु अपने मोह (मिथ्यात्व, कषाय) को दुख का कारण मानकर उसे मिटाने के लिए ज्ञानाभ्यास करने वाले विरले हैं ।
विकल्प के अनुकूल परद्रव्यों का परिणामन देखकर कर्तृत्व का अहंकार करने वाले तो बहुत हैं परंतु स्वयं स्वाधीन होते हुए परिणमन को भिन्न समझकर अकड़ का ज्ञाता रहने वाले ही अंतरात्मा हैं ।
मोक्ष मार्ग को कठिन और कष्ट कर समझकर भोगों में ही मग्न रहने वाले मोही तो बहुत हैं किंतु मोक्ष मार्ग को आनंदमय समझते हुए रत्नत्रय धारी ज्ञानी विरले ही हैं ।
भगवान और गुरुओं को प्रसन्न करके कामनाओं की पूर्ति करने की मान्यता वाले भोले जीव तो बहुत हैं परंतु उनके वीतराग स्वरूप का निर्णय करके उनकी साक्षी में मोक्षमार्ग साधने वाले धर्मात्मा विरले ही हैं ।
आत्मा को रागादि आस्रवों से भिन्न जाने बिना आस्रवों का अभाव नहीं होता । जब जीव स्वयं को आस्रवों से भिन्न एक, नित्य उद्योतरूप, विज्ञानघन, कारकों की प्रक्रिया से पार अर्थात -
(a). किसी से उत्पन्न होने वाला और न किसी को उत्पन्न करने वाला ।
(b). न किसी का साधन और न किसी का साध्य ।
©. न किसी से कुछ लेने वाला और न किसी को कुछ देने वाला ।
जीव ज्ञान रूप हो अपना परिणमन कर रहा है और पुद्गलादि ज्ञानवान ना होने पर भी अपना परिणमन कर रहे हैं, उन्हें अपना परिणमन करने के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं है ।
निज की शरण ही जागरण है ।
निवृत्तिमय जीवन में प्रवृत्तिमय जीवन (विषयों में प्रवृत्तिरूप) सुहाता ही नहीं ।
शारीरिक चेष्टाएँ - जड़ की क्रिया ।
मोह-राग-द्वेष - अधर्म की क्रिया ।
सम्यकदर्शनज्ञानचारित्र - धर्म की क्रिया ।
आत्मा असाधारण तत्त्व है, उसकी चर्चा भी असाधारण है । सर्वोत्कृष्ट परमात्माओं द्वारा कही गई है । अतः अपूर्व रुचि से ही ह्रदयंगम होगी । साधारण रुचि से काम नहीं चलेगा ।
हाथ में कोयला या पत्थर रखकर चिन्तवन करने से कुछ हाथ नहीं लगेगा परन्तु चिन्तामणि रख कर चिन्तवन करते ही इच्छित वस्तु की प्राप्ति होगी । वैसे ही चैतन्य चिन्तामणि आत्मा को ज्ञान का विषय बनाते ही सुख की प्राप्ति सहज हो जायेगी ।
जैसे आम के वृक्ष से निबौरी उत्पन्न नहीं हो सकती उसी प्रकार आत्म स्वभाव में विकार उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है ।
वस्तु के स्वभाव में भूल नहीं है, भूल मात्र दृष्टि में है ।
अहं की भावना में बुद्धि कुण्ठित हो जाती है ।
अंतरंग के सच्चे पश्चाताप से कलुषता अविलम्ब धुल जाती है ।
केवल कल्पनाओं से सुख की उपलब्धि नहीं होती ।
लोक निर्मम है, सत्य से कोसों दूर है, यहाँ सत्य की अर्थी जलती है ।
अजितेन्द्रिय के समस्त धार्मिक अनुष्ठान गजस्नानवत् है ।
आत्मानुभूति ही चैतन्यतरू का सुफल है ।
सम्यग्दर्शन भी अध्यात्म पद्धति से देखा जाए तो आत्मा से बाह्य तत्त्व (संवर तत्त्व) है । आगम पद्धति से ‘आत्मा का है’ - ऐसा कहा जाता है । सच बात तो यहै कि सम्यग्दर्शन का तो पूर्ण समर्पण ध्रुव को है । जहाँ उसके व्यक्तिगत अंश के लिए कोई गुंजाइश नहीं ।
निज ज्ञानस्वभाव ही आत्मा का आसन है ।
जो ज्ञानस्वभाव की ओर ले जाए उसे न्याय कहते हैं और जो पर की ओर ले जाए उसे अन्याय कहते हैं ।
सम्यक्त्वी तो व्यवहार से निवृत्तिस्वरूप है ।
स्वर्ग के देव को नरक का दुःख नहीं, नारकी को स्वर्ग का सुख नहीं और आत्मा में इन समस्त विकारों का अस्तित्व नहीं ।
स्वभाव के आश्रयी को परास्त करने में कोई समर्थ नहीं क्योंकि उसके मोह का अभाव है ।
शूरवीर वही है जो न्याय का पक्ष ले ।
दुःखमय निराशा अज्ञान का परिणाम है, सुखमय निराशा (आशा रहित) ज्ञान का फल है ।
आवागमन (विकल्पों) में शान्ति नहीं, संसार है ।
स्व को ग्रहण करे उसे ही परमार्थ से तीक्ष्णबुद्धि कहते हैं ।
असंतोष पराजय का दूसरा नाम है ।
सच बात तो यह है कि नेमिकुमार ने शादी के समय पशुओं को बंधन से मुक्त नहीं किया उन्होंने तो स्वयं को राग के बंधन से मुक्त किया था, पशु अपनी योग्यता से मुक्त हुए थे ।
पशुओं को बंधन में देखकर नेमिकुमार विचारते हैं कि, “ये पशु मेरे विवाह के लिए नहीं अपितु वैराग्य के लिए इकट्ठे किये गये हैं ।”
मानी, ऊँट की पर्याय में जाता है जो ऊपर ही देखता रहता है परन्तु पहाड़ के नीचे आने पर नीचा देखना पड़ता है ।
अज्ञानी कंजूस कोयले के समान है जिस पर गुरुओं के उपदेश का रंग नहीं चढ़ता ।
‘मैंने अमुक पर उपकार किया’ - ऐसा विचार करना भी अपराध है । ‘मैं किस का श्रेय कर रहा हूँ ?’ - ऐसा विकल्प भी अभिमान है ।
लोकेषणा आत्म-कल्याण का समूल गात करने वाली जानकर त्यागो ।
वैष्णवों में लक्ष्मी की सवारी उल्लू मानी गयी है - इसका अर्थ यह है कि जिसको लक्ष्मी का भूत सवार हो जाता है वह उल्लू के समान दिन (ज्ञान-प्रकाश) में अंधा और अज्ञान के अंधकार में गतिशील हो जाता है ।
आत्मा में रुचि लग जावे, उपयोग रम जावे, ऐसा अतीन्द्रिय आनन्द भरा है जबकि पर में शान्ति का नाम भी नहीं अतः जिसे आत्मबोध हुआ उसे पर में रुचि आती नहीं और स्व से रुचि छूटती नहीं ।
राग प्रशस्त नहीं होता, राग का विषय प्रशस्त (देव-शास्त्र-गुरु-निज तत्त्व आदि) होने से राग को उपचार से प्रशस्त कहते हैं ।
आगम की आज्ञा की अवहेलना करते हुए स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति अर्थात विषय-कषायों की पूर्ति में ही तल्लीन रहना, उन्हीं की पुष्टि करना, धर्म साधना के लिए होनहार व कर्म का बहाना बनाना, क्रियाकाण्ड में सन्तुष्ट होना, ‘भरतादि ज्ञानी भी भोगों में रहते थे’ - ऐसा उदाहरण देते हुए स्वयं भोगों में फँसे रहने पर भी धर्मात्मा मानना स्वच्छन्दता है ।